कुरल काव्य भाग - 32 (उपद्रवत्याग)

तमिल भाषा का महान ग्रंथ

कुरल काव्य भाग - 32

उपद्रवत्याग

मूल लेखक - श्री ऐलाचार्य जी

पद्यानुवाद एवं टीकाकार - विद्याभूषण पं० श्री गोविन्दराय जैन शास्त्री

महरोनी जिला ललितपुर (म. प्र.)

आचार्य तिरुवल्लस्वामी ने कुरल काव्य जैसे महान ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने सभी जीवों की आत्मा का उद्धार करने के लिए, आत्मा की उन्नति के लिए कल्याणकारी, हितकारी, श्रेयस्कर उपदेश दिया है। ‘कुरल काव्य’ तमिल भाषा का काव्य ग्रंथ है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके रचयिता श्री एलाचार्य जी हैं जिनका अपर नाम कुंदकुंद आचार्य है, लेकिन कुछ लोग इस ग्रंथ को आचार्य तिरुवल्लुवर द्वारा रचित मानते हैं। यह मानवीय आचरण की पद्धति का बोधगम्य दिग्दर्शन देने वाला, सर्वाधिक लोकोत्तर ग्रंथ है। अपने युग के श्रेष्ठतम साहित्यकार विद्वान पंडित श्री गोविंदराय शास्त्री ने इस ग्रंथ का तमिल भाषा लिपि से संस्कृत भाषा एवं हिंदी पद्य गद्य रूप में रचना कर जनमानस का महान उपकार किया है।

परिच्छेद: 32

उपद्रवत्याग

लोभादिदोषनिर्मुक्तो विशुद्धहृदयो नरः।

दत्ते त्रासं न कस्मैचिद् अपि कौवेरसम्पदे।।1।।

शुद्ध अंतःकरण वाले मनुष्य को कुबेर की सम्पत्ति मिले, तो भी वह किसी को त्रास देने वाला नहीं बनेगा।

पद्य अनुवाद -

चाहे मिले कुबेरनिधि, फिर भी शुद्ध महान।

नहीं किसी को त्रास दें, सज्जन दया निधान।।1।।

-

द्वेषबुद्धया महत्कष्टं विधत्ते यदि दुष्टधीः।

न कुर्वते तथाप्यार्या वैरशुद्धिं विकल्मषाः।।2।।

द्वेषबुद्धि से प्रेरित होकर यदि कोई दूसरा आदमी उसे कष्ट देवे, तो भी पवित्र हृदय का व्यक्ति उसे उसका बदला नहीं देता।

पद्य अनुवाद -

उच्च जनों को द्वेषवश, यदि दे कष्ट निकृष्ट।

वैरशुद्धि उनको नहीं, करती पर आकृष्ट।।2।।

-

अहेतौ यो व्यथां दत्ते मे तस्मै च तथैव ताम्।

दास्येऽहमिति संकल्पे दुश्चिकित्स्या विपत्तयः।।3।।

यदि बिना किसी छेड़खानी के तुम्हें किसी ने कोई कष्ट दिया है और बदले में तुम भी उसे वैसा ही कष्ट दोगे, तो अपने ऊपर ऐसे घोर संकटों को खींच लोगे, जिनका फिर कोई उपचार नहीं।

पद्य अनुवाद -

जब अहेतु दुःखद मुझे, तब ‘मैं त्रास अपार-दूँगा’

यह संकल्प ही, बनता दुःख अगार।।3।।

-

अहितस्य हितं कुर्याद् हिया येन मृतो भवेत्।

विनयार्थं हि दुष्टानामेषैव श्लाघ्यपद्धतिः।।4।।

दुःख देने वाले व्यक्ति को शिक्षा अर्थात् दण्ड देने का यही एक उत्तम उपाय है कि तुम उसके बदले में भलाई करो, जिससे वह मन ही मन लज्जा के मारे मर जाए। यह ही उसके लिए उससे बड़ी गहरी मार है।

