जम्बू कुमार
जम्बू कुमार
मगध देश में सुग्राम नाम का रम्य नगर था। वहां राष्ट्रकूट नाम का कशाक रहता था। उसकी स्त्री का नाम रेवती था। उसके भवदत्त और भावदेव नाम के दो पुत्र थे। सुस्थित आचार्य का उपदेश सुनकर भवदत्त ने दीक्षा ग्रहण की और कृतार्थ बना। एक बार भवदत्त मुनि विहार करते-करते सुग्राम आए। वहाँ अपने कुटुम्बी जनों को प्रतिबोध को देने के लिए गुरु की आज्ञा लेकर अपने घर गए।
उस समय भावदेव का नया-नया विवाह हुआ था। भावदेव की पत्नी नागिला, अनुपम सौंदर्य से युक्त अंधकार में प्रज्ज्वलित दीपशिखा के समान थी। उसका कोमल और कमनीय शरीर स्पर्श से मैला हो जाने जैसा था। भावदेव अपनी पत्नी पर बहुत आसक्त था। वह दिन रात उसके रमणीय आंचल की छाया में पड़ा हुआ उसको निहारा करता था।
भाई ने उसे धर्म का उपदेश दिया। यद्यपि उसके मन पर मुनि भाई के उपदेश का किंचित मात्र भी असर नहीं हुआ, किंतु भाई के स्नेहवश वह नवविवाहिता को छोड़कर साधु बन गया और भाई के साथ उसने अन्यत्र विहार कर दिया। उसका शरीर भाई के साथ था लेकिन मन नागिला में खोया था। हर कदम पर उसे प्राणप्रिया की याद आती। कानों में उसकी चूड़ियों की खनक और पायल की रुनझुन गूंजने लगती। वह एक पल के लिए भी उसकी काली कजरारी जादू भरी आँखों को भुला नहीं पाया। हर समय अपनी पत्नी नागिला का ही विचार करता रहता था।
कुछ समय बाद भवदत्त मुनि का स्वर्गवास हो गया। भाई के स्वर्गवास के बाद उसने सोचा कि जिस भाई के कहने से मैंने संयम लिया है, वह तो अब संसार में नहीं रहा। यह सोचकर वह रात्रि में ही अन्य मुनियों को सोता छोड़ सुग्राम की ओर चल पड़ा। चलते-चलते वह सुग्राम नगर के यक्ष मंदिर में ठहरा।
नागिला को जब यह समाचार मिला तो एक वृद्धा स्त्री को साथ लेकर मुनि दर्शन के लिए आई। भावदेव ने प्राणप्रिया को निहारा तो सारे शरीर में सुख कंपन होने लगा। संयम के महल बिखरते हुए दिखाई दिए। उसने साधु जीवन को छोड़कर पुनः गृहस्थ में आने की इच्छा प्रकट की। नागिला सती अत्यंत धर्मनिष्ठा थी। उसने भावदेव को समझाया कि वासनाओं के कर्दम (कीचड़) से मुक्त होकर तुम पुनः आत्मा की चादर को मैला मत करो। सांसारिक आकर्षण तो सुबह की चांदनी के समान फीके और नष्ट हो जाने वाले हैं।
नागिला के उपदेश से भावदेव का मन पुनः संयम में स्थिर हो गया। उसने उत्कृष्ट चरित्र का पालन किया और मर कर वीतशोका नगरी के राजा पद्मरथ की रानी वनमाला के उदर से पुत्र रूप में जन्म लिया। बालक का नाम शिव कुमार रखा गया। शिव कुमार युवा हुआ। पूर्वजन्म के संस्कार स्वरूप उसने साधु बनकर कठोर तप किया। वह समाधि पूर्वक मरकर ब्रह्मदेव लोक में विद्युन्माली देव हुआ।
वहाँ की आयु पूर्ण करके भावदेव का जीव राजगृह के धनाढ्य श्रेष्ठी ऋषभदेव की धारिणी नामक पत्नी के उदर में आया। धारिणी रानी ने जम्बू वृक्ष का स्वप्न देखा। गर्भकाल के पूर्ण होने पर धारिणी ने सुंदर बालक को जन्म दिया। स्वप्न दर्शन के अनुसार उसका नाम जम्बू कुमार रखा गया।
