ज्ञान की जागृति
ज्ञान की जागृति
ज्ञान जागृत होने पर ही कल्याण है।
किसी मां का इकलौता बेटा मर गया। मां उसे बहुत चाहती थी। वह द्वार-द्वार पर फिरने लगी कि कहीं कोई औषधि मिल जाए, कोई तंत्र-मंत्र कर दे, किसी का आशीर्वाद फल जाए। राम भी लक्ष्मण के शव को कंधे पर लेकर 6 माह तक फिरे थे।
मोह बड़ा बदमाश है। आंखों पर पर्दा डाल देता है, बुद्धि सही मार्ग पर नहीं रहती है।
वह मां भी पुत्र के शव को लेकर घूमने लगी। वह रोती तो लोग भी उसके साथ रोने लगते। गांव के लोग मां के साथ प्रेम करते थे, क्योंकि वह गांव की काफी शीलवान महिला थी। उसका पति भी मर चुका था। अभी उसका पहला घाव ही नहीं भरा था और दूसरा घाव पैदा हो गया। इसका सहारा बेटा ही था। वह भी चल बसा। वह बेसहारा हो गई। उसे अंधेरा ही अंधेरा दिखने लगा।
किसी चतुर व्यक्ति ने उससे कहा - अम्मा! हम जैसे रागियों के द्वार पर दस्तक देने से क्या होगा? हम स्वयं ही दुःखी हैं। तू ऐसा कर गांव के बाहर जंगल में एक जैन मुनि आए हैं। वह वहीं पर अपनी साधना में लीन हैं। वह बहुत बड़े तापसी हैं। काफी विशाल संघ उनके साथ है। तू उनके पास जा। शायद उनके आशीर्वाद से कुछ हो जाए।
मां अपने बेटे को लेकर मुनिराज के पास गई और अपने मृत बेटे की लाश मुनिराज के चरणों में रख दी और कहा - आप स्वयं अंतरयामी हैं। आप मेरी पीड़ा को जानते हैं। मेरा अब कोई सहारा नहीं रहा। पति पहले ही परलोक सिधार गए हैं। मेरा बेटा भी चल बसा। अब आप ही कुछ करें और वह जोर-जोर से रोने लगी। उसकी पीड़ा उमड़ पड़ी। आंखों में आंसू की धारा बह निकली।
मुनिराज ने कहा - कुछ उपाय अवश्य ही करूंगा।
ऐसा सुनकर उसकी हिम्मत लौट आई। मुनिराज से बोली - कितना समय इसे जीवित होने में लगेगा?
मुनिराज ने कहा - देरी मेरे कारण नहीं, तेरे कारण है। तू जितनी जल्दी काम करके ला देगी, वह उतनी जल्दी जीवित हो जाएगा। किसी घर से चार दाने धान के मांग ला। लेकिन ऐसे घर से लाना, जहां कोई मरा न हो। कभी मौत घटित न हुई हो।
वह शीघ्र भागी। वह भूल ही गई कि क्या ऐसा घर मिलना संभव है? जिस घर में गई, धान के चार दाने मांगने लगी कि चार दाने धान के दे दो, लोगों ने बोरिया खोल दी। उन्होंने कहा - चार दाने क्या, पूरी बोरी ले जाओ। परंतु क्षमा करें, हमारे ये दाने तेरे काम न आएंगे। इन पर मौत की छाया पड़ चुकी है। हमारे घर में जिंदा तो बहुत कम हैं, मरे बहुत हैं। हमारे बाबा के बाप मरे, बाप के बाप मरे, मां मरी, मां की मां मरी, हमारे भाई मरे, भाई के भाई मरे, किसी की पत्नी मरी, किसी के पति मरे, किसी के बेटे मरे; जिंदा तो बहुत कम हैं। बस! दो-चार बचे हैं और लाखों मरे हैं।
घर-घर घूमने पर उसे एहसास हो गया कि मौत तो घटती ही है। यह तो हर प्राणी की घटती है। मेरे साथ अपवाद नहीं हुआ। धान के दाने मांगते-मांगते उसकी बुद्धि जाग गई। उसका अज्ञान जाता रहा। उसका मोह जाता रहा। जब मुनिराज के पास लौटी तो एकदम शांत थी।
महिला आते ही मुनिराज के चरणों में गिर पड़ी और कहा - जन्म-मरण से बचाने वाली दीक्षा मुझे दे दें। उसने आंख उठाकर भी नहीं देखा बेटे की लाश की तरफ। उसने श्रावकों से कहा - जाओ, लाश को मरघट में जला दो। मुझे ज्ञात हो गया है कि मौत तो जीवन की अनिवार्य घटना है, जो देर-सवेर सबके जीवन में घटती है।
सुविचार - इधर एक दूल्हा घोड़ी चढ़ रहा है, उधर एक जनाजा उठ रहा है। इधर वाह-वाह है, उधर आह-आह और ठंडी सांसें हैं। कोई रो रहा है, कोई गा रहा है। इसी का नाम ज़िंदगी की यात्रा है।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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