मुकुट सप्तमी पर्व
मुकुट सप्तमी पर्व
(परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से)
क्षमा में सुख है क्रोध में दुःख। क्षमा में शांति है, क्रोध में अशांति।
क्षमा में सहिष्णुता है, क्रोध में असहिष्णुता। क्षमा में प्रेम है, क्रोध में घृणा।
क्षमा में शीतलता है, क्रोध में लाभ। क्षमा में विवेक है, क्रोध में अविवेक।
क्षमा में हर्ष है, क्रोध में विषाद। क्षमा में धर्म है, क्रोध में अधर्म।
आज का दिन धर्म के रसिक धर्म पिपासुओं के लिए मंगलकारी दिन है। आज के पावन दिन ही भगवान पार्श्वनाथ स्वामी ने मुक्ति को प्राप्त किया था, निर्वाण की यात्रा संपन्न की थी। भगवान पारसनाथ क्षमा की जीवंत मूर्ति थे।
श्री पारसनाथ भगवान के पूर्व के दसवें भाव में उनका जीव मरुभूति नाम का मंत्री-पुत्र था। मरुभूति का एक कमठ नाम का भाई था। मरुभूति धर्मात्मा था तो कमठ पापी था। मरुभूति शांत भाव से भलाई करता रहा तो कमठ दुश्मनी करता रहा। एक बार मरुभूति राज्य के कार्य से सेना सहित बाहर गया था। तब पीछे से कमठ ने अपनी भाभी के साथ जबरदस्ती कर उसका शीलभंग कर दिया। राजा अरविन्द को जब यह जानकारी मिली तो उन्होंने कमठ को राज्य से बाहर निकाल दिया। मरुभूति जब वापस लौटे तो उन्हें भाई कमठ नहीं दिखा। उन्हें सारी घटनाएं मालूम पड़ी तो वे सब कुछ भूल कर भ्रातृस्नेह के वश होकर जंगल में कमठ को मनाने पहुंचे।
कमठ जंगल में पहुंचकर बाबा बन गया और सिर पर पत्थर रखकर तपस्या करने लगा। जब उसे दूर से मरुभूति आता दिखा तो उसने सोचा कि अवश्य ही यह मुझे मारने आया है। ऐसा समझकर कमठ ने मरुभूति की शांत बातों पर ध्यान न देते हुए पत्थर दे मारा, जिससे मरुभूति का प्राणांत हो गया। अंत में कमठ भी चोरी करते पकड़ा गया व मारा गया। नौवें भव में मरुभूति का जीव हाथी हो गया और कमठ का जीव सर्प हो गया। आठवें भव में हाथी का जीव स्वर्ग लोक में देव हो गया और कमठ का जीव नर्क में पहुंच गया। सातवें भव में मरुभूति का जीव स्वर्ग से निकलकर विद्याधर की नगरी में अग्निवेश नाम का विद्याधर हुआ। इधर कमठ का जीव नर्क से निकलकर विशाल अजगर बन गया। विद्याधर युवावस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर जंगल में तपस्या करने लगे। उसी जंगल में कमठ का जीव अजगर के रूप में रहता था। उसने अपना पूर्व भव का वैरी जानकर तपस्या करते हुए श्री मुनिराज को पूरा का पूरा एक साथ निगल लिया। वे समाधि पूर्वक मरण कर 16 स्वर्ग में इंद्र हो गए और कमठ का जीव मरकर पुनः छठे नरक में जा पहुंचा।
छठा भव स्वर्ग में बिताकर वहां से निकलकर मरुभूति का जीव पांचवे भव में वज्रनाभि नाम का चक्रवर्ती हुआ। इसी तरह पांचवे भव में कमठ का जीव नरक से निकलकर कुरंग नामक भील हुआ। वज्रनाभि ने मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली। वह तपस्या करने लगा। पुराने वैर को लेकर कमठ का जीव कुरंग भील वहाँ आ पहुंचा और क्रोध वश तपस्या करते हुए मुनिराज पर तीर चला कर उनके प्राण ले लिए। मुनिराज चौथे भव में ग्रैवेयक स्वर्ग में अहमिंद्र हुए। वह कमठ का जीव पाप बांधकर पुनः सातवें नर्क में पहुंच गया।