जम्बू कुमार युवा हुआ। उस समय सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य परिवार के साथ राजगृह पधारे। जम्बू कुमार उपदेश सुनने सुधर्मा स्वामी के पास पहुँचा। सुधर्मा स्वामी की वैराग्य पूर्ण वाणी सुनकर उसने दीक्षा लेने का निश्चय किया। घर आकर माता-पिता से दीक्षा की आज्ञा मांगी। माता-पिता ने इकलौती संतान, अपार धनराशि का बहाना लेकर पुत्र स्नेहवश उसे आज्ञा नहीं दी और आठ कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण कर दिया।
माता-पिता जब अपनी बेटी को अपने आँगन से डोली में विदा करते हैं, तो उसकी प्रिय से प्रिय वस्तु दहेज में देना चाहते हैं। इस अवसर पर उन आठ कन्याओं के माता-पिता ने भी हीरे जवाहरात सहित 99 करोड़ का दहेज दिया।
हर कन्या के साथ बिताई आठों मधु यामिनी को जम्बू कुमार ने राग के कर्दम से दूर रह कर वैराग्य के रंग में रंग दिया। वह अपनी स्त्रियों को समझा रहा था - यह संसार शतरंज की बाजी के समान है जो शाम होते-होते उठ जाती है। यह शरीर रेत की दीवार के समान है, जो भोगों की आंधी में ढह जाने वाली है। जीवन का वास्तविक उद्देश्य आत्मा का शृंगार करना है। उसे ज्ञान, दर्शन और चरित्र का रत्न पहनाना है।
जब वह अपनी स्त्रियों को संसार की असारता समझा रहा था, उसी समय प्रभव नामक चोर अपने 500 साथियों के साथ चोरी करने वहाँ आया हुआ था। जम्बू कुमार ने उन्हें भी प्रतिबोध किया।
जम्बू कुमार का उपदेश सुनकर उनके मन के दर्पण पर पड़ी धुंध बिल्कुल साफ़ हो गई और उन्हें सब कुछ साफ़-साफ़ दिखाई देने लगा। उन्हें लगा कि हम चोरी करके धन तो संग्रह कर रहे हैं, लेकिन बदले में अपने अनमोल जीवन को नष्ट कर रहे हैं। जम्बू कुमार के त्याग, वैराग्य और ज्ञान से प्रभावित होकर उसने भी अपने साथियों के साथ दीक्षा लेने का विचार किया।
अगले दिन आठ स्त्रियां, प्रभव और उसके 500 साथी साथ लेकर वह अपने माता-पिता के पास आया और उन्हें भी उपदेश देने लगा। अपने पुत्र की वैराग्य भरी वाणी सुनकर उन्होंने भी दीक्षा लेने का संकल्प कर लिया।
इस प्रकार जम्बू कुमार, उसके माता-पिता, उसकी आठ पत्नियाँ, आठों पत्नियों के माता-पिता, प्रभव चोर और उनके 500 साथियों सहित 527 जनों ने आचार्य सुधर्मा के पास दीक्षा ग्रहण की और धुंध के उस पार उजाले की तलाश में निकल पड़े।
जम्बू कुमार ने वीर संवत 1 में 16 वर्ष की अपनी खिलती हुई तरुणाई की अवस्था में दीक्षा धारण की और सिद्ध कर दिया कि दृढ़ संकल्प के सामने बेड़ियाँ स्वतः टूट जाती हैं। उन्होंने बारह वर्ष तक सुधर्माचार्य से शास्त्रों का गंभीर अध्ययन किया और आगम वाचना ग्रहण की। वीर संवत 20 में केवलज्ञान पाया और 44 वर्ष केवली अवस्था में धर्म प्रचार करते रहे। वीर संवत 64 में 80 वर्ष की आयु पूर्ण कर मथुरा नगरी में निर्वाण को प्राप्त हुए। प्रभवमुनि आपके पट्टधर आचार्य प्रभव के रूप में विराजमान हुए।
सुविचार - सुख का निवास शांति में है। शांति का निवास समता में है। धर्मात्मा बनना हो तो ममता छोड़िए, समता अपनाइए।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
विनम्र निवेदन
यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने वाला लगा हो तो कृपया comment के द्वारा अपने विचारों से अवगत करवाएं और दूसरे लोग भी प्रेरणा ले सकें इसलिए अधिक-से-अधिक share करें।
धन्यवाद।
--
सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
Comments
Post a Comment