आत्मा ज्ञाता और दृष्टा है
आत्मा ज्ञाता और दृष्टा है
भूसे से भरी बैलगाड़ी जंगल से गांव की ओर आ रही थी। रास्ते में एक मूर्ख मनुष्य पैदल जंगल से गांव की ओर आ रहा था। वह बहुत अधिक थका हुआ था। उसने गाड़ीवान से कहा कि मुझे अपनी गाड़ी में बिठा लो। उस गाड़ीवान की अनुमति से वह मनुष्य भूसे के ऊपर बैठ गया।
जमीन असमतल ऊंची-नीची होने के कारण वह भूसा जो नाड़े की रस्सी से बंधा हुआ था, ढीला हो गया। भूसा हिलने लगा। भूसे पर बैठा हुआ वह आदमी भी हिलने लगा।
उस आदमी ने गाड़ीवान से कहा कि अरे यह भूसा तो बड़े जोर से हिल रहा है। मैं कहीं गिर तो नहीं जाऊंगा?
गाड़ीवान ने कहा कि नाड़े को मजबूती से पकड़ लो।
वह मनुष्य पाजामा पहने हुए था। उसने अपने पाजामे का नाड़ा पकड़ लिया।
असमतल भूमि होने के कारण गाड़ी हिल रही थी। वह आदमी भी हिलते-हिलते गड्ढे में गिर गया।
आदमी ने गाड़ीवान से कहा कि मैं तो गड्ढे में गिर गया हूं।
गाड़ी वाले ने कहा कि नाड़ा नहीं पकड़ा था क्या?
उस आदमी ने कहा कि पकड़ा तो था अपने पाजामे का।
गाड़ी वाले ने कहा कि अरे भाई! मैंने तो तुम्हें उस नाड़े को पकड़ने के लिए कहा था जो भूसे से बंधा हुआ था।
उस आदमी ने कहा - “भैया! मैं तो समझा ही नहीं और अपने पाजामे का नाड़ा पकड़ कर बैठ गया।”
जैसे वह मूर्ख मनुष्य उस गाड़ीवान के अभिप्राय को नहीं समझने के कारण गड्ढे में गिर गया, ठीक उसी प्रकार से तुम भी कहीं नरक निगोद के गड्ढे में नहीं गिर जाना। यह जो तुम्हारी ज्ञाता-दृष्टा आत्मा है, उसे भली प्रकार पकड़े रहना। वही तुम्हारा अपना असली राजमहल है। उस आत्मा रूपी राजमहल से बाहर मत आना।
अपने घर को देख बावरे, सुख का जहां खजाना रे।
क्यों पर में सुख खोज रहा है, क्यों पर का दीवाना रे।।
बालक की तरह मोही प्राणी मोहवश बाहरी पदार्थ को अपना मानता है। उनके संयोग-वियोग में कभी सुखी होता है और कभी दुःखी होता है। पर पदार्थ में राग-द्वेष करके यह अपने आत्म स्वरूप को भूला हुआ है। आत्मा सिद्ध स्वरूपी और अविनाशी है। शेष संसार के सभी पदार्थ नश्वर हैं। हे महानुभाव! चिंतामणि के समान यह नर भव तुम्हें मिला है। कल्पवृक्ष के समान जिन धर्म मिला है। उसे व्यर्थ में मत खो देना। आत्मा ज्ञाता और दृष्टा है अर्थात् सब कुछ जानने और देखने वाली है।
सुविचार - आत्म तीर्थ से बढ़कर कोई तीर्थयात्रा नहीं।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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