पंडित

पंडित

एक गांव में दीनू नाम का पंडित रहता था। गांव का अकेला पंडित होने से वह गांव वालों के लिए किसी महापंडित से कम नहीं था। सभी उसे पंडित के नाम से ही जानते थे। आसपास के गांवों में भी उसकी धाक थी। यद्यपि कभी-कभी वह पंडिताई करते-करते हठात् अहम् भाव से ‘मेरा नाम दीनू पंडित है’ - ऐसा कह भी देता था, तथापि सभी लोग उसे पंडित कहकर ही बुलाते थे एवं उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा भी करते थे।

एक दिन वह हमेशा की तरह शाम को घर पहुंचा। उस दिन वह बहुत ही प्रसन्न था। 3 दिनों से जिस पंडित को खिचड़ी पर गुजारा करना पड़ रहा था, उस दिन उसकी मुट्ठी में 100 रुपए का नोट था। तभी पंडित ने ध्यान दिया कि उसका लड़का ज़ोर-ज़ोर से सबक याद कर रहा है - जिसका पैर न डिगे, जो सबको तारे, भवसागर से पार कर दे, उसे पंडित कहते हैं।

अचानक पंडित की स्वप्निल मधुर निद्रा भंग हो गई। वह सोचने लगा - आज उसके लड़के ने उसे पंडित का सही अर्थ बता दिया। वह अन्तर्द्वन्द्व की पीड़ा भोगने लगा। बाहर 100 रुपए का लोभ और अंदर सही अर्थों में पंडित न बनने का शोक। अब तक उसका पुत्र सो चुका था। दीपक की लौ भभकने लगी थी।

स्थिरमति से उसने दीपक में तेल डाला। दीपक पुनः स्थिरता से जलने लगा। वह एक टक दीपक की ओर ध्यान-पूर्वक देखने लगा और देर तक उसे देखता ही रहा। अचानक उसके अंदर के ज्ञान चक्षु खुल गए। उसके अंदर का ज्ञान जाग उठा और लोलुप पंडित भाग गया। अंधेरी रात में ही दीनू पंडित रामू काका को रुपया लौटाने चल पड़ा, जिसका बैग उसे रास्ते में पड़ा मिला था।

वास्तव में माया सबके मन को भ्रम में डाल देती है। सच्चा पंडित वही है, जो इसके मायाजाल में नहीं फंसता। यह तो ऐसा दलदल है कि जिसमें एक बार पाँव फंस जाए, तो व्यक्ति अच्छे-बुरे की, लाभ-हानि की समझ भूल कर लालच में फंसता ही चला जाता है।

सुविचार - तप ही कर्म की निर्जरा का कारण है।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

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