स्वर्ग से चयकर मरुभूति का जीव तीसरे भव में अयोध्या नगरी में आनंद कुमार राजा हुआ तथा कमठ का जीव क्रूर सिंह बन गया। राजा अरविन्द ने मुनि दर्शन कर अष्टाह्निका का व्रत लेकर मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली और मुनि बनकर तपस्या करने लगे। एक दिन अचानक कमठ का जीव जो कि क्रूर सिंह था, वह वन में आ पहुंचा। उसने श्री मुनिराज को देखकर अपने पूर्व भव का वैरी समझ कर उन्हें मार कर भक्षण कर लिया। आनंद मुनि का जीव पुनः स्वर्ग में गया और कमठ का जीव मरकर पुनः नर्क में पहुंच गया।
दूसरे भव में मरुभूति का जीव आणत स्वर्ग में इंद्र हो गया। इंद्र के सुखों को भोगता हुआ आयु के अंत समय में स्वर्ग से चलकर वह जीव काशी नगरी के राजा विश्व सेन व उनकी पटरानी वामा देवी के गर्भ में वैशाख कृष्ण द्वितीया के दिन अवतरित हुआ। ‘भक्तामर जी’ में आचार्य श्री ‘मानतुंग’ महाराज ने तीर्थंकर की माता की सर्वश्रेष्ठता बताते हुए कहा है -
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयनति पुत्रान्।
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र रशमिं।
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुर दंशुजालम्।।
सैकड़ों स्त्रियां सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं परंतु अन्य कोई माता आप जैसे पुत्र को जन्म नहीं दे सकती। जैसे सभी दिशाएं तारों को धारण करती हैं किंतु दैदीप्यमान किरणों के समूह वाले सूर्य को एक पूर्व दिशा ही उत्पन्न करती है। अतः आप जैसे पुत्र को जन्म देने वाली माता की अन्य माताओं से क्या तुलना करना अर्थात् आप जैसी माता कोई दूसरी हो ही नहीं सकती।
पार्श्व कुमार का नाना राजा महिपाल (कमठ का जीव) तापसी साधु बन गया था। जिस वन में पार्श्व कुमार विहार करने गए थे उसी वन में वह महिपाल तापसी साधु अपने 700 शिष्यों के साथ पंचाग्नि कुतप कर रहा था। वह बड़े-बड़े लक्कड़ होमकुंड में डालकर जला रहा था कि अचानक श्री पार्श्व कुमार अपने मित्रों के साथ उधर से निकले। उन्होंने उस तापस साधु को देखा परंतु नमस्कार नहीं किया। यह देख तापस महिपाल का क्रोध जाग उठा - मैं साधु तपस्वी हूं, बाबा साधु हूं और रिश्ते में इसका नाना भी हूं। फिर भी यह छोटा बालक नमस्कार नहीं कर रहा है। इसको अपने आप पर बहुत घमंड हो गया है।
अति क्रोध में वह लक्कड़ उठा-उठा कर अधिक ज़ोर से अग्नि में डालने लगा। तभी अचानक पारस कुमार ज़ोर से बोल उठे कि रुको! यह लकड़ी अग्नि होम में मत डालो। इसके अंदर नाग-नागिन का जोड़ा बैठा हुआ है। वह आपकी कुल्हाड़ी से कट चुका है। अग्नि में डालोगे तो वे मर जाएंगे। लकड़ी चीरी गई तो उसमें से तड़पते हुए नाग-नागिन दिखाई दिए।
यह देख उस तापस बाबा को भारी आश्चर्य हुआ लेकिन वह मान वश झुका नहीं और उल्टा पार्श्व कुमार को भला बुरा कहने लगा। श्री पार्श्व कुमार ने उस नाग-नागिन के जोड़े को उपदेश दिया। णमोकार मंत्र सुनाया और कहा कि आप कट गए हो, लहूलुहान हो गए हो, फिर भी आप मारने वाले को क्षमा करो और शांत भाव से भगवान का स्मरण करो। इसी में आपका भला है।
पार्श्व कुमार का उपदेश सुन कर शांत चित्त से प्रभु का स्मरण कर मरण को प्राप्त करके वे उच्च कोटि के भवनवासी धरणेंद्र देव तथा पद्मावती देवी हो गए और क्रोध में मर कर तापस बाबा कुतप के कारण निचली जाति का सँवर नाम का ज्योतिषी देव हुआ। पौष कृष्ण एकादशी के दिन श्री पार्श्व कुमार का जन्मोत्सव मनाया जा रहा था। उन्हें अचानक जाति स्मरण हो गया। उन्होंने राज्य संपदा को त्याग कर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की और घोर तपस्या करने लगे। आत्मध्यान करते-करते 4 माह का समय निकल गया। मुनि श्री पारसनाथ खड़गासन से तपस्या में तल्लीन थे।
