बाल संस्कारों का प्रभाव

बाल संस्कारों का प्रभाव

जिनसेन बाल्यकाल से ही बड़ा प्रतिभाशाली होनहार बालक था, क्योंकि उसकी माता ने जन्म से उसमें आध्यात्म के संस्कार कूट-कूट कर भर दिए थे। लोरिया भी आध्यात्मिक ही गाकर माँ बच्चे को सुलाती थी।

शुद्ध बुद्ध तू नित्य निरंजन, जग की माया से अविकार।

तू जिनेंद्र सा सैनिक बनकर, शीघ्र करे कर्मा का क्षार।।

एक दिन बालक जिनसेन ने कहा - माँ! मुझे गीत बहुत अच्छे लगते हैं। क्या मैं पड़ोस में हो रहे गीतों को सुन आऊँ?

माँ ने कहा - बेटा! चला जा। सुन आ, किंतु जल्दी लौट कर आ जाना। जिनसेन बहुत देर तक गीत सुनता रहा, किंतु थोड़ी देर के पश्चात् उसे वे गीत अब अच्छे नहीं लग रहे थे। तब वह दौड़कर घर आया और माँ से पूछने लगा - माँ! अब वे गीत अच्छे क्यों नहीं लग रहे हैं? क्या यह गाने वाले कोई दूसरे हैं?

माँ ने समझाया - बेटा! गाने वाले तो वही हैं किंतु अब परिस्थिति बदल गई है। जिस बच्चे का जन्म हुआ था, वह अभी-अभी मर गया है। इससे वे गीत रोने में बदल गए हैं।

यह सुनकर जिनसेन को अच्छा नहीं लगा। वह सन्न रह गया। वह घबराते हुए बोला - माँ! लोग मरते क्यों हैं?

माँ ने समझाया - आयु पूर्ण हो जाने पर लोग मर जाते हैं।

जिनसेन बोला - माँ! क्या एक दिन मैं भी मर जाऊंगा?

माँ बोली - बेटा! ऐसी बातें नहीं करते। तुझे क्या एक दिन मुझे भी मरना होगा।

अब जिनसेन कुछ सोच कर बोला - तो इससे बचने का कोई उपाय भी है?

माँ ने उत्तर दिया - इसका उपाय तो है, बेटा! किंतु यह मार्ग मूर्खों को कंटकाकीर्ण लगता है। तत्व ज्ञानी को सरल और सुगम लगता है। जो आत्मा की साधना करके रत्नत्रय को पूर्ण प्राप्त कर लेते हैं, वही जन्म-मरण के चक्कर से छूटकर पूर्ण शांति, सुख प्राप्त कर अनंत काल तक निराकुल रहते हैं। यह पूर्ण साधना साधु जन ही कर सकते हैं। वह बच्चों का खेल नहीं है, बेटा!

तो माँ! वे साधु जन कहाँ मिलेंगे?

माँ बोली - वे तो जंगल में रहते हैं।

उसी समय 8 वर्ष का जिनसेन माँ से पूछ कर ऐसे साधु को खोजने के लिए वनप्रांत में अकेला चल पड़ा। 3 वर्ष तक आत्मसाधना का अभ्यास करके 11 वर्ष की आयु में दीक्षा लेकर दिगंबर साधु बन गया। आचार्य जिनसेन को आगर्भ दिगम्बर कहा जाता है, जिन्होंने जीवन भर वस्त्र पहने ही नहीं। आचार्य जिनसेन ने आचार्य समंतभद्र की तरह धर्म की अपूर्व प्रभावना की थी। जो लोग उस समय अपने को जैन बताने में सकुचाते थे, वही अब जैन धर्म की जय-जयकार से आकाश को गुंजायमान करने लगे थे।

यह सब बाल संस्कारों का प्रभाव था। संस्कारों के बिना ही बालक धर्म से विमुख हो जाते हैं। अतः बालकों को सभ्य, सुशील, सज्जन और आज्ञाकारी बनाना है, तो बच्चों में स्थानीय पाठशाला द्वारा धार्मिक संस्कार अवश्य भरिए।

सुविचार - सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से ही सच्चा सुख सम्भव है। उससे ही मोक्ष की प्राप्ति होगी।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

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