सती अंजना सुन्दरी
सती अंजना सुन्दरी
सती अंजना सुन्दरी महेन्द्रपुर के राजा महेन्द्र व रानी हृदयवेगा की परम प्यारी पुत्री थी। बालकपन में ही वह सब विद्याओं व कलाओं में निपुण हो गई थी। इसको धर्मशास्त्र की शिक्षा भी पूर्णरूप से दी गई थी। युवती होने पर माता-पिता ने उसका सम्बन्ध आदित्यपुर के राजा प्रह्लाद एवं रानी केतुमती के पुत्र पवनकुमार के साथ निश्चित कर दिया।
पवनकुमार ने अंजना के रूप, गुण और शिक्षा की बहुत प्रशंसा सुनी थी। उससे मिलने की इच्छा से वे एक रात्रि को अपने मित्र के साथ विमान द्वारा महेन्द्रपुर को रवाना हुए। जिस समय वे महेन्द्रपुर पहुँचे, अंजना सुन्दरी अपने महल के ऊपर सखियों के साथ बैठी हुई अपना मनोरंजन कर रही थी। पवनकुमार छिप कर उनकी गुप्त वार्ता सुनने लगे। ये सब सखियाँ अंजना के संबंध पर अपना-अपना विचार प्रकट कर रही थी। अभाग्य से उसकी एक मूर्ख सखी ने पवनकुमार के सम्बन्ध पर कुछ असंतोष प्रकट किया। अंजना लज्जावश चुप रही। पवनकुमार इसे अपना अपमान समझकर बहुत दुःखी हुए। उनकी अंजना से अरुचि हो गई। वे मित्र सहित अपने स्थान को लौट आए और अंजना के साथ विवाह न करने की दिल में ठान ली। यह समाचार किसी को मालूम न हुआ।
इधर दोनों राजाओं ने विवाह की तिथि निश्चित कर ली। विवाह की सब तैयारियां होने लगी। पवनकुमार ने विवाह न करने की बहुत हठ की, परंतु माता-पिता के आगे उनकी एक न चली। नियत तिथि पर उनका विवाह हो गया। यद्यपि पवनकुमार ने अपने माता-पिता के कहने से अंजना से विवाह कर लिया, परन्तु उनका चित्त उसके विरुद्ध ही रहा। अंजना जब उनके महल में गई तो उसे उनके रूठे होने का हाल मालूम हुआ। उसे बहुत दुःख हुआ। दिन-रात वह उनको प्रसन्न करने के लिए प्रयत्न करती रहती थी किंतु उनका भ्रम दूर नहीं हुआ। पवनकुमार ने अंजना की ओर कभी प्रेम से नहीं देखा। इस प्रकार परम सती को उनका नाम रटते-रटते 22 वर्ष हो गए। चिंता के कारण उसका शरीर सूखकर पिंजर हो गया।
एक दिन जिस समय पवनकुमार अपने पिता की आज्ञा अनुसार लंका के राजा रावण को राजा वरुण के युद्ध में सहायता देने के लिए जाने को तैयार हुए तो उन्होंने साक्षात् प्रेम की मूर्ति अंजना को दरवाज़े पर पति-दर्शन के लिए खड़ा हुआ देखा। पवनकुमार ने उसकी विनय पर कुछ ध्यान न दिया अपितु अपमान भरे शब्दों से उसका और भी तिरस्कार कर दिया और अपनी सेना लेकर युद्ध के लिए चलते बने। अंजना सुन्दरी के हृदय पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। इस समय उसे परमात्मा के ध्यान के सिवाय और कोई सहारा न रहा।
चलते-चलते पवनकुमार मानसरोवर पर पहुंचे। वहां उन्होंने अपना डेरा डाल दिया। वे रात्रि के समय टहल रहे थे तो उन्होंने चकवी को चकवे के वियोग में रुदन करते हुए देख कर विचारा - ‘देखो! इस चकवी को अपने प्रिय का एक रात्रि का वियोग होने से इतना कष्ट हो रहा है। अंजना को 22 वर्ष के वियोग से न जाने कितना कष्ट हुआ होगा? प्रेम के अश्रु पवनकुमार की आंखों से गिरने लगे। वे तुरंत ही गुप्त रीति से अपने मित्र सहित उसी रात्रि को विमान में बैठकर चुपके-चुपके अंजना सुन्दरी के महल में पहुंचे। अंजना पवनकुमार को देखकर फूली न समाई। पति की अनेक प्रकार से विनय और भक्ति करने लगी। पवनकुमार ने अपने अपराधों की क्षमा मांगी और सारी रात महल में अंजना सुन्दरी के साथ बिताई।
सवेरा होते ही पवनकुमार वहां से विदा होने लगे तो अंजना सुन्दरी ने कहा - जान पड़ता है मुझे गर्भ रह गया है। कृपा कर आप मुझे अपनी कोई निशानी दे जावें जिससे मेरा अपमान न हो सके। तब पवनकुमार अपनी अंगूठी अंजना सुन्दरी को देकर चले गए।
