रक्षक कौन
रक्षक कौन
कानाफूसी का आलम तेज रफ़्तार से बढ़ता जा रहा था। जो भी सुनता, आश्चर्य से उसका मुँह खुला का खुला रह जाता। स्वाभाविक ही था! राजपुरोहित का यह कौतुक उन्हें सोचने-विचारने की एक नई मंज़िल पर ला खड़ा करता था।
बोधिसत्व वाराणसी के जनप्रिय नरेश ब्रह्मदत्त के राजपुरोहित थे। शास्त्रविद, रूपवान, सदाचारी और दानी पुरोहित के रूप में उनका यश-सौरभ यत्र-तत्र-सर्वत्र अपनी सुगंध बिखेर रहा था। स्वयं राजा ब्रह्मदत्त भी उनके प्रति अटूट श्रद्धा एवं अनन्य निष्ठा रखते थे।
राजपुरोहित एक दिन प्रातः भ्रमण को गए हुए थे - अकेले ही। उनके मस्तिष्क में प्रश्न उभरा - ‘यदि मैं किसी भी संकट में फंस गया, तो मेरी रक्षा कौन करेगा? ज्ञान, विद्वत्ता, शील, रूप या कोई और।’
रास्ते भर वे इसी चिंतन में रहे, लेकिन कोई उत्तर वे प्राप्त नहीं कर पाए, जो उनको संतुष्ट कर सके। तभी एकाएक उनके मन में एक विचार उभरा और हर्षातिरेक में उनके मुख पर प्रसन्नता बिख़र उठी। वे होठों ही होठों में बुदबुदा उठे - ‘इस तरकीब से तो फैसला हो ही जाएगा कि मनुष्य के इन सारे गुणों में से उसका रक्षक कौन है?’
दूसरे दिन रात को सभा से लौटते समय उन्होंने राजकोष से एक कार्षापण उठाकर धोती की कांछ में छिपा लिया। कोषाध्यक्ष ने पुरोहित जी की यह हरकत देखी, पर उसने कुछ कहा नहीं। वह उसी प्रकार काम करता रहा।
पुरोहित जी ने दूसरे दिन दो कार्षापण उठा लिए। जब वे उन्हें कांछ में दबा रहे थे, तभी कोषाध्यक्ष ने उनके कान में आकर कहा - ‘पुरोहित जी! आप और मैं दोनों ही यह बात जानते हैं। जग जाने, ऐसा अवसर आप नहीं आने देंगे, ऐसी उम्मीद है मुझे।’ पर पुरोहित जी पर इसकी कोई भी प्रतिक्रिया नहीं हुई।
तीसरे दिन फिर पंडित जी ने कोष में जाकर मुट्ठी भर कार्षापण उठाए। वे उठाकर चले ही थे कि कोषाध्यक्ष ने उनका हाथ पकड़ लिया और सैनिकों से बोला - अरे! देखते क्या हो इस पुरोहित को? यह धूर्त है, चोर है। इसे रंगे हाथों पकड़ा है आज। जाओ, इसे न्यायपीठ में उपस्थित करो।
देखते ही देखते सारे सभासदों में हलचल मच गई। बात फैलते देर भी क्या लगती? हवा की तरह शहर-भर में फैल गई। वाराणसी के बच्चे-बच्चे के मुँह पर इस घटना की कई तरह की प्रतिक्रिया थी।
सैनिकों ने राजपुरोहित को अपराधी चोर की भांति ही कसकर बांधा और राजमार्गों पर उनका जुलूस निकालकर पैदल ही विद्यापीठ में ले गए। वे राजा के समक्ष उपस्थित किए गए और उन्हें सारी स्थिति बतलाई गई। नरेश की आँखों में क्रोधाग्नि चमक उठी। कुपित नरेश ने चीख कर कहा - अरे! देखते क्या हो? इस नमकहराम चोर को दण्ड दो। ऐसा दंड कि लोग आगे से नमकहरामी भूल जाएँ।
तभी राजपुरोहित बोले - ‘राजन्! मैं चोर नहीं हूँ। लीजिए आपकी ये सारी चोरी की वस्तुएँ। वस्तुतः मेरे मस्तिष्क में एक प्रश्न था, एक शंका थी कि आप मेरे किस गुण की पूजा करते हैं? मेरी विद्वत्ता की, मेरे ब्राह्मणत्व की, मेरे रूप-सौंदर्य की अथवा शील-सदाचार की? राजन्! तभी मेरे मस्तिष्क में यह योजना उभरी और मैं इसे क्रियान्वित कर बैठा। यह सही है कि इस योजना से वाराणसी की जनता मेरे नाम पर थू-थू कर रही है, पर मैं अपने मन में उग रही शंका का हल खोज चुका हूँ।’
तभी नरेश ने सैनिकों को पुरोहित को छोड़ देने का आदेश दिया और पूछने लगे - ‘तो पुरोहित जी! आपकी शंका का उत्तर क्या मिला? पुरोहित जी बोले - ‘राजन्! मुझे उत्तर मिल गया। आज स्पष्ट हो गया है कि यदि मैं शील, नैतिकता और सामान्य सदाचार की सीमाएं लांघूगा, तो ज्ञान, विद्वता और रूप कोई भी मेरी रक्षा नहीं कर सकते। अतः स्पष्ट है कि आप और समस्त दुनिया मेरा आदर करती है तो सिर्फ शील के कारण। राजन्! वास्तव में शील ही जगत में सर्वश्रेष्ठ है, जो संसार में आदर व सम्मान दिलाता है।
सुविचार - मिट्टी को मज़बूत बनाने के लिए मिट्टी पर मिट्टी का संस्कार नहीं किया जाता, बल्कि उस पर जल तथा अग्नि के संस्कार डाले जाते हैं; उसी प्रकार जीवन को मज़बूत बनाने के लिए उस पर शील व सदाचार के संस्कार डाले जाते हैं।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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