कुरल काव्य भाग - 62 (पुरुषार्थ)

तमिल भाषा का महान ग्रंथ

कुरल काव्य भाग - 62

पुरुषार्थ

मूल लेखक - श्री ऐलाचार्य जी

पद्यानुवाद एवं टीकाकार - विद्याभूषण पं० श्री गोविन्दराय जैन शास्त्री

महरोनी जिला ललितपुर (म. प्र.)

आचार्य तिरुवल्लस्वामी ने कुरल काव्य जैसे महान ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने सभी जीवों की आत्मा का उद्धार करने के लिए, आत्मा की उन्नति के लिए कल्याणकारी, हितकारी, श्रेयस्कर उपदेश दिया है। ‘कुरल काव्य’ तमिल भाषा का काव्य ग्रंथ है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके रचयिता श्री एलाचार्य जी हैं जिनका अपर नाम कुंदकुंद आचार्य है, लेकिन कुछ लोग इस ग्रंथ को आचार्य तिरुवल्लुवर द्वारा रचित मानते हैं। यह मानवीय आचरण की पद्धति का बोधगम्य दिग्दर्शन देने वाला, सर्वाधिक लोकोत्तर ग्रंथ है। अपने युग के श्रेष्ठतम साहित्यकार विद्वान पंडित श्री गोविंदराय शास्त्री ने इस ग्रंथ का तमिल भाषा लिपि से संस्कृत भाषा एवं हिंदी पद्य गद्य रूप में रचना कर जनमानस का महान उपकार किया है।

परिच्छेद: 62

पुरुषार्थः

अशक्यमिति संभाष्य कर्म मा मुंच दूरतः।

उद्योगो वर्तते यस्मात् कामसूः सर्वकर्मसु।।1।।

यह काम अशक्य है, ऐसा कहकर किसी भी काम से पीछे न हटो, कारण पुरुषार्थ अर्थात् उद्योग प्रत्येक काम में सिद्धि देने की शक्ति रखता है।

पद्य अनुवाद -

हटो न पीछे कर्म से, कहकर उसे अशक्य।

है समर्थ पुरुषार्थ जब, करने को सब शक्य।।1।।

-

सामिकार्यं न कुर्वीत लोकरीतिविशारदः।

तद्विधात्रे यतः कोऽपि स्पृहयेन्न सचेतनः।।2।।

किसी काम को अधूरा छोड़ने से सावधान रहो। कारण अधूरा काम करने वालों की जगत में कोई चाह नहीं करता।

पद्य अनुवाद -

अहो सयाने भूलकर, करो न आधा कार्य।

देगा तुम्हें न अन्यथा, आदर कोई आर्य।।2।।

-

न जहाति विपत्ती यः सान्निध्यं तस्य गौरवम्।

सेवारूपनिधिन्यासाल्लभ्यते तत् सुदुर्लभम्।।3।।

किसी के भी कष्ट के समय उससे दूर न रहने में ही मनुष्य का बड़प्पन है और उसको प्राप्त करने के लिए सभी मनुष्यों की हार्दिक सेवा रूप निधि (धरोहर) रखनी पड़ती है।

पद्य अनुवाद -

दुःख समय भी साथ दे, वह नर गौरववान।

सेवानिधि गिरवी धरे, तब पाता वह मान।।3।।

-

अनुद्योगवतो नूनमौदार्यं क्लीवखंगवत।

यतस्तयोर्द्वियोर्मध्ये नैकं चास्ति चिरस्थिरम।।4।।

पुरुषार्थ हीन की उदारता नपुंसक की तलवार के समान है, कारण वह अधिक समय तक टिक नहीं सकती।

पद्य अनुवाद -

पौरुष बिना उदारता, क्लीव कृपाण समान।

कारण अस्थिर एक से, खोते दोनों मान।।4।।

-

सुखे रतिर्न यस्यास्ति कामना किन्तु कर्मणः।

आधारः स हि मित्राणां विपत्तावश्रुमार्जिकः।।5।।

जो सुख की चाह न कर कार्य को चाहता है, वह मित्रों का ऐसा आधार स्तम्भ है जो उनके दुःख के आँसुओं को पोंछेगा।

पद्य अनुवाद -

जिसे न सुख की कामना, चाहे कर्म उदार।

मित्रों का आधार वह, आँसू पोंछनहार।।5।।

-

उद्योगशीलिता लोके वैभवस्य यथा प्रसूः।

दारिद्रयाशक्तियुग्मस्य जनकोऽस्ति तथालसः।।6।।

उद्योग शीलता ही वैभव की माता है, पर आलस्य दारिद्रय और दुर्बलता का जनक है।

पद्य अनुवाद -

क्रिया शीलता विश्व में, वैभव-जननी ख्यात।

और अलस दारिद्रयसम, दुर्बलता का तात।।6।।

-

आलस्यं वर्तते नूनं दारिद्र्यस्य निवासभूः।

गतालस्यश्रमश्चाथ कमलाकान्तमन्दिरम्।।7।।

कंगाली का घर निरुद्योगिता है, लेकिन जो आलस्य के फेर में नहीं पड़ता, उसके परिश्रम में लक्ष्मी का नित्य निवास है।

पद्य अनुवाद -

सचमुच ही आलस्य में, है दारिद्रयनिवास।

पर करती उद्योग में, कमला नित्य निवास।।7।।

-

नापि लज्जाकरं दैवाद् वैभवं यदि नश्यति।

वैमुख्यं हि श्रमात् किन्तु लज्जायाः परमं पदम्।।8।।

यदि मनुष्य कदाचित वैभवहीन हो जाये तो कोई लज्जा की बात नहीं है, परन्तु जानबूझकर मनुष्य श्रम से मुख मोड़े, यह बड़ी ही लज्जा की बात है।

पद्य अनुवाद -

क्षीण विभव हो दैववश, क्या लज्जा की बात।

श्रम से भगना दूर ही, है लज्जा की बात।।8।।

-

वरमस्तु विपर्यस्तं भाग्यं जातु कुदैवतः।

पौरुषन्तु तथापीह फलं दत्ते क्रियाजुषे।।9।।

भाग्य उल्टा भी हो तो भी उद्योग श्रम का फल दिये बिना नहीं रहता।

पद्य अनुवाद -

भाग्य भले ही योगवश, चाहे हो प्रतिकूल।

देता है पुरुषार्थ पर, सत्फल ही अनुकूल।।9।।

-

शश्वत्कर्मप्रसक्तो यो भाग्यचक्रे न निर्भरः।

जय एवास्ति तस्याहो अपि भाग्यविपर्यये।।10।।

जो भाग्यचक्र के भरोसे न रहकर लगातार पुरुषार्थ किये जाता है, वह विपरीत भाग्य के रहने पर भी उस पर विजय प्राप्त करता है।

पद्य अनुवाद -

रहे न निर्भर भाग्य पर, जो नर कर्म धुरीण।

विधि भी रहते वाम वह, होता जयी प्रवीण।।10।।

क्रमशः

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

--

सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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