कुरल काव्य भाग - 46 (कुसंग से दूर रहना)
तमिल भाषा का महान ग्रंथ
कुरल काव्य भाग - 46
कुसंगपरित्यागः
मूल लेखक - श्री ऐलाचार्य जी
पद्यानुवाद एवं टीकाकार - विद्याभूषण पं० श्री गोविन्दराय जैन शास्त्री
महरोनी जिला ललितपुर (म. प्र.)
आचार्य तिरुवल्लस्वामी ने कुरल काव्य जैसे महान ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने सभी जीवों की आत्मा का उद्धार करने के लिए, आत्मा की उन्नति के लिए कल्याणकारी, हितकारी, श्रेयस्कर उपदेश दिया है। ‘कुरल काव्य’ तमिल भाषा का काव्य ग्रंथ है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके रचयिता श्री एलाचार्य जी हैं जिनका अपर नाम कुंदकुंद आचार्य है, लेकिन कुछ लोग इस ग्रंथ को आचार्य तिरुवल्लुवर द्वारा रचित मानते हैं। यह मानवीय आचरण की पद्धति का बोधगम्य दिग्दर्शन देने वाला, सर्वाधिक लोकोत्तर ग्रंथ है। अपने युग के श्रेष्ठतम साहित्यकार विद्वान पंडित श्री गोविंदराय शास्त्री ने इस ग्रंथ का तमिल भाषा लिपि से संस्कृत भाषा एवं हिंदी पद्य गद्य रूप में रचना कर जनमानस का महान उपकार किया है।
परिच्छेद: 46
कुसंग से दूर रहना
भद्रो बिभेति दुःसंगात् परः संगच्छते तथा।
अभद्रेण समं नित्यं यथा स्यात् तत्कुटुम्बभाक्।।1।।
योग्य पुरुष कुसंग से डरते हैं, पर क्षुद्र प्रकृति के आदमी दुर्जनों से इस रीति से मिलते-जुलते हैं कि मानो वे उनके कुटुम्ब के ही हों।
पद्य अनुवाद -
उत्तम नर दुःसंग से, रहें सदा भयभीत।
ओछे पर ऐसे मिलें, यथा कुटुम्बी मीत।।1।।
-
यथाभूमौ वहत्यम्भस्तत्तथा परिवर्तते।
यादृशी संगतिस्तस्य पुरुषोऽपि तथाविधः।।2।।
पानी का गुण बदल जाता है। वह जैसी धरती पर बहता है, वैसा ही उसका गुण हो जाता है। उसी प्रकार मनुष्य की जैसी संगति होती है, उसमें वैसे ही गुण आ जाते हैं।
पद्य अनुवाद -
बहता जैसी भूमि में, बनता वैसा नीर।
संगति जैसी जीव की, वैसा ही गुणशील।।2।।
-
बुद्धेर्यद्यपि सम्बन्धो मस्तकादेव वर्तते।
यशसः किन्तु सम्बन्धो गोष्ठ्या उपरि निर्भरः।।3।।
आदमी की बुद्धि का सम्बन्ध तो उसके मस्तक से है, पर उसकी प्रतिष्ठा तो उन लोगों पर पूर्ण अवलम्बित है, जिनकी संगति में वह रहता है।
पद्य अनुवाद -
मस्तक से ही बुद्धि का, है सम्बन्ध विशेष।
पर यश का सम्बन्ध तो, गोष्ठी पर ही शेष।।3।।
-
ज्ञायते हृदये वासः स्वभावस्य सदा जनैः।
परं तस्य निवासस्तु तद्गोष्ठ्यां यत्र स स्वयम्।।4।।
मालूम तो ऐसा होता है कि मनुष्य का स्वभाव उसके मन में रहता है, किन्तु वास्तव में उसका निवास स्थान उस गोष्ठी में है, जिनकी संगति वह करता है।
पद्य अनुवाद -
नर स्वभाव का बाह्य में, दिखता मन में वास।
पर रहता उस वर्ग में, बैठे जिसके पास।।4।।
-
मनसः कर्मणश्चापि शुद्धेर्मूलं सुसंगतिः।
तद्विशुद्धौ यतः सत्यां संशुद्धिर्जायते तयोः।।5।।
मन की पवित्रता और कर्मों की पवित्रता आदमी की संगति की पवित्रता पर निर्भर है।
पद्य अनुवाद -
चाहे मन की शुद्धि हो, चाहे कर्म विशुद्धि।
इन सबका पर मूल है, संगति की ही शुद्धि।।5।।
-
पवित्रं हृदयं यस्य संततिस्तस्य पुण्यभाक्।
यावज्जीवमसौ भद्रः समृद्धः सन् सुखायते।।6।।
पवित्र हृदय वाले पुरुष की सन्तति उत्तम होगी और जिसकी संगति अच्छी है, वे हर प्रकार से फलते-फूलते हैं।
पद्य अनुवाद -
संतपुरुष को प्राप्त हो, संतति योग्यविशेष।
और सदा फूले फले, जब तक वय हो शेष।।6।।
-
मनःशुद्धिर्मनुष्यस्य निधानं वसुधातले।
सत्संगश्च ददातीह गौरवं गुणवत्तरम्।।7।।
अन्तःकरण की शुद्धता ही मनुष्य के लिए बड़ी सम्पत्ति है और सन्त-संगति उसे हर प्रकार का गौरव प्रदान करती है।
पद्य अनुवाद -
नर की एक अपूर्व ही, निधि है मन की शुद्धि।
सत्संगति देती तथा, गौरव गुणमय वृद्धि।।7।।
-
आकरा गुणरत्नानां स्वयं सन्ति मनीषिणः।
सत्संगतिं तथाप्येते मन्यन्ते शक्तिमन्दिरम्।।8।।
बुद्धिमान यद्यपि स्वयंमेव सर्वगुण सम्पन्न होते हैं, फिर भी वे पवित्र पुरुषों के सुसंग को शक्ति का स्तम्भ समझते हैं।
पद्य अनुवाद -
यद्यपि होता प्राज्ञजन, स्वयं गुणों की खान।
सत्संगति को मानते, फिर भी शक्ति महान।।8।।
-
धर्मो गमयति स्वर्गं पुण्यात्मानं विकिल्विषम्।
धर्मप्राप्त्यै च सद्वृत्ते नियुंक्ते सा सुसंगतिः।।9।।
धर्म मनुष्य को स्वर्ग ले जाता है और सत्पुरुषों की संगति उसको धर्माचरण में रत करती है।
पद्य अनुवाद -
पुण्यात्मा को स्वर्ग में, ले जाता जो धर्म।
मिलता वह सत्संग से, करके उत्तम कर्म।।9।।
-
सत्संगादपरो नास्ति नजस्य परमः सखा।
दुःसंगाच्च परो नास्ति हानिकर्ता महीतले।।10।।
अच्छी संगति से बढ़ कर आदमी का सहायक और कोई नहीं है। और कोई वस्तु इतनी हानि नहीं पहुँचाती, जितनी कि दुर्जन की संगति।
पद्य अनुवाद -
परमसखा सत्संग से, अन्य न कुछ भी और।
और अहित दुःसंग से, जो देखो कर गौर।।10।।
क्रमशः
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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