स्वार्थी

स्वार्थी

पुराने सिक्कों की तरह शब्दों के अर्थ बदलते रहते हैं। आज अगर कोई महाराज हर्ष के समय का सिक्का लेकर बाजार जाए तो उसे कोई नहीं लेगा। स्वार्थी इसी तरह का एक शब्द है। कभी स्वार्थी (स्व अर्थी) आत्मचिंतन के लिए प्रयोग किया जाता था। आज यह एक प्रकार की गाली बन गया है। जैसे किसी को कहा जाए - स्वार्थी कहीं का, तो वह अपशब्द माना जाता है।

एक बार एक दानी व्यक्ति स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास गया और उन्हें सोने की सौ अशर्फियां भेंट की। स्वामी जी ने कहा - सेठ जी! मैं तो सोना छूता ही नहीं। ये अशर्फियां मेरे काम की नहीं। इन्हें वापस ले जाओ। तुम्हारे काम आएंगी।

सेठ पर स्वामी रामकृष्ण परमहंस का बहुत प्रभाव पड़ा। वह बोला - महाराज, आप तो परम निःस्वार्थी हैं। मैंने आप जैसा स्वामी महात्मा कहीं नहीं देखा।

स्वामी रामकृष्ण ठहाका लगाकर हँसे और बोले - मैं और निःस्वार्थी! अरे सेठ! मैं परम स्वार्थी मनुष्य हूँ। यही कारण है कि मैं सोना नहीं छूता।

स्वामी जी के कहने का आशय यह था कि वह स्व या आत्म की प्राप्ति के लिए, आत्मज्ञान के लिए सांसारिकता से दूर रहते हैं। जो अपनी आत्मा को सोने-चाँदी के लिए, भौतिक सुखों के लिए मार देता है, वह निःस्वार्थी है, जड़ है, मूर्ख है, अनात्मवादी है। उसे अपनी आत्मा की कोई परवाह ही नहीं होती।

भगवान राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, ईसा मसीह, महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध आदि सभी का यही उपदेश है - स्वार्थी बनो अर्थात आत्मज्ञान के लिए सांसारिकता से दूर रहो। गीता का कथन है - सभी धर्मों को त्याग कर केवल एक मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूंगा। इस विषय में शोक मत करो। इसके पीछे यही भाव है कि अपनी आत्मा के कल्याण के लिए हर समय तत्पर रहो।

संत कबीर ने आमजन की भाषा में यही कहा था -

कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुआठी हाथ।

जो घर फूँके आपनो, चले हमारे साथ।।

आज का स्वार्थी व्यक्ति आत्मा की उन्नति करने की बजाय उस शरीर के लिए सुख-साधन उठाने में लगा है, जो नश्वर है। न रहने वाले इस शरीर के लिए ‘ताजमहल’ बनाने को वह बुद्धिमानी समझता है, लेकिन उसे नहीं मालूम कि वह अपने जीवन के कितने पल व्यर्थ कर रहा है।

प्यारे बन्धुओं! स्व अर्थी बनो और अपना कल्याण करो।

सुविचार - सम्यक् ज्ञान रहित शास्त्रों का ज्ञान निष्फल है। संसारी जीवों को जैसी प्रीति अपने स्त्री-पुत्र, धन आदि से होती है, वैसी ही प्रीति धर्मात्माओं के प्रति होना धर्म-वात्सल्य है।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

Comments

Popular posts from this blog

बालक और राजा का धैर्य

चौबोली रानी (भाग - 24)

सती नर्मदा सुंदरी की कहानी (भाग - 2)

सती कुसुम श्री (भाग - 11)

हम अपने बारे में दूसरे व्यक्ति की नैगेटिव सोच को पोजिटिव सोच में कैसे बदल सकते हैं?

मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 18 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश

जैन धर्म के 24 तीर्थंकर व उनके चिह्न

बारह भावना (1 - अथिर भावना)

रानी पद्मावती की कहानी (भाग - 4)

चौबोली रानी (भाग - 28)