झूठ का फल
झूठ का फल
प्रमोद का मन आज पढ़ने में नहीं लग रहा था। उसके स्कूल की छुट्टी थी, किंतु पिताजी की आज्ञा से विवश होकर वह पढ़ रहा था। आज उसकी इच्छा सिनेमा देखने की थी। प्रमोद सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। वह अच्छा और होनहार लड़का था। पढ़ने में सबसे आगे तो नहीं, पर दूसरे नंबर पर अवश्य रहता था। उसके माता-पिता उसे अपने साथ ही दो-तीन माह बाद पिक्चर दिखाते थे। वे उसे कुछ दिन पहले पिक्चर दिखा कर लौटे थे इसलिए डेढ़ माह तक तो पिक्चर देखने का सवाल ही नहीं था, लेकिन वह नई पिक्चर की इतनी तारीफ़ अपने मित्रों से सुन चुका था कि झूठ बोलकर पिक्चर जाने का मन बना रहा था।
इसी वजह से वह कमरे में कुर्सी पर बैठा सामने मेज़ पर किताब रख कर पढ़ने का बहाना करता हुआ पिक्चर जाने की तरकीब निकाल रहा था। शाम होने को थी। सोचते-सोचते उसे एक तरकीब सूझ गई और मन ही मन उसने पूरी योजना बना डाली। वह तुरंत ही किताब बंद करके उठा और रसोई में खाना बनाती माँ के पास पहुंच गया - ‘माँ! माँ! आज बड़ी भूल हो गई मुझसे,’ कहते हुए प्रमोद ने ऐसा मुंह बनाया, जैसे बड़ा भारी नुकसान कर बैठा हो।
‘क्या हो गया बेटा?’ - माँ एकदम से घबरा कर बोली। ‘क्या बताऊं, माँ? मेरे दोस्त अनिल का आज जन्मदिन है। उसने मुझे दो दिन पहले ही निमंत्रण दे दिया था, पर माँ! मैं तो एकदम से भूल गया था। बस! अभी-अभी याद आया है। अब कैसे जाऊं मैं?’ - कहते हुए प्रमोद की आवाज़ ऐसी हो गई जैसे अभी रो देगा।
‘तो क्या हुआ, बेटा? इसमें रोने की क्या बात है। तुम जल्दी से तैयार होकर चले जाओ,’ माँ उसे समझाते हुए बोली। ‘पर माँ! मैं उसे उपहार में क्या दूंगा?’ प्रमोद अभी भी उसी स्वर में बोल रहा था।
‘दोगे क्या?’ कहते हुए माँ रसोई से निकलकर कमरे में चली गई और जब लौट कर आई तो उनके हाथ में एक 200 रुपये का नोट था। 200 रुपये का नोट देखकर प्रमोद मन में बहुत खुश हुआ किंतु उसने चेहरे से प्रकट नहीं होने दिया कि वह प्रसन्न है। आते ही माँ बोली - ‘लो बेटा! बाज़ार से जो चाहे खरीद लेना।’
‘पर माँ! मुझे खरीदना तो कुछ आता नहीं,’ प्रमोद बोला।
‘तो फिर अच्छा! ऐसा करो। उसे ये रुपए ही उपहार में दे देना और सुन! उससे क्षमा मांग लेना कि याद न रहने की वज़ह से ऐसा करना पड़ रहा है,’ कुछ सोचते हुए माँ ने कहा।
‘अच्छा, माँ!’ कहता हुआ प्रमोद हाथ-मुंह धोने के लिए बाथरूम की तरफ बढ़ गया। तैयार होकर निकलते समय वह धीरे-धीरे गुनगुनाता जा रहा था। इस वक्त वह इतनी प्रसन्नता का अनुभव कर रहा था कि उसका मन पंख लगाकर उड़ने का हो रहा था। उसी खुशी में उसकी चाल तेज होती जा रही थी। शाम हो चली थी। दूर-दूर जलती हुई स्ट्रीट लाइट अंधेरे को दूर करने में पूरी तरह सफल नहीं हो पा रही थी। सामने ही सड़क का मोड़ था, जिसे क्रॉस करके पिक्चर हॉल की ओर सड़क जाती थी। प्रमोद पूरी गति से सड़क पार करने लगा।
अचानक ही सामने से आती कार के ब्रेक जोर से चीखे और उसके साथ ही प्रमोद की चीख हवा में फैलती चली गई। प्रमोद को जब होश आया वह गुदगुदे बिस्तर पर पड़ा हुआ था। उसने कराहते हुए धीरे से आंखें खोली। आंख खुलते ही उसने देखा कि किसी का चेहरा उसके ऊपर झुका हुआ है। एक क्षण के धुंधलके के बाद उसने पहचान लिया कि वह माँ का चेहरा है।
‘माँऽ....!’ उसके होठों से बड़ी धीमी आवाज निकली। ‘हां बेटे!’ माँ ने प्यार से उसके गाल को थपथपाते हुए कहा।
‘मैं कहां हूं, माँ?’
