संवेदनशील बनें
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महावीर अपनी माता त्रिशला के साथ राजोद्यान में टहल रहे थे। उद्यान के बीच में हरी दूब का एक बड़ा सा गोलाकार मंडल था। उसके बीच में संगमरमर का एक क्रीड़ा पर्वत था। जगह-जगह फव्वारे छूट रहे थे। महावीर चुपचाप पेड़-पौधों, फूलों की शोभा को निहारते हुये आगे चले जा रहे थे।
माता त्रिशला अपने परिकर के साथ विचरती हुई हरी दूब के विस्तृत मंडल में विहार करने लगी। वे गर्मी की सन्ध्या में नंगे पैरों से उस पर चलकर हरी दूब का शीतल सुख पाना चाहती थी। महावीर मंडल के बाहर खड़े-खड़े उन सबको ताकते रह गये। माँ के बहुत पुकारने के बाद भी उन्होंने दूब के आंगन में पैर नहीं बढ़ाया।
माँ से रहा नहीं गया। आप ही दौड़ी आई और बेटे को अपने से सटाकर बोली - ‘यहां क्यों खड़ा रह गया, बेटा! चल न भीतर, देख तो दूब कैसी शीतल और कोमल है और देख तो वे फव्वारे।' महावीर चुप रहे। बोले नहीं। माँ ने बेटे के गाल और बाल सहला कर पूछा - अरे! चुप क्यों है?
तभी देखा - महावीर के गाल गीले हैं।
माँ ने पूछा - बेटा! तुझे यह क्या हो गया?
महावीर ने भोलेपन से जबाब दिया - तुम जब इस नन्हीं कोमल दूब को रौंदती हुई चलती हो न, तो हमको बहुत दुःख होता है। लगता है हमारे ऊपर ही तुम चल रही हो। हमारी सारी पीठ छिल गई है। माँ ने पीठ सहलाते हुए देखा तो जगह-जगह पैरों के निशान पड़े थे। ऐसा लगा जैसे अभी-अभी रक्त छलक आएगा। माँ एकदम भौंचक्क रह गई। यह थी भगवान् महावीर की संवेदना। इसी संवेदना ने उन्हें अहिंसा की प्रतिमूर्ति बना दिया।
महत्वपूर्ण जन्म नहीं जीवन है।
।।ओऽम् श्री महावीराय नमः।।
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