मृत्यु नहीं जीवन
मृत्यु नहीं जीवन
एक महात्मा जी जंगल से गुज़र रहे थे। अचानक सामने डाकुओं का एक दल आ खड़ा हुआ। डाकुओं के सरदार ने कड़क कर कहा कि जो भी माल-असबाब है, निकाल कर रख दो, वरना जान से हाथ धो बैठोगे। महात्मा जी ने कहा कि वह तो भिक्षा पर पलने वाला संन्यासी है। उसके पास माल-असबाब कहाँ से आएगा।
डाकुओं के सरदार ने अट्टहास करते हुए कहा कि यदि उसके पास कुछ भी नहीं है, तो उसकी जान तो है। उसे ही ले लेते हैं। महात्मा जी ने कहा कि यह ठीक है। तुम मेरी जान ले लो लेकिन मेरी जान लेने से पहले सामने के दरख़्त से दो पत्ते तोड़ लाओ। डाकू पत्ते तोड़ लाया और महात्मा जी को देने लगा। महात्मा जी ने कहा कि ये पत्ते मुझे नहीं चाहिए। तुम इन्हें वापस पेड़ पर लगा आओ।
डाकुओं के सरदार ने विचलित होते हुए कहा कि कहीं टूटे हुए पत्ते भी दोबारा पेड़ पर लग सकते हैं? यह तो प्रकृति के विरुद्ध है। महात्मा जी ने समझाते हुए कहा कि यदि किसी को जीवन नहीं दे सकते, तो कम से कम मृत्यु तो मत दो।
महात्मा जी की बातें सुनकर डाकू की आंखें खुल गई और वह अपने साथियों के साथ सदा के लिए दस्युवृत्ति त्याग कर एक नेक इंसान बन गया।
सुविचार - तीर्थंकर स्वयंबुद्ध होते हैं, किसी पाठशाला में नहीं पढ़ते।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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