आशीर्वाद और निर्लिप्तता

आशीर्वाद और निर्लिप्तता

महाभारत के युद्ध को धर्म-युद्ध की संज्ञा दी जाती है। जब एक-एक कर के अधिकांश कौरव खेत रहे और युद्ध उत्तरार्ध की ओर तेज़ गति से बढ़ने लगा, तो दुर्योधन व दुःशासन हताश होकर निराशा से भरे अपनी माता गांधारी की सेवा में उपस्थित हुए। चरण छूने की औपचारिकता के बाद दुर्योधन ने करुण स्वर में माता गांधारी से युद्ध में जीतने के लिए आशीर्वाद मांगा। पर नियति देखिए कि माता गांधारी ने ऐसा आशीर्वाद देने में असमर्थता जताई। गांधारी ने तद्विषयक आशीर्वाद देने से स्पष्ट मना कर दिया।

कुछ ही समय बीता होगा कि पाँचों पांडव भी दर्शन-मिलन के लिए गांधारी के पास पहुंचे। जब पांडव लौटने लगे तो माता गांधारी से ममतावश नहीं रहा गया और उसने निश्छलता से युधिष्ठिर से पूछ ही लिया - ‘बेटे! विजय श्री का आशीर्वाद नहीं मांगोगे?

युधिष्ठिर बोले - ‘नहीं, माता श्री!’

गांधारी ने फिर पूछा - ‘क्यों, पुत्र?

युधिष्ठिर का उत्तर था - ‘विजय श्री का आशीर्वाद माँग कर मैं आपको धर्म-संकट में नहीं डालना चाहता।’

आज दैनंदिन जीवन में यदि हर नागरिक युधिष्ठिर के इस दृष्टिकोण को व्यवहार में स्वीकार कर ले, तो अधिकांश समस्याएं स्वतः ही समाप्त हो जाएंगी। हमारी मांग या निवेदन उचित है या नहीं, इसका विचार करते समय यह भी देखना चाहिए कि देने वाला, हमारी समस्या को हल करने वाला किसी कठिनाई में तो नहीं फंस जाएगा? हमारी मांगें उसके लिए कोई असुविधा तो उत्पन्न नहीं करेंगी?

सामने वाले को असमंजस में डाल कर हम अपना विश्वास खो बैठेंगे। वह किसी कार्य को ‘न’ कर नहीं सकता और ‘हाँ’ करने में हानि की संभावना हो सकती है। उसे दुविधा में डाल कर हम सुविधा प्राप्त करना चाहें, यह उचित नहीं है। कहते हैं कि अपनी योग्यता और दूसरे की हैसियत देख कर ही उससे कुछ पाने की इच्छा करनी चाहिए। अन्यथा अगली बार जब भी हम उससे मिलने जाते हैं, तो उसके मन में सबसे पहले यही ख़्याल आता है कि न जाने, इस बार वह क्या माँग बैठे? ऐसे तो हमें अपना सम्बन्ध भी दाँव पर लगता दिखाई देता है।

अतः मांगो वही, जिसके तुम योग्य हो और दो तो अपनी हैसियत से अधिक न दो, ताकि तुम्हें बाद में पछताना न पड़े।

सुविचार - रागी वीतरागता में भी राग का अनुभव करता है और वीतरागी राग में भी वीतरागता का अनुभव करता है। वीतरागता ही आत्मा के लिए हितकारी है।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

Comments

Popular posts from this blog

बालक और राजा का धैर्य

चौबोली रानी (भाग - 24)

सती नर्मदा सुंदरी की कहानी (भाग - 2)

सती कुसुम श्री (भाग - 11)

हम अपने बारे में दूसरे व्यक्ति की नैगेटिव सोच को पोजिटिव सोच में कैसे बदल सकते हैं?

मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 18 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश

जैन धर्म के 24 तीर्थंकर व उनके चिह्न

बारह भावना (1 - अथिर भावना)

रानी पद्मावती की कहानी (भाग - 4)

चौबोली रानी (भाग - 28)