सेवा का मेवा

सेवा का मेवा

राजदरबार में एक सेवक का पद रिक्त था। साक्षात्कार हेतु पहुंचने वाले अभ्यर्थियों की कतार बहुत लंबी थी। प्रतीक्षा करते-करते बहुत समय बीत गया था लेकिन साक्षात्कार अभी आरंभ ही नहीं हुआ था। गर्मी और तेज़ धूप के कारण सभी अभ्यर्थी अत्यंत उद्विग्न और व्यग्र हो रहे थे। केवल एक युवक ऐसा था जो हाथ में जल का कलश लिए सभी को शीतल जल पिला रहा था। वह कभी किसी का पसीना पोंछता, कभी किसी को पंखा झलता।

आख़िर जब दोपहर भी ढलने लगी तो अभ्यर्थियों के सब्र का बांध अब टूटने लगा। आक्रोश और आवेश भरे स्वर में वे चिल्लाने लगे - जब साक्षात्कार ही नहीं लेना था तो हमें यहां बुला कर क्यों परेशान किया गया है? किसी का चयन ही नहीं करना था तो हमारा समय क्यों बर्बाद किया गया?

सहसा सिंहद्वार के पट खुले। मुख पर सहज मुस्कान लिए महाराज स्वयं उपस्थित थे। वे बोले - साक्षात्कार तो हो चुका और चयन भी।

यह कह कर एक हाथ में जल का कलश और दूसरे हाथ में पंखा लिए हुए युवक का कंधा थाम कर वे उसे भीतर ले गए।

सुविचार - जिस आत्मा में सम्यग्दर्शन का प्रख़र प्रकाश आविर्भूत हो जाता है, वह आत्मा मोक्ष की उपलब्धि अवश्य करती है।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

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