दिखावा - दु:ख का कारण
दिखावा - दु:ख का कारण
टीकमगढ़ में एक सुनारिन थी। वह अपने पति से बोली कि हमें 30 तोले के बखौरे बनवा दो। बहुत दिनों से उनकी इस बात पर लड़ाई चल रही थी। सुनार ने क्या किया कि किसी तरह कर्ज़ा लेकर 30 तोले के बखौरे बनवा दिए। उसने बखौरे तो पहन लिए, पर देस में रिवाज था मोटी धोती पहनने का। मोटी धोती पहनने के कारण हाथ-पैर ढके रहते थे। सो किसी ने सुनारिन से न कहा कि बखौरे बहुत अच्छे बने हुए हैं। उसको मन ही मन बहुत गुस्सा आया कि हठ करके तो यह गहना बनवाया था और किसी ने नहीं पूछा। उसके मन में बहुत तेजी से गुस्सा बढ़ा, तो उसने अपने घर में आग लगा दी।
जब घर में आग लग गई, तब वह बहुत घबराई। अब तो वह हाथ पसार-पसार कर लोगों को आवाज़ देकर बुलाने लगी कि अरे! दौड़ो, घर जला जा रहा है। बहुत से लोग आने लगे। स्त्री उनसे कहती - अरे! वह रस्सी पड़ी है, वह कुँआ है। पानी खींच कर ले आओ। घर जला जा रहा है।
इतने में एक स्त्री ने उसे हाथ में बखौरा पहने देखा। उस स्त्री ने कहा - जीजी! यह बखौरा कब बनवाया था? यह तो बहुत सलोना है। सुनारिन बोली - अरी बहन! अगर पहले ही इतनी बात बोल देती, तो मैं घर में आग क्यों लगाती?
तो भैया! सारा जगत दिखावे और इज्जत पाने के पीछे मर रहा है। यह तो बताओ कि तुम किसको इज्जत दिखाना चाहते हो? किसको अपनी महत्ता दिखाना चाहते हो? तुम तो अदृश्य हो। तुम्हारे स्वरूप को कोई जानता ही नहीं। तुम ज्ञान स्वरूप हो। अपने आप को विचारो कि मैं तो अदृश्य हूँ, ज्ञान मात्र हूँ। इस लोक में मैं क्या कीर्ति की कामना कर रहा हूँ? यदि कीर्ति की चाह का त्याग हो जाए, तो वास्तव में आज़ादी मिल जाए। यदि कीर्ति की चाह बनी रहे तो आज़ादी खत्म हो जाती है, क्योंकि कीर्ति चाहोगे तो स्वयं को पर के अनुकूल यत्न करना ही पड़ेगा। इसलिए इस कीर्ति की चाह के त्याग में ही स्वतंत्रता है और इससे बढ़कर कोई सुख नहीं है। स्वतंत्रता ही एक महान सुख है। सो स्वतंत्र ज्ञानस्वरूप आनंदमय अपने स्वरूप को निरख कर अपने में आप सुखी होने का प्रयत्न करो।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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