कहीं देर न हो जाए
कहीं देर न हो जाए
माधुरी अपनी उम्र के 27 वर्ष पूर्ण कर चुकी थी। जैसी उम्र पाई थी वैसी ही उसने काया पाई। बस! पाए न थे तो बड़ा दहेज देने योग्य धनी मां-बाप। बूढ़े पालक 24 घंटे उसके भविष्य के लिए चिंतित रहते थे। उसका ब्याह जो करना था। बीसियों लड़के माधुरी को पसंद कर चुके थे पर जब दहेज का मामला आता तो बात टाल कर चले जाते। मां-बाप एक दूसरे को ढांढस बंधाते। कहते कि कोई बात नहीं, अभी निमित्त नहीं आया है। माधुरी की अनुपस्थिति में उसकी तकदीर को और अपनी ग़रीबी को कोसते-कोसते 1 वर्ष और हाथ से निकल गया।
अब तो माधुरी के पिता नारायणदास एक और जहां चिंता से घुलने लगे, वहीं दूसरी ओर शर्म से गडे़-गड़े भी रहने लगे। आख़िरकार वे दहेज के लिए धन कहां से लाएं? खिन्न होकर सोचते - बड़ा व्यापारी होता तो ब्लैक की कमाई काम आ जाती, अफ़सर होता तो घूस की कमाई से दहेज इकट्ठा कर लेता, नेता होता तो कुर्सी का असर काम बना देता। वह था साधारण आदमी और उसके पास ही असाधारण अभावों से भरी ज़िंदगी।
रोज़-रोज़ की झेंप और माधुरी का मौन उन्हें खाए जा रहा था। बेटी की मां शांति बाई ने एक दिन धीरे से नई चर्चा की - ‘माधुरी की नौकरी ही लगवा दी जाए।’ माधुरी घर के सारे काम अपने सिर पर लिए थी। मां को ज़रा भी आंच न आने देती थी। पिता की पूरी-पूरी चिंता रखती थी। छोटे भाई-बहनों की देख़भाल भी करती थी। जब घर में ग़रीबी की बात चलती तो माधुरी सारे घर को समझाती फिरती और फिर ख़ुद रात में बिस्तर पर घंटों आंसू बहाती पड़ी रहती।
एक दिन नारायण दास जी जब घर लौटे तो माधुरी और शांतिबाई ने देखा कि उनके हाथ में मिठाई के दौने हैं। शांतिबाई के हृदय में ख़ुशी का संचार हुआ। किलक कर पूछ बैठी - कहीं माधुरी का रिश्ता पक्का कर आए हो क्या? नारायणदास थोड़ी देर के लिए सन्न रह गए, फिर संभल कर बोले - नहीं, नहीं, उसे नौकरी मिल गई है। पास की ही पाठशाला में बच्चों को पढ़ाएगी। यह सुनकर माधुरी की चीख़ निकलते-निकलते रह गई। वह सिर लटकाकर घर में घुस गई।
शांतिबाई ने गिरते मन को उठाते हुए कहा - ‘चलो! यह भी ठीक रहा। जब तक शादी नहीं होती, नौकरी का बहाना रहेगा और दो पैसे घर में ज्यादा आते रहेंगे।’ नारायणदास अपनी असमर्थता का सामना नहीं कर सकते थे। फलतः वे मौन होकर बैठ गए।
बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते माधुरी को एक साल हो गया था। अब वह पहले से ज्यादा बातें कर लेती थी। नारायणदास जी के पास माधुरी के हाथ से प्राप्त 12000 रुपए बैंक में जमा थे। कुछ उनके श्रम से अर्जित राशि भी थी। वे अब उसके रिश्ते के लिए और अधिक घूमते-फिरते रहते थे। सोचते अच्छा-सा लड़का ही देखना है। बाकी सुविधाएं तो जुट गई हैं।
माधुरी को ध्यानचंद जी बहुत अच्छे लगते थे। वह 30 वर्षीय युवक उसी पाठशाला में शिक्षक था, लजीला और संवेदनशील। बात करता था तो जैसे शब्द महंगे मिलते हों। एक-दो शब्द बोल कर काम चला लेता था। माधुरी कभी-कभी सोचती कि काश! मुझे ऐसा ही पति मिले। फिर चुप रह जाती। ध्यानचंद भी माधुरी से बहुत प्रभावित था। उससे भी वे सम्मुख हो बातें नहीं कर पाते थे, परंतु बहुधा दीवार की आड़ से बच्चों के साथ होती उसकी मीठी-मीठी बातें सुनते रहते थे।
मीठी बातों के पार्श्व में किसी ने यह न देखा था कि उसके हृदय के किसी कुंड में कैद, किसी कुंठा के कारण माधुरी भीतर ही भीतर क्षत-विक्षत है, लस्त-पस्त है। समाज में पनपी बुराइयों में सर्वाधिक कटु व तिक्त अनुभव कोई था, तो वह था दहेज का दानव। उसके मन की डायरी में तो ढेरों प्रश्न थे और वे थे दहेज की आवश्यकता पर। सच में दहेज का कोई अदृश्य दानव रोज एक लंबी कील ठोक देता माधुरी के मानस-पटल पर और वह रोज़ तड़प कर रह जाती।
