मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 19 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश

मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 19 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश

(परम पूज्य उपाध्याय श्री विशोकसागर महाराज की लेखनी से)

आज मुनि श्री विशोक सागर जी महाराज ने कोठी नंबर 74, सैक्टर - 13, हिसार में श्री हरि प्रकाश जैन जी के निवास स्थान पर जिनवाणी के रसपान का महत्त्व बताते हुए कहा कि जिनवाणी के रसपान से हृदय में शांति, सुख व आनन्द की अनुभूति होती है। चेतना शुद्ध ध्यान की ओर अग्रसर होती है जो हमें सिद्धपद तक ले जाने वाली है। आज पंचम काल में साक्षात् अरिहंतों का समागम व सान्निध्य नहीं मिल सकता लेकिन उनकी वाणी आज भी हमारा मोक्षमार्ग प्रशस्त करने वाली है, समस्त दुःखों को हरने वाली है, चतुर्गति के भ्रमण से मुक्त कराने वाली है। ऐसी जिनवाणी के रसपान के लिए हमें हर समय तत्पर रहना चाहिए।

संसार में 4 प्रकार की वस्तुएं हैं।

1. कुछ वस्तुएँ हमें प्रारंभ में सुख देती हैं और बाद में कष्टकारी हो जाती हैं। सारे इन्द्रिय सुख इसी श्रेणी में आते हैं।

2. कुछ वस्तुएँ हमें प्रारंभ में दुःख देती हैं और बाद में सुखकारी हो जाती हैं।

3. कुछ वस्तुएँ हमें प्रारंभ में भी दुःख देती हैं और बाद में भी दुःखकारी होती हैं।

4. कुछ वस्तुएँ हमें प्रारंभ में भी सुख देती हैं और बाद में भी सुखकारी होती हैं।

सभी जानते हैं कि पाँच ज्ञानेन्द्रियों में सबसे पहले आती है स्पर्शन इन्द्रिय जिसमें त्वचा के स्पर्श से ही सभी वस्तुओं के हल्का-भारी, शीत-उष्ण, रूखा-चिकना होने का ज्ञान होता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायिक एकेन्द्रिय जीवों को केवल स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा ही ज्ञान होता है।

दो इन्द्रिय जीवों को स्पर्शन व रसना इन्द्रिय द्वारा वस्तुओं का ज्ञान होता है। रसना इन्द्रिय से खट्टा-मीठा, कड़वा-कसैला और चरपरा होने का ज्ञान होता है। जैसे कीड़े-मकोड़े आदि।

तीन इन्द्रिय जीवों को स्पर्शन, रसना व घ्राण इन्द्रिय द्वारा वस्तुओं का ज्ञान होता है। घ्राण इन्द्रिय से सुगन्ध और दुर्गन्ध का ज्ञान होता है। जैसे चींटी-चींटा आदि।

चार इन्द्रिय जीवों को स्पर्शन, रसना, घ्राण व चक्षु इन्द्रिय द्वारा वस्तुओं का ज्ञान होता है। चक्षु इन्द्रिय से सफेद, काला, हरा, पीला, नीला रंग आदि का ज्ञान होता है। जैसे भ्रमर आदि।

पाँच इन्द्रिय जीवों को स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु व कर्ण - इन पाँचों इन्द्रियों द्वारा वस्तुओं का ज्ञान होता है। कर्ण इन्द्रिय द्वारा शब्द, ध्वनि, संगीत आदि का रसपान किया जाता है। इसमें चारों गति के प्राणी, देव, नारकी, मनुष्य व तिर्यंच आते हैं।

1. हम मनुष्य पंचेन्द्रिय प्राणी हैं। जब हम इन्द्रियों द्वारा इनके विषयों का भोग करते हैं तो वस्तुएँ हमें प्रारंभ में सुख देती हैं और बाद में कष्टकारी हो जाती हैं। सोफ़ा या गद्दा मुलायम होने के कारण बैठने में सुख देता है, पर बाद में सख्त हो जाने पर दुःख का कारण बन जाता है। ए.सी. की हवा गर्मियों में सुख देती है पर ठंड के दिनों में कष्टकारी हो जाती है। इसी प्रकार मिठाई सीमित मात्रा में ग्रहण की जाए तो सुख देती है और मात्रा अधिक होने पर दुःखदायी बन जाती है। हाथी, मीन, भ्रमर, पतंगा और हिरण एक-एक इन्द्रिय के वशीभूत होकर सुख की चाह में दुःख पाकर मरण को प्राप्त कर जाते हैं जबकि मनुष्य तो पाँचों इन्द्रियों के वश में होता है। सारा जीवन इन्द्रियों के प्रति आसक्ति में ही बिता देता है। अतः उसके दुःख का तो पार ही नहीं है। वह जिसे सुख मानता है, वह केवल सुखाभास है।

2. कुछ वस्तुएँ हमें प्रारंभ में दुःख देती हैं और बाद में सुखकारी हो जाती हैं। जैसे व्रत-नियम-संयम का पालन करना पहले कठिन लगता है लेकिन उनका परिणाम सुख देने वाला होता है जो हमें सभी दुःखों से मुक्ति दिलाने वाला होता है। एक अजैन व्यक्ति भी सोचता है कि काश! मुझे भी जैन कुल मिला होता और मैं भी रात्रि भोजन त्याग कर, छना हुआ पानी पीकर अहिंसा व्रत का पालन कर पाता।

3. कुछ वस्तुएँ हमें प्रारंभ में भी दुःख देती हैं और बाद में भी दुःखकारी होती हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय करने का परिणाम दोमुँहे सर्प के समान है। यह करने वाले को भी दुःख पहुँचाते हैं और सामने वाले के लिए भी कष्टकारी होते हैं। ये हमेशा मूर्खता से प्रारम्भ होते हैं और पश्चाताप पर समाप्त होते हैं।

4. कुछ वस्तुएँ हमें प्रारंभ में भी सुख देती हैं और बाद में भी सुखकारी होती हैं। दया, करुणा, प्रेम, वात्सल्य आदि के भाव हमारे हृदय में उत्पन्न होते ही हमें सुख व शान्ति का अनुभव होता है और जिसके प्रति किया जाए, वह भी संतोष प्राप्त करता है।

इनमें से पहली और तीसरी प्रकार की वस्तुएँ सर्वथा त्याग करने योग्य हैं। ये अशुभ आस्रव व बंध के कारण हैं और दुर्गति में ले जाने वाले हैं। दूसरी और चौथी प्रकार की भावनाएँ ग्रहण करने योग्य हैं। ये इस भव और परभव दोनों में सुख का कारण हैं। सद्गति को प्रदान करने वाली हैं और अंत में शाश्वत पद को देने वाली हैं। संत-महात्मा महाव्रतों को इसीलिए धारण करते हैं क्योंकि उनके हृदय में दया, करुणा और सहानुभूति के भाव होते हैं। सबका परोपकार करने की भावना होती है।

यदि आप भी संसार के दुःखों से मुक्ति चाहते हैं तो व्रत-संयम-नियम को धारण करके अपना कल्याण करें।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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