भाग्य के चमत्कार

भाग्य के चमत्कार

प्राचीन भारत में हेमांगद नाम का देश था। उसके नागरिक स्वर्ण के भुजबंद पहनते थे। किसी घर में सोने की कमी नहीं थी, इसलिए उसे हेमांगद देश कहा जाता था। इसी देश में राजपुर नाम का नगर था। यह ऐसे राजा का नगर था, जहाँ राज्य को सभी नागरिक मिलजुल कर चलाते थे।

भाग्य से इस राजपुर के मन मोहने वाले मनोहर नाम के बगीचे में विशेष बुद्धि, प्रज्ञा और प्रतिभा के धनी, शास्त्रों के ज्ञाता तथा प्राणी के पूर्व जन्मों के ज्ञाता निमित्त मुनिराज शीलगुप्त विहार करते हुए पधारे।

नगर में मुनिराज के शील, चरित्र और विद्वत्ता की चर्चा चारों ओर होने लगी। नागरिक विशेष रूप से पवित्र आहार तैयार करने लगे और मुनिराज को आहार दान करके पुण्य कमाने लगे। उनके प्रवचन या उपदेश सुखी सांसारिक जीवन एवं सम्पन्न-समृद्ध जन्मांतर के जीवन के लिए कल्पवृक्ष बन गए। राजपुर नगर धर्मपुर नगर बन गया। पूर्व संचित पुण्यों के उदय से पुण्य नगर हो गया। सब के दिन धर्म आराधना में बीतने लगे।

राजपुर नगर का एकमात्र प्रसिद्ध श्रेष्ठी गंधोत्कट व्यापार के लिए देश-विदेश के चक्कर लगाने के बाद अटूट धन कमा कर लौटा ही था कि उसे समाचार मिला - ‘राजपुर में अपूर्व शीलवान, चरित्रवान और विद्वान मुनिराज शीलगुप्त आए हैं।’

सेठ गंधोत्कट के मन में उथल-पुथल मच गई। वह सोचने लगा - ‘मैं सौभाग्यशाली हूँ कि वर्षों बाद मुझे मुनिराज के दर्शन होंगे। धन्य हैं मुनिराज जो नाम मात्र का परिग्रह भी नहीं रखते हुए शीत, वर्षा और गर्मी की पीड़ा को सहते हैं। दिन में एक बार विधि-पूर्वक शुद्ध आहार और पानी हाथों की अंजुलि में लेते हैं।’

उसकी श्रद्धा जाग गई। ज्ञान का प्रकाश उसके मन के अंधकार को सूर्य के प्रकाश के समान काटने लगा। वह मन ही मन अपना भाग्य सराहने लगा। सेठ गंधोत्कट के मन में धर्म का बहुमान जागा। उसने ग्राम-ग्राम, नगर-नगर में घोषणा की कि ‘मैं गुरुवार को महाराज के दर्शन करने और प्रवचन सुनने के लिए प्रातः 7.30 बजे जुलूस के साथ जाऊंगा। सारी जनता का स्वागत है। मैं सब को आमंत्रण देता हूँ। जो मेरे साथ जयनाद करते हुए जाएंगे, वे धर्मामृत के पान के साथ छक-छक पर मिष्ठान्न भोज का आनंद भी पाएंगे।’

नगर सेठ की घोषणा का सबने स्वागत किया। ऐसे समय अभागों के भाग जगे और मुँह में पानी आ जाए तो क्या आश्चर्य है? घोषणा के अनुसार गुरुवार को प्रातः 7.30 बजे सेठ गंधोत्कट का जुलूस सज-धज कर जय घोष करता हुआ मुनिराज की धर्म सभा की ओर चल पड़ा। मुनिराज की धर्म सभा के पास पहुंचते ही ‘नमोस्तु’ कहकर साष्टांग प्रणाम कर, धरती को छू कर, माथा टेक कर सब शांत बैठ गए। मुनिराज के जय घोष और मंगलाचरण के बाद सब ने शांतिपूर्वक एकाग्रता से प्रवचन सुने।

उन्होंने कहा - ‘संसार में कषायों का साम्राज्य है। इसमें मिथ्या विश्वास और मिथ्या आचरण की दुर्गंध आती है। संसार में असत्य का बोलबाला है। मोह माया का जाल फैला हुआ है। सबको सत्य खोजना है। सबको वीतरागता का महत्व जानना है। सबको वीतरागी बनकर जीना है। सब परस्पर प्रेम, मित्रता और भाईचारे के साथ एक-दूसरे के हित के कार्य कर के सब के जीवन को सुखी बना सकते हैं।’

मुनिराज के प्रवचन का प्रत्येक शब्द जनता के कानों में गूंज रहा था। मुनिराज के दर्शन करके नगर सेठ ने उपस्थित श्रोताओं को मिष्ठान भोज कराया। मुनिराज की वाणी और नगर सेठ का यश धरती और आकाश को छू गया। नगर सेठ ने एकांत में मुनिराज से पूछा - ‘पाप कर्म के उदय से मेरे बहुत से अल्पायु पुत्र हुए हैं। क्या कभी दीर्घायु पुत्र भी होंगे?

मुनिराज ने ध्यान लगाकर विशेष ज्ञान से नगर सेठ के पूर्व भव को जाना और कहा - सेठ! करनी का फल सबको भोगना पड़ता है। तू पूर्व में अनछना पानी पीता था। रात्रि भोजन करता था। मांस-मदिरा, शहद और अंडों का सेवन करता था। जीवन में एक बार मुनिराज के आहार दान को सराहा तथा पत्नी सहित आहार दान दे कर धर्म के मार्ग पर चलने लगा। इसलिए पूर्व जन्म के पुण्य से नगर सेठ बन गया। संसार का सुख, पुण्य का फल है और संसार का दुख, पाप का परिणाम है। धन कमाने की तरह संसार में जो चाहो कमाओ, भोगना तो सबको ही है। तुम जब इस बार तीर्थ यात्रा पर जाओगे, तब तुम्हें वहां एक भाग्यशाली पुण्यात्मा नवजात शिशु मिलेगा। उसे पुत्रवत् पालना। वह तुम्हारे वंश की कीर्ति बढ़ाने वाला सच्चा पुत्र होगा।

जैसा मुनिराज ने कहा था वैसा ही हुआ और सेठ को पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र को सारा व्यापार का ज्ञान देकर सेठ ने धर्मकार्य में अपना शेष जीवन लगा दिया।

सुविचार - इस लोक में मनुष्य से अधिक नारकी, नारकियों से अधिक देव, देवों से अधिक तिर्यंच और तिर्यंचों से अधिक निगोदिया जीव हैं। सबके प्रति दया का भाव रखना ही पुण्य में वृद्धि करता है।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

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