उत्तम आर्जव
उत्तम आर्जव
(परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से)
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।
व्यर्थ है पूजा हमारी, यदि कलुषता भरी मन में,
व्यर्थ है शृंगार हमारा, यदि मानवता नहीं तन में।
व्यर्थ सारा हो रहा, पुरुषार्थ आज तक का,
व्यर्थ है मस्तक झुकाना, यदि सरलता नहीं मन में।।
मायाचारी जीव जगत के निशदिन पाप कमाते हैं।
बगुला भक्ति दिखा-दिखा कर निशदिन एब छिपाते हैं।
आर्जव के बिना धर्म के द्वार में प्रवेश सम्भव नहीं, साधना का आधार बिन्दु है आर्जव धर्म।
आर्जव का अर्थ है सरलता, विश्वास तथा वास्तविकता।
मन, वचन, काय की एकता का नाम सरलता है। सरल व्यक्ति के साथी देव भी हुआ करते हैं।
कपटी-छली व्यक्ति का कोई सहायक नहीं होता। छल व्यक्ति के विश्वास को समाप्त कर देता है।
मायाचारी करना स्वयं को धोखा देना है। माया, छल, कपट बहुत बड़े पाप हैं।
एक पाप को छिपाने में सैंकड़ों पाप हो जाया करते हैं।
कपट अविश्वास को पैदा कर देता है। एक बार टूटे हुए विश्वास का जुड़ना बहुत कठिन होता है।
टूटा धागा तो फिर भी जुड़ सकता है, पर उसमें गाँठ आ जाती है।
अविश्वसनीय मनुष्य जीता-जागता मुर्दा की तरह ही है।
यदि समस्त पापों को एक पलड़े पर रखें और माया या छल को दूसरे पलड़े पर, तो छल का पलड़ा भारी होगा।
कपट छिपाये न छिपे, छिपे तो मोटा भाग।
दाबी दूबी कब रहे, रूई लपेटी आग।।
फेस इज़ द इंडैक्स ऑफ हार्ट अर्थात् व्यक्ति का चेहरा ही हृदय का दर्पण है। मुखाकृति ही दर्पणाकृति है जिसमें व्यक्ति का परिचय हो जाया करता है।
मोत्तूण कुडिल भावं, णिम्मल हियए चरदि।
अज्जब धम्मो तइयो, तस्स संभवं णियमेण।।
वारसाणुपेक्खा में आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि जो साधु कुटिल भाव को छोड़ कर निर्मल होकर आचरण करता है, वही नियमपूर्वक धर्म का आचरण करता है।
ऋजुभाव, आर्जव, ऋजुता, सरलता, वास्तविकता, सत्यता, विश्वास, मन-वचन-काय की एकता आदि - ये सभी आर्जव के पर्यायवाची नाम हैं।
कोमल परिणाम होना अर्थात् वक्रता से रहित परिणाम होना आर्जव है।
मनस्येकं वचस्येकं, कायस्येकं च महात्मनाः।
मनस्यन्यत वचस्यन्यत, कायस्यन्यत च दुरात्मनाः।।
मन में कुछ और भरा हो, वचन से कुछ और बोल रहा हो तथा शरीर अलग ही चेष्टा कर रहा हो, वह दुरात्मा है। जिसके मन-वचन-काय एक हैं, वही महात्मा है।
‘माया तैर्यग्योनस्य’ - मायाचारी करने से तिर्यंच योनि प्राप्त होती है।
कुन्दकुन्द देव - मायाचारोव्व इत्थीणं - स्त्रियों में स्वभावतः मायाचारी पाई जाती है।
मायाचारी जीव जगत के निशदिन पाप कमाते हैं।
बगुला भक्ति दिखा-दिखा कर निशदिन एब कमाते हैं।
पहले दिन क्रोध के कारणों को पाकर भी तुमने शांत रहना सीखा था; क्षमा, समता का पाठ जीवन में उतारा था। दूसरे दिन फल-फूलों से लदे वृक्षों को देख कर झुकने, विनम्र होने के मृदु व्यवहार को सीखा था। आज हम तीसरे दिन में प्रवेश कर रहे हैं। हम सभी देखें कि सर्प बाहर कितना भी लहरा कर चलता रहे, किन्तु जब भी वह अपने बिल में प्रवेश करना चाहेगा, उसे सीधा, सरल होना ही पड़ेगा। इसी तरह हमारा जीवन-संसार कितना ही टेढ़ा-मेढ़ा क्यों न बना रहे, अपने अभ्यंतर में आने के लिए एकदम सरल, सीधा, ऋजु होना ही पड़ेगा।
नमन नमन में फेर है, अधिक करें बेइमान।
दगाबाज दूनो नमै, चीता, चोर, कमान।। (बगुला ध्यान)
मन मैला तन ऊजरा, या बगुले की टेक।
यातैं तो कौआ भला, भीतर बाहर एक।।
दुनिया में चार प्रकार के व्यक्ति होते हैं - बाहर से सरल और भीतर से सरल, बाहर से कुटिल और भीतर से सरल, बाहर से सरल और भीतर से कुटिल तथा बाहर से कुटिल और भीतर से भी कुटिल।
पहली प्रकार के व्यक्ति किशमिश की तरह होते हैं, बाहर से भी कोमल और अन्दर से भी कोमल।
दूसरी प्रकार के लोग नारियल की तरह होते हैं, बाहर से कठोर और अन्दर से कोमल - जैसे माँ।
तीसरी प्रकार के लोग बेर की तरह होते हैं, बाहर से कोमल और अन्दर से कठोर।
चौथी प्रकार के व्यक्ति सुपारी की तरह होते हैं, बाहर से भी कठोर और अन्दर से भी कठोर। हमें चौथी प्रकार के व्यक्ति की तरह बनना चाहिए। अन्दर-बाहर एक बनो।
एक व्यक्ति चार चित्र बनाता है। पहले चित्र में वह मनुष्य के वास्तविक रूप को उतारता है। दूसरे चित्र में वह उसे बनाता है, जैसा वह अपने बारे में सोचता है। तीसरे चित्र में वह आदमी के उस रूप को उतारता है, जो वह हमारे सामने दिखाना चाहता है। चौथे चित्र में वह मनुष्य का वह रूप बनाता है, जिसे वह पाना चाहता है।
हर व्यक्ति के जीवन में दोहरापन दिखाई पड़ता है। यह दोहरापन ही मायाचारी है।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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