कृतघ्नता
कृतघ्नता
एक चोर किसी के घर में प्रविष्ट होकर चोरी करने का प्रयत्न करने लगा। उस समय घर के सब लोग जगे हुए थे। आहट पाकर वे सब चोर को पकड़ने के लिए दौड़ पड़े। प्राण रक्षा हेतु वह घर से भागा, लेकिन लोगों ने पीछा नहीं छोड़ा।
जब चोर ने अपनी रक्षा का कोई उपाय नहीं देखा तो घबराकर सेठ समुद्र दत्त के प्रासाद में घुस गया। उनसे अपनी प्राण रक्षा की प्रार्थना करने लगा। सेठ समुद्र दत्त ने उसके ऊपर द्रवित होकर उसे अपने वस्त्रों में छिपा लिया। इतने में कोटपाल रक्षक सिपाहियों के साथ सेठ जी के निकट आकर चोर के संबंध में पूछने लगा। सेठ ने उसके प्रश्नों का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। कोटपाल ने प्रासाद में ढूंढ कर देखा किंतु चोर का कहीं भी संधान नहीं मिला।
वह तो सेठ के स्थूलकाय उदर के नीचे छिपा हुआ था। सेठ के घर में चोर को न पाकर कोटपाल वापस चला गया। उसके चले जाने पर सेठ ने जोर से कहा - हे बंधु! अब कोई भय नहीं है। तुम निर्भय होकर अपने घर जाओ। सेठ की बात सुनकर उस समय चोर वहाँ से बाहर चला गया, पर जब सब निश्चिंत होकर द्वार बंद करके सो गए, तब वह सेठ के घर में ही गुप्त रूप से लौटकर आ गया।
उसने निर्भयता के साथ सेठ के घर में चोरी की। प्रात:काल होते ही सेठ को ज्ञात हुआ कि वह अपनी प्रचुर सम्पदा से हाथ धो बैठे हैं। वे अपने मन में विचार करने लगे कि होम करते हाथ जल गया। क्या परोपकार करने का यही प्रत्युपकार मिलता है? देखो! दया करके जिस चोर की प्राण रक्षा की, वही उनके साथ इस प्रकार विश्वासघात करके चला गया। उनके मुख से सहसा उक्ति निकल पड़ी -
दुष्ट न छोड़े दुष्टता, कैसा ही सुख देत।
प्राण बचाया चोर का, माल वही हर लेत।।
सुविचार - जैसे सज्जन कष्ट पाने पर भी अपनी सज्जनता को नहीं छोड़ता, वैसे ही दुष्ट, सुख पाने पर भी अपनी दुष्टता को नहीं छोड़ता।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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