पहले पात्र स्वच्छ करो

पहले पात्र स्वच्छ करो

एक राजा ने एक साधु से कुछ उपदेश देने को कहा। साधु ने कहा - मैं आपके महल में आकर ही उपदेश दूँगा। साधु जी महल में पहुंचे। राजा ने सबसे पहले साधु को भोजन परोसा। साधु ने धूल-मिट्टी से भरा कटोरा राजा के आगे बढ़ा दिया।

राजा ने कहा - इस कटोरे में तो धूल-मिट्टी लगी है। इसमें शुद्ध भोजन परोसा गया, तो वह भी अशुद्ध हो जाएगा। तब साधु ने कहा - राजन्! इसी प्रकार आत्मा में जब तक तीव्र कषायों का कचरा भरा है, तब तक उसमें उपदेश कैसे समा सकता है? वह तो व्यर्थ ही चला जाएगा।

राजा साधु की बात के मर्म को समझ गया। जब तक हमारा हृदय कुटिलता से भरा हुआ है, तब तक उसमें सरलता की बातें कैसे समा सकती हैं? सरल बनने के लिए मन से सारे दूषित विचार बाहर निकालने पड़ेंगे, तभी उसमें अपनी आत्मा की छवि दिखाई देगी।

जैसे गंदले पानी में हम अपना प्रतिबिम्ब नहीं देख सकते, उसे देखने के लिए साफ़ निर्मल पानी होना आवश्यक है। उसी तरह मन में विचारों की गंदगी भरी होने से उसमें अच्छे विचार नहीं समा सकते। उपदेश को ग्रहण करने के लिए सुपात्रता होनी आवश्यक है।

मान लो पानी की मिट्टी थोड़ी देर के लिए नीचे बैठ भी जाए, तो ज़रा सी हलचल होते ही वह फिर से पानी में मिल जाती है। इसी प्रकार हम मंदिर में बैठ कर थोड़ा-सा प्रवचन ग्रहण भी कर लें, तो मंदिर से बाहर आते ही मन में वही क्रोध, मान, माया और लोभ की तरंगें हिलारें लेने लगती हैं, जो साफ़ मन को भी गंदा कर देती हैं। जैसे लोटे को प्रतिदिन माँजने से वह चमकने लगता है, उसी प्रकार मन को सत्संग के जल से प्रतिदिन माँज कर साफ़ करना आवश्यक है।

इसीलिए संतों ने कहा है -

बैठ अकेला दो घड़ी, भगवत् के गुण गाया कर।

मन-मन्दिर में गाफिला, झाड़ू रोज़ लगाया कर।।

सुविचार - तीर्थंकर की दिव्य ध्वनि अमृतपान के समान है।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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