तभी अचानक सँवर देव उन्हें देखते ही क्रोधाग्नि में जलने लगता है और बदला लेने के उद्देश्य से वह वहां अग्नि की लपटें निकालना शुरू कर देता है। भगवान तो वहां ध्यान में तल्लीन थे। वह ना तो कुछ बोले और ना ही हिले-डुले। यह देखकर सँवर देव और क्रोधित हो गया और बड़े-बड़े पत्थर बरसाने लगा। पत्थरों का भी कोई असर भगवान पर नहीं हुआ। यह देखकर उसने बड़ी-बड़ी शिलाएँ बरसानी शुरू कर दी। जब उसने देखा कि शिलाओं का भी उन पर कोई असर नहीं हो रहा तो उसने बड़े-बड़े ओले तथा मूसलाधार बारिश शुरु कर दी तथा भयानक-भयानक भूत प्रेत आदि के रूप बनाकर डरावनी आवाज निकालने लगा।
7 दिन तक निरंतर उपसर्ग चलता ही रहा। भयंकर उपसर्ग के प्रभाव से धरणेंद्र व पद्मावती का आसन कंपायमान हो गया। वे अपने अवधि ज्ञान से प्रभु पर हो रहे घोर उपसर्ग को जानकर शीघ्र आते हैं तथा धरणेंद्र प्रभु अपने फण फैला लेते हैं और प्रभु की रक्षा में लग जाते हैं। सँवर देव मूसलाधार पानी बरसा रहा है, धरणेंद्र व पद्मावती पानी में कमल की रचना करके पानी से प्रभु को अलिप्त रखते हैं।
प्रभु के ऊपर इतना उपसर्ग होने पर भी उनके मन में किंचित क्रोध नहीं आया। उनकी तपस्या में कोई बाधा नहीं आई। यह देखकर उसने भयंकर गर्जना, बिजली और बादल आदि का प्रकोप किया, परंतु प्रभु के अंतर में कोई अंतर नहीं आया। 7 दिन तक लगातार उपसर्ग कर कमठ थक कर चूर-चूर हो गया परंतु प्रभु अप्रभावित ही रहे। यह देखकर सँवर देव हार मान कर उनके चरणों में बैठ जाता है।
प्रभु को तपस्या करते-करते 4 माह हो चुके थे। जैसे ही उपसर्ग हटा, उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। संपूर्ण लोक में जय-जयकार होने लगी। यह सब देख सँवर देव के भाव भी अचानक बदल गए। वह प्रभु के चरणों में अपना मस्तक रख क्षमा मांगने लगा। अपनी भूल को स्वीकार कर, क्रोध को छोड़कर, शांत चित्त से प्रभु के चरणों में नतमस्तक हो गया। प्रभु ने उसे सही मार्ग पर आ गया - ऐसा समझ कर उपदेश दिया व क्षमा प्रदान की। प्रभु की दिव्य देशना सुनते ही उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई।
प्रभु पारसनाथ ने 70 वर्ष तक विहार करते हुए धर्म उपदेश दिया। अंत में योग निरोध कर श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन श्री सम्मेद शिखरजी के स्वर्ण भद्र कूट से उन्हें निर्वाण की प्राप्ति हो गई। क्षमा भाव से सारी सृष्टि को झुकाया जा सकता है। इसी सिद्धांत पर पारसनाथ भगवान चलते रहे और कमठ को क्षमा करते रहे, परंतु निरंतर वैर व क्रोध भावों को धारण कर कमठ ने दुर्गतियों को पाया। अंततः कमठ को भी वैरभाव को छोड़ना पड़ा। जैसे ही प्रभु के चरणों में वह नतमस्तक हुआ, वह क्षमा भाव से भर गया और सम्यक्त्व का पात्र बन गया अर्थात् क्षमा धर्म, क्षमा भाव सभी धर्मों में श्रेष्ठ है।
आज प्रभु के निर्वाण दिवस के पावन पुनीत अवसर पर हम भी यही भावना भाएं कि हे प्रभु! हमारे अंदर छिपे क्रोध व वैर रूपी शत्रुओं का नाश हो और क्षमा धर्म की उत्पत्ति हो ताकि हम भी आपकी तरह एक दिन निर्वाण को प्राप्त हो सकें।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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