इधर उसके गर्भ के लक्षण प्रकट होने लगे। यह देखकर उसकी सास केतुमती ने उसे दोषी ठहराया। अंजना ने पवनकुमार की अंगूठी को दिखाकर उसके भ्रम को दूर करना चाहा, परन्तु उसने एक न मानी और अंजना को उसकी सखी बसंत माला सहित उसके पिता महेंद्र के यहां भेज दिया। माता-पिता ने भी अंजना को कलंकित समझकर अपने नगर में घुसने नहीं दिया। इस तरह दुःखी होकर बेचारी अंजना अपनी सखी बसंतमाला सहित विलाप करते हुए भयानक वन में एक पर्वत की गुफा में पहुंची। वहां दैव योग से उसे एक बड़े तपस्वी ज्ञानी मुनिराज के दर्शन हुए। अंजना ने बड़ी विनय से उनसे अपनी विपत्ति का कारण पूछा। उत्तर में मुनिराज ने कहा - पु़त्री! तूने पहले जन्म में श्री जिनेंद्र भगवान की प्रतिमा को बावड़ी के जल में फिंकवा कर उनका अनादर किया था। इससे तूने घोर पाप का बंध किया था। उसी के कारण अब तुझे 22 वर्ष का पति वियोग और अनेक दुख सहन करने पड़े। अब घबरा मत। धर्म-साधना कर। तेरे कष्ट का अंत होने ही वाला है। तुझे एक बड़ा पराक्रमी, शूरवीर और धर्मात्मा पुत्र होगा।
वे मुनिराज तो वहां से विहार कर गए। रात्रि के समय जब अंजना बसंतमाला सहित गुफा में थी, तब एक भयानक सिंह गुफा के द्वार पर आया। उसे देखकर अंजना भयभीत हुई। उसकी सखी बसंत माला ने बड़े साहस और पराक्रम से सिंह का सामना करके उसे वहां से भगा दिया। अंजना अपनी सखी सहित धर्म-ध्यान पूर्वक उस गुफा में रहने लगी और श्री मुनिसुव्रत भगवान की प्रतिमा को विराजमान करके नित्य अभिषेक पूजन करने लगी। वहां ही उसने परम प्रतापी जगत प्रसिद्ध हनुमान को जन्म दिया।
एक दिन अंजना वन में अपने पति को याद करके फूट-फूट कर रो रही थी। उसी समय कारणवश हनुरुद्वीप का राजा प्रतिसूर्य उधर से आ रहा था। अंजना का विलाप सुनकर उसने अपना विमान उतारा और गुफा में गया। उसने तुरंत अपनी भांजी अंजना को पहचान लिया और उसको हृदय से लगा लिया। वह उसे हर प्रकार से शांति देकर अपने साथ अपने नगर में ले गया। इधर जब पवनकुमार युद्ध में राजा वरुण को जीतकर अपने नगर आदित्यपुर में आए तो अंजना को वहाँ न पा कर बड़े दुखी हुए। जब पता चला कि वह अपने पिता के यहां महेंद्रपुर गई है तो वे वहां पहुंचे, परंतु जब वहां भी परम सती अंजना के दर्शन न हुए तो वे उसकी खोज में वनों में पागल की तरह घूमने लगे।
अब तो राजा महेंद्र को भी यह हाल जानकर बहुत दुःख हुआ। दोनों ओर से पवनकुमार और अंजना की खोज में दूत भेजे गए। उनमें से एक दूत राजा प्रतिसूर्य के पास पहुंचा और पवनकुमार का सब हाल कह सुनाया। अंजना यह हाल सुनकर मूर्छित हो गई। राजा प्रतिसूर्य ने उसे समझाया और वे आदित्यपुर आए। वहां के राजा प्रह्लाद को लेकर पवनकुमार की खोज में निकले। खोजते-खोजते पवनकुमार को एक भयानक वन में वृक्ष के नीचे बैठा देखा। पवनकुमार की बहुत शोचनीय दशा थी। पवनकुमार को देखते ही राजा प्रह्लाद के हृदय में प्रेम उमड़ आया। उन्होंने दौड़कर जल्दी से उसे हृदय से लगा लिया तथा अंजना से मिलने का और उसके यहाँ प्रतापी पुत्र होने का समाचार सुनाया।
पवनकुमार यह समाचार सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। वहां से चलकर सब राजा प्रतिसूर्य के यहां हनुरुद्वीप में आए। पवनकुमार अपनी प्राणप्यारी अंजना से मिले। दोनों ने अपने दुःख एक दूसरे को सुनाकर दिल को शांत किया और कुछ दिनों तक वहां रहे। यहां से आदित्यपुर में आकर दोनों पति-पत्नी पुत्र सहित आनंद से समय बिताने लगे। अंत में अंजना ने आर्यिका बनकर बड़ी तपस्या की और धर्मध्यान पूर्वक मरकर स्वर्ग प्राप्त किया।
हे भव्यों! अंजना के चरित्र से हमें बड़ी शिक्षा मिलती है। कर्मों की गति कैसी विचित्र है! महान् पुरुष भी कर्मों के फल से नहीं बच सकते। यह अंजना का चरित्र बतलाता है कि जिन-शासन की अविनय करने से बहुत बुरा फल मिलता है। यह चरित्र मनुष्य के आलस्य को छोड़कर गंभीर बनाता है। यह चरित्र बतलाता है कि विपत्ति में साहसहीन न होकर धर्म पालन करना ही उचित है। यह सिखाता है कि कार्य में सफल न होने पर पुनः उद्योग करके उस कार्य में सफलता प्राप्त करना वीरों का धर्म है। कर्मों का खेल, पतिव्रत धर्म की रक्षा और एक अबला के साहस और पराक्रम का सच्चा उदाहरण इस चरित्र में मिलता है।
सुविचार - जिन्होंने निर्मल भावों का आश्रय लिया है, वे पुरुष संसार के द्वंद्व से छूट गए हैं। हम भी अपनी निर्मलता से दुःख-द्वंद्व से मुक्त हो सकते हैं।
।।ओऽम् श्री महावीराय नमः।।
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