पद्य अनुवाद -

अरि का भी उपकार कर, दे दो लज्जा-मार।

दुष्ट दण्ड के हेतु यह, सब से श्रेष्ठ प्रकार।।4।।

-

यो न वेत्ति परस्यापि स्वस्येव व्यसने व्यथाम्।

कोऽर्थस्तस्य नरस्याहो तीक्ष्णयापि महाधिया।।5।।

जो दूसरे प्राणियों के दुःख को अपने दुःख के समान ही नहीं समझता और इसीलिए वह दूसरों को कष्ट देने से विमुख नहीं होता, ऐसे मनुष्य की बुद्धिमत्ता का क्या उपयोग?

पद्य अनुवाद -

कष्ट न जाने अन्य का, जो नर आप समान।

महाबुद्धि उसकी अहो, तब है व्यर्थ समान।।5।।

-

दुःखानि यानि भुक्तानि स्वयमेव मनीषिणा।

परस्मै तानि नो जातु देयानीति विचिन्तयेत्।।6।।

स्वयं एक बार दुःखों को भोग कर मनुष्य को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह वैसे कष्ट दूसरों को न दे।

पद्य अनुवाद -

भोगे मैंने दुःख जो, होकर अति हैरान।

पर को वे दूँगा नहीं, रखे मनुज यह ध्यान।।6।।

-

ज्ञातभावेन कस्मैचित् स्वल्पा अपि मनोव्यथाः।

न दत्ते यस्ततः कोऽन्यः श्लाघ्यो भवति भूतले।।7।।

यदि तुम जानबूझ कर किसी प्राणी को थोड़ा-सा भी दुःख नहीं देते हो, तो यह बड़ी श्लाझा अर्थात् प्रशंसा की बात है।

पद्य अनुवाद -

जानमान जो अन्य को, नहीं स्वल्प भी कष्ट-देता,

उस सम कौन है, भूतल में उत्कृष्ट।।7।।

-

यानि दुःखानि भुक्तानि स्वयमेव मुहुर्मुहुः।

न जातु तानि देयानि परस्मै सारसंग्रहः।।8।।

स्वयं पर कष्ट आ पड़ने पर कैसी वेदना होती है, ऐसा जिसको अनुभव है, वह दूसरे को दुःख देने के लिए कैसे उतारू होगा?

पद्य अनुवाद -

जिन दुःखों में आप ही, नर है हुआ अधीर।

दे फिर कैसे अन्य को, देगा बन बे-पीर।।8।।

-

मध्याह्ने यद्यहो कश्चिद् बाधते प्रतिवेशिनम्।

तद्दिने प्रहरादूर्ध्वं स्वयं सैव विपद्यते।।9।।

यदि कोई मनुष्य अपने किसी पड़ोसी को दोपहर को दुःख देता है, तो उसी दिन तीसरे पहर ही उसके ऊपर विपत्तियाँ अपने आप आ टूटेंगी।

पद्य अनुवाद -

यदि देते पूर्वाह्न में, निकटगृही को खेद।

तो भोगो अपराह्न में, तुम भी सुखविच्छेद।।9।।

-

दुष्कर्मकारिणां शीर्षमाक्रमन्त्यापदः सदा।

अपकृत्यान्यतो भद्रास्तयजन्तीह निरन्तरम्।।10।।

दुष्कर्म करने वालों के सिर के ऊपर विपत्तियाँ सदैव आया ही करती हैं, इसलिए जो मनुष्य दुःखदायी अनिष्टों से बचना चाहते हैं, वे स्वयं ही दुष्कृत्यों से सदैव अलग रहते हैं।

पद्य अनुवाद -

दुःष्कर्मी के शीष पर, सदा विपद का पूर।

जो चाहे निज त्राण वे, रहते उनसे दूर।।10।।

क्रमशः

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

--

सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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