माधुरी को ध्यानचंद के रूप में अब तक एक ही युवक ऐसा दिखा था, जिसके हाथ में कील ठोकने वाला कोई हथौड़ा नहीं था। वह यह हथौड़ा कब उठा लेगा - माधुरी को इसकी भी कल्पना नहीं थी, पर वह कहे कैसे अपनी बातें उससे। समाज के नकाब से भयग्रस्त माधुरी नकाब के पीछे छिपे चेहरों से भी डरी-सहमी रहती थी। अतः वह अपने चिर पुरातन प्रस्ताव को समय की संसद तक न पहुंचा सकी।
ध्यानचंद भी ध्यान के कच्चे थे। उनका ध्यान माधुरी के रूप लावण्य और सदाचार पर तो था, पर वहां न था जहां होना चाहिए। वह बच्चों के सुधार पर तो ध्यान देते थे पर समाज की रस्मों के विकृत चित्र सुधारने पर कभी नहीं सोचते। उन जैसे पढ़े-लिखे भद्र युवक ही दहेज के कलंक को धोने का साहस कर सकते हैं, इसका उन्हें उस समय तक भान ही न था।
माधुरी को एक ही पीड़ा थी - ‘समाज की थकी हुई पीढ़ी से प्राप्त मिसालें नई पीढ़ी के साथ मिलकर दहेज की लंका कब जलाएंगी? युवा ध्यानचंदों का ध्यान दहेज से हटकर नारी के माधुर्य पर कब जाएगा।’
सोते-जागते उहापोह का बवंडर माधुरी के मन-आकाश में कभी शांत न होता। तेज आँच में हृदय का हीरा सारी रात तपता ही रहता। काश! इस आँच का आभास युवतियों की तरह युवकों को भी हो सके तो सारे समाज में क्रांति ही आ जाए।
वह कई दिनों से पाठशाला नहीं आ रही थी। ध्यानचंद ने पता लगाया तो जाना कि वह पास के अस्पताल में भर्ती है। मोतीझारा निकला है। वे उस दिन बच्चों को ठीक से न पढ़ा सके। पाठशाला से छूटते ही अस्पताल जा पहुंचे। माधुरी एक पलंग पर अस्त-व्यस्त लेटी थी। शरीर कमज़ोर हो गया था। मुंह में कई दिनों से एक दाना जो नहीं गया था। ध्यानचंद पास बैठते हुए बोले - कैसी तबीयत है?
माधुरी ने मुस्कुरा कर उत्तर देना चाहा पर ढंग से मुस्कुरा ना सकी। ध्यानचंद देर तक चिंतातुर अवस्था में बैठे रहे और कुछ नहीं बोले। ध्यानचंद अब रोज हस्पताल में ऐसे ही देखने-भालने आते रहते। माधुरी उन्हें देखकर रोज़ मन ही मन प्रसन्न हो लेती।
एक दिन ध्यानचंद को पता चला कि माधुरी की तबीयत ज़्यादा ख़राब है। वे तत्काल अवकाश लेकर अस्पताल की ओर भागे। हड़बड़ाते हुए से माधुरी के पलंग तक पहुंचे। माधुरी उन्हें देखकर धीरे से हंसी और बैठने का संकेत किया। ध्यानचंद आज माधुरी के बहुत पास बैठ गए। माधुरी ने अपनी कलाई ध्यानचंद की ओर बढ़ाते हुए कहा - ‘देखो! आज कितना बुख़ार है!’ ध्यानचंद उसकी नाड़ी टटोलने लगे। एक बेहद गर्म एवं पिलपिली कलाई पकडे़-पकड़े वे सोचने लगे - ‘माधुरी जल्दी से अच्छी हो जाए, प्रभु! तो मैं यह कलाई सदा के लिए पकड़ लूंगा।’
माधुरी आंखें मूंदे सोच रही थी कि तूने यह कलाई पहले पकड़ ली होती तो....। कमरे में मौन फैला हुआ था। माधुरी का शरीर ठंडा पड़ने लगा था। स्याह पड़ते अधरों से कुछ शब्द झरने लगे। ध्यानचंद तल्लीनता से सुनने लगे। माधुरी अस्पष्ट शब्दों में बुदबुदाई - ‘पसंद करने में काफ़ी देर कर दी। अब तो मैं चली....। मुझे पसंद करते हो तो किसी गरीब की बेटी को, दहेज लिए बिना, समय पर अपना लेना....।’ माधुरी ने सांस तोड़ दी थी। समाज के दिलो-दिमाग़ पर कब्जा जमाने वाला दहेज का दानव उसे असमय ही निगल गया था।
सुविचार - धन का मोह जड़ है और आप चेतन। यह मोह आपको प्रभावित नहीं करता, अपितु आप स्वयं मोह से प्रभावित होते हो।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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