कुरल काव्य भाग - 20 (व्यर्थभाषणम्)

तमिल भाषा का महान ग्रंथ

कुरल काव्य भाग - 20

व्यर्थभाषणम्

मूल लेखक - श्री ऐलाचार्य जी

पद्यानुवाद एवं टीकाकार - विद्याभूषण पं० श्री गोविन्दराय जैन शास्त्री

महरोनी जिला ललितपुर (म. प्र.)

आचार्य तिरुवल्लस्वामी ने कुरल काव्य जैसे महान ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने सभी जीवों की आत्मा का उद्धार करने के लिए, आत्मा की उन्नति के लिए कल्याणकारी, हितकारी, श्रेयस्कर उपदेश दिया है। ‘कुरल काव्य’ तमिल भाषा का काव्य ग्रंथ है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके रचयिता श्री एलाचार्य जी हैं जिनका अपर नाम कुंदकुंद आचार्य है, लेकिन कुछ लोग इस ग्रंथ को आचार्य तिरुवल्लुवर द्वारा रचित मानते हैं। यह मानवीय आचरण की पद्धति का बोधगम्य दिग्दर्शन देने वाला, सर्वाधिक लोकोत्तर ग्रंथ है। अपने युग के श्रेष्ठतम साहित्यकार विद्वान पंडित श्री गोविंदराय शास्त्री ने इस ग्रंथ का तमिल भाषा लिपि से संस्कृत भाषा एवं हिंदी पद्य गद्य रूप में रचना कर जनमानस का महान उपकार किया है।

परिच्छेद: 20

व्यर्थभाषणम्

अर्थशून्यं वचो यस्य श्रुत्वोद्वेगः प्रजायते।

तत्सम्पर्काज्जुगुप्सन्ते लोके सर्वेऽपि मानवाः।।1।।

निरर्थक शब्दों से जो अपने श्रोताओं में उद्वेग लाता है, वह सब के तिरस्कार का पात्र है।

पद्य अनुवाद -

अर्थ शून्य जिसके वचन, सुन उपजे उद्वेग।

उस नर के सम्पर्क से, बचते सभी सवेग।।1।।

-

क्लेशदानं स्वमित्रेभ्यो वरमस्तु कथंचन्।

गोष्ठयां किन्तु वृथालापो न श्लाघ्यो निम्नताकरः।।2।।

अपने मित्रों को दुःख देने की अपेक्षा भी अनेक लोगों के आगे व्यर्थ की बकवाद करना बहुत बुरा है।

पद्य अनुवाद -

मित्रों को भी क्लेश दे, उससे अधिक निकृष्ट।

गोष्ठी में जो व्यर्थ का, भाषण देता धृष्ट।।2।।

-

निस्सारं दम्भपूर्णंच व्याख्यानं यः प्रभाषते।

नन्वाख्याति स्वयं लोके स मन्दः स्वामयोग्यताम्।।3।।

जो निरर्थक शब्दों का आडम्बर फैलाता है, वह अपनी अयोग्यता को ऊँचे स्वर से घोषित करता है।

पद्य अनुवाद -

दम्भभरा निस्सार जो, भाषण दे निश्शंक।

घोषित करे अयोग्यता, मानो प्रज्ञारंक।।3।।

-

बुधवृन्दे प्रलापेन कोऽपि लाभो न जायते।

विद्यमानो वरांशोऽपि तत्सम्बन्धाद् विलीयते।।4।।

सभा में जो व्यर्थ की बकवाद करता है, उस मनुष्य को देखो, उसे और कुछ तो लाभ होने का नहीं, पर जो कुछ उसके पास अच्छी बातें होंगी, वे भी छोड़कर चली जाएंगी।

पद्य अनुवाद -

कर प्रलाप बुधवृन्द में, लाभ न कुछ भी हाथ।

जो भी अच्छा अंश है, खोता वह भी साथ।।4।।

-

योग्येऽप्ययोग्यवद् भाति व्यर्थालापपरायणः।

सम्मानं गौरवंचास्य द्वयमेव विनश्यति।।5।।

यदि व्यर्थ की बकवाद अच्छे लोग भी करने लगें, तो वे भी अपने मान और आदर को खो बैठेंगे।

पद्य अनुवाद -

बकवादी यदि योग्य हो, तो भी दिखे अयोग्य।

गौरव से वह रिक्त हो, मान न पाता योग्य।।5।।

-

रुचिरेवास्ति यस्याहो भोघार्थवचसां व्यये।

तं मानवं न जानीहि ह्यपेक्ष्यं चापि कच्चरम्।।6।।

जिसे निरर्थक बातों के करने की अभिरुचि है, उसे मनुष्य ही नहीं मानना चाहिए। कदाचित् उससे भी कोई काम आ पड़े तो समझदार आदमी उससे कचरे के समान ही काम ले ले।

पद्य अनुवाद -

रुचि जिसकी बकवाद में, मानव उसे न मान।

आवश्यक ही कार्य लें, कचरा सम धीमान।।6।।

-

उचितं बुध चेद् भाति कुर्याः कर्कशभाषणम्।

परं नैव वृथालापं यतोऽस्माद्वै तदुत्तमम्।।7।।

यदि समझदार को योग्य मालूम पड़े, तो मुख से कठोर शब्द कह ले, क्योंकि यह निरर्थक भाषण से कहीं अच्छा है।

पद्य अनुवाद -

उचित जचे तो बोल ले, चाहे कर्कश बात।

वृथालाप से तो वही, दिखती उत्तम तात।।7।।

-

येषां हि निरतं चित्तं तत्त्वज्ञानगवेषणे।

विकथां ते न कुर्वन्ति क्षणमात्रं महर्षयः।।8।।

जिनके विचार बड़े-बड़े प्रश्नों को हल करने में लगे रहते हैं, ऐसे लोग विकथा के शब्द अपने मुख से नहीं निकालते।

पद्य अनुवाद -

तत्त्वज्ञान विचार में, जिनका मन संलग्न।

वे ऋषिवर होते नहीं, क्षणभर विकथा-मग्न।।8।।

-

येषां तु महती दृष्टिर्ये चैवं दीर्घदर्शिनः।

विस्मृत्यापि न कुर्वन्ति वृथोक्तीस्ते महाधियः।।9।।

जिनकी दृष्टि विस्तृत है, वे भूलकर भी निरर्थक शब्दों का उच्चारण नहीं करते।

पद्य अनुवाद -

जिनकी दृष्टि विशाल वे, प्राज्ञोत्तम गुणधाम।

कभी न करते भूलकर, बकवादी के काम।।9।।

-

वाचस्ता एव वक्तव्या याः श्लाघ्याः सभ्यमानवैः।

वर्जनीयास्ततो भिन्ना अवाच्या या वृथोक्तयः।।10।।

मुख से निकालने योग्य शब्दों का ही तू उच्चारण कर, परन्तु निरर्थक अर्थात् निष्फल शब्द मुख से मत निकाल।

पद्य अनुवाद -

भाषण के जो योग्य हो, वह ही बोलो बात।

और न उसके योग्य जो, तज दीजे वह भ्रात।।10।।

क्रमशः

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

--

सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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