‘तुम अस्पताल में हो, बेटे!’
अस्पताल का नाम सुनते ही उसे पूरी घटना याद आती चली गई। उसका माँ से बहाना बनाकर सिनेमा देखने जाना, कार एक्सीडेंट और अब अस्पताल के बेड पर पड़ा वह तथा सामने बैठे पापा और मम्मी। उसने हाथ लगा कर देखा। सिर पर चारों तरफ पट्टियां बंधी थी।
‘माँ! मुझे यहां किसने पहुंचाया था?’ उसने धीरे से पूछा। तुम्हें कार वाले सज्जन ने पहुंचाया था और तुम्हारी जेब से निकले आईडेंटिटी कार्ड की वजह से हमें सूचना भी उन्होंने ही दी थी, पर तुम यह बताओ कि जा कहाँ रहे थे? वह रास्ता अनिल के घर की तरफ तो जाता नहीं,’ माँ ने प्यार भरे स्वर में पूछा।
‘माँ!’ इतना कहकर प्रमोद दोनों हाथों में चेहरा छुपा कर रोने लगा। उसकी माँ उसे चुप कराने को हुई तो पिता ने इशारे से उन्हें मना कर दिया। प्रमोद देर तक हिचकियां लेकर रोता रहा। आख़िर उसकी माँ से नहीं रहा गया। उन्होंने उसे बड़ी मुश्किल से चुप कराया।
‘अच्छा, बेटे! हम तुमसे कुछ नहीं पूछेंगे पर तुम रोओ मत। इससे तुम्हारी परेशानी और बढ़ जाएगी,’ मां ने उसे प्यार से समझाया।
‘नहीं, माँ! मैं तुम्हें सब कुछ बता दूंगा। माँ! मैं अपनी ग़लती की क्षमा मांग लूंगा तुमसे। मैंने बहुत बड़ी गलती की है,’ वह अस्फुट स्वर में अपनी बात कहने लगा।
बात पूरी होते-होते वह सिसकने लगा।
‘मेरा अच्छा बेटा!’ उसका माथा चूमते हुए माँ ने कहा, ‘मुझे तुझ पर गर्व है कि तूने अपनी गलती स्वीकार की है। पता तो मुझे तभी चल गया था, जब तुम्हारा मित्र अनिल तुम्हारा हाल पूछने आया था। जो अपनी ग़लती स्वीकार करते हैं, वे बुरे दिल के नहीं होते, बेटे!’
‘माँ! तुमने मुझे क्षमा कर दिया न!’, प्रमोद ने माँ से लिपटते हुए कहा।
‘हां बेटे! अब तुम जल्दी ही अच्छे हो जाओ। हम तुम्हें पिक्चर दिखाएंगे,’ कहते हुए माँ ने उसे सीने से लगा लिया।
प्रमोद ने भी भविष्य में अपने माँ-पापा से कभी झूठ न बोलने की प्रतिज्ञा की।
सुविचार - अमीरी में सुख नहीं और ग़रीबी में दुःख नहीं। वास्तव में संतोषी प्राणी ही सदा सुखी रहता है। जो अमीरी-ग़रीबी से मुक्त हैं, वे ही संत कहलाते हैं।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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