पापी को नहीं अपितु पाप को मारना चाहिए
पापी को नहीं अपितु पाप को मारना चाहिए
(परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से)
मुनि श्री विशोक सागर जी ने बताया कि भक्तामर स्तोत्र अनोखा स्तोत्र पाठ है। यह स्तोत्र उतना ही कल्याणकारी है जैसे णमोकार मंत्र।
णमोकार मंत्र एक ऐसा मंत्र है जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने समस्त पापों को नष्ट कर सकता है, यहाँ तक कि यह मंत्र समस्त कर्मों का भी क्षय करने वाला है तथा मोक्ष सुख को प्राप्त कराने वाला है। धर्मात्मा पुरुष अन्य धर्मात्मा पुरुष को दुःखी नहीं देख सकता। भक्ति के माध्यम से क्रूर से क्रूर व्यक्ति तो क्या, जानवर भी भगवान की स्तुति करने से शांत हो जाते हैं।
भगवान कहते हैं कि पापी को कभी नहीं मारना चाहिए अपितु उसकी पाप-प्रवृत्ति को मारना चाहिए। राम ने कभी रावण को नहीं मारा था अपितु रावण के अंदर बैठी राक्षस प्रवृत्ति को मारा था। ऐसी ही एक सूक्ति में कहा है - ‘पापी को नहीं पाप को मारना चाहिए।’ पापी की हिंसा नहीं, पाप की हिंसा करनी चाहिए। पापी ख़राब नहीं होता, उसके द्वारा किया गया पापकार्य ख़राब होता है। उस पापकार्य को छोड़ना चाहिए। ऐसा करने से पापों से मुक्ति हो जाएगी।
मुनि श्री ने कहा कि सामान्य आग को बुझाना सरल होता है लेकिन जंगल में लगी आग को बुझाना आसान नहीं है; क्योंकि जब पानी बरसेगा, तभी वह दावानल बुझेगी अथवा जब उसका ईंधन समाप्त हो जाता है, तब वह बुझती है। यदि कहीं आग लगी हो और हवा चल रही हो तो वह हवा पेट्रोल का काम करती है क्योंकि धधकती हुई जमीन हो और ऊँची-ऊँची फुलिंगे निकल रही हों, मानो समस्त संसार को भस्म करने की इच्छुक हों, ऐसी सामने आती हुई दावाग्नि को आपका नामोच्चारण रूपी जल पूर्ण रूप से शांत कर देता है।
मुनि श्री कहते हैं कि शिवकोटि महाराज ने भगवती आराधना में कहा है कि कभी कोई उपसर्ग आने पर या विपत्ति आने पर या रोग ग्रस्त हो जाने पर हमें धर्मात्मा पुरुषों का चिंतन करना चाहिए कि धीर पुरुषों को भी मरना पड़ता है, अधीर पुरुषों को भी मरना पड़ता है। जब दोनों ही व्यक्तियों को मरना पड़ता है तो हमें अवश्य ही वीरता से मरना चाहिए।
ऐसा ही आचार्य कुंदकुंद भगवान ने मूलाचार में कहा है कि वीर पुरुष को भी मरना है और कपटी पुरुष को भी मरना है। जब दोनों को ही मरना पड़ता है तो क्यों न हम वीरता से अपने प्राणों का विसर्जन करें?
बाहर की अग्नि सीमित स्थान को जलाती है, लेकिन अंदर की क्रोधाग्नि दूसरों को भी जलाती है और स्वयं को भी जलाती है। क्रोधाग्नि अपने स्वयं के अंदर के गुणों को जलाती है, कामाग्नि भी जब प्रज्वलित होती है तो वह मनुष्य के सभी गुणों को नष्ट कर देती है एवं सत्य को नष्ट कर देती है तथा अन्य सभी गुणों को भी समाप्त कर देती है।
आचार्य भगवन् कहते हैं कि भगवान की आराधना के सामने काले-काले सर्प की फुंकार भी प्रभावकारी नहीं होती। नागमणि एक ऐसी मणि होती है जो सर्प के डंक को भी दूर करने में समर्थ होती है। उसी प्रकार गुरु-मणि ऐसी मणि होती है जो काले से काले कर्म का विष दूर कर देती है। बाहर की मणि को छीना जा सकता है, चुराया जा सकता है लेकिन भगवान नाम की स्तुति रूपी मणि से लाल-लाल आँखों वाला सर्प क्रोध से फण उठा ले और उस समय भक्त में समभाव आ जाए तो वह व्यक्ति निर्भीक होकर नाग को रस्सी समझ कर लांघ कर चला जाता है। इसलिए हम लोगों को भगवान की निःस्वार्थ भाव से, श्रद्धा से, भक्ति से आराधना करनी चाहिए जिससे हमारा जीवन पावन बन सके।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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