कुरल काव्य भाग - 63 (संकट में धैर्य)
तमिल भाषा का महान ग्रंथ
कुरल काव्य भाग - 63
संकट में धैर्य
मूल लेखक - श्री ऐलाचार्य जी
पद्यानुवाद एवं टीकाकार - विद्याभूषण पं० श्री गोविन्दराय जैन शास्त्री
महरोनी जिला ललितपुर (म. प्र.)
आचार्य तिरुवल्लस्वामी ने कुरल काव्य जैसे महान ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने सभी जीवों की आत्मा का उद्धार करने के लिए, आत्मा की उन्नति के लिए कल्याणकारी, हितकारी, श्रेयस्कर उपदेश दिया है। ‘कुरल काव्य’ तमिल भाषा का काव्य ग्रंथ है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके रचयिता श्री एलाचार्य जी हैं जिनका अपर नाम कुंदकुंद आचार्य है, लेकिन कुछ लोग इस ग्रंथ को आचार्य तिरुवल्लुवर द्वारा रचित मानते हैं। यह मानवीय आचरण की पद्धति का बोधगम्य दिग्दर्शन देने वाला, सर्वाधिक लोकोत्तर ग्रंथ है। अपने युग के श्रेष्ठतम साहित्यकार विद्वान पंडित श्री गोविंदराय शास्त्री ने इस ग्रंथ का तमिल भाषा लिपि से संस्कृत भाषा एवं हिंदी पद्य गद्य रूप में रचना कर जनमानस का महान उपकार किया है।
परिच्छेद: 63
विपदि धैर्यम्
हसन् भव पुरोभागी विपत्तीनां समागमे।
विपदा हि जये हासः सहाय प्रबलो मतः।।1।।
जब तुम पर कोई आपदा आ पड़े तो तुम हँसते हुए उसका सामना करो क्योंकि मनुष्य को आपत्ति का सामना करने के लिए सहायता देने में मुस्कान से बढ़कर और कोई वस्तु नहीं है।
पद्य अनुवाद -
करो हँसी से सामना, जब दे विपदा त्रास।
विपदाजय को एक ही, प्रवल सहायक हास।।1।।
-
अव्यवस्थितचित्तोऽपि भवन्नेकाग्रमानसः।
विपदां चेत् पुरःस्थायी तत्क्षुब्धाब्धिः प्रशाम्यति।।2।।
अनिश्चित मन का पुरुष भी मन को एकाग्र करके जब सामना करने को खड़ा होता है तो आपत्तियों का लहराता हुआ सागर भी दबकर बैठ जाता है।
पद्य अनुवाद -
अस्थिर भी एकाग्र हो, ले लेता जब चाप।
क्षुब्ध जलधि भी दुःख का, दब जाता तब आप।।2।।
-
विपदो मन्यते नैव विपदो यो हि मानवः।
ध्रुवं तस्य निवर्तन्ते विपन्नाः स्वयमापदः।।3।।
आपत्तियों को जो आपत्ति नहीं समझते, वे आपत्तियों को ही आपत्ति में डालकर वापिस भेज देते हैं।
पद्य अनुवाद -
विपदा को विपदा नहीं, माने जब नर आप।
विपदा में पड़ लौटती, विपदाएं तब आप।।3।।
-
प्राणेषु त्यक्तमोहः सन् यतते यो लुलायवत्।
जेतुं सर्वापदस्तस्य हताशाः प्रतियान्ति ताः।।4।।
भैंसे की तरह हर एक संकट का सामना करने के लिए जो जी तोड़कर श्रम करने को तैयार है, उसके सामने विघ्न-बाधा आयेंगी पर निराश होकर अपना-सा मुँह लेकर वापिस चली जायेंगी।
पद्य अनुवाद -
करे विपद का सामना, भैंसासम जी-तोड़।
तो उसकी सब आपदा, हटती आशा छोड़।।4।।
-
स्वविपक्षे विपत्तीनां सज्जितां महतीं चमूम्।
दृष्टवापि यस्य नाधैर्यं ततो विभ्यति ताः स्वयम्।।5।।
आपत्ति की एक समस्त सेना को अपने विरुद्ध सुसज्जित खड़ी देखकर भी जिसका मन बैठ नहीं जाता, बाधाओं को उसके पास आने में स्वयं बाधा होती है।
पद्य अनुवाद -
विपदा की सेना बड़ी, खड़ी सुसज्जित देख।
नहीं तजे जो धैर्य को, डरे उसे वे देख।।5।।
-
नासीत् सौभाग्यकालेऽपि प्रमोदो यस्य सद्मनि।
स कथं कथयेत् सर्वं ‘हा संप्रति विपद्धतः’।।6।।
सौभाग्य के समय जो हर्ष नहीं मनाते क्या वे कभी इस प्रकार का दुखौना कहते फिरेंगे कि हाय! हम नष्ट हो गये।
पद्य अनुवाद -
किया न उत्सव गेह में, जब था निज सौभाग्य।
तब कैसे वह बोलता, हा आया ‘दुर्भाग्य’।।6।।
-
इति वेत्ति स्वयं प्राज्ञो यद् देहो विपदां पदम्।
अतएव विपन्नोऽपि नानुशोचति पण्डितः।।7।।
बुद्धिमान् लोग जानते हैं कि यह देह तो विपत्तियों का घर है और इसीलिए जब उन पर कोई संकट आ जाता है तो वे उसकी कुछ परवाह नहीं करते।
पद्य अनुवाद -
विज्ञ स्वयं यह जानते, विपदागृह है देह।
विपदा में पड़कर तभी, बने न चिन्ता गेह।।7।।
-
यो विलासप्रियो नास्ति मन्यते चापदस्तथा।
सहजा जन्मना सार्कं स दुःखार्तो न जायते।।8।।
जो आदमी भोगोपभोग की लालसा में लिप्त नहीं और जो जानता है कि आपत्तियाँ भी सृष्टि-नियम के अन्तर्गत हैं वह बाधा पड़ने पर कभी दुःखित नहीं होता।
पद्य अनुवाद -
अटल नियम में सृष्टि के, गिनता है जो दुःख।
उस अविलासी धीर को, बाधा से क्या दुःख।।8।।
-
यस्य नास्ति महाहर्षः सम्पत्तीनामुपागमे।
विषादोऽपि कथं तस्य भवेत् तासामपागमे।।9।।
सफलता के समय जो हर्ष में मग्न नहीं होता, असफलता के समय उसे दुःख से घबराना नहीं पड़ता।
पद्य अनुवाद -
वैभव के वर-लाभ में, जिसे न अति आह्लाद।
होगा उसके नाश में, क्योंकर उसे विषाद।।9।।
-
मन्यते सुखमायासे थषविगद्वये च यः।
तं स्तुवन्ति महाधीरं विरुद्धा अपि वैरिणः।।10।।
जो आदमी परिश्रम के दुःख, दबाव और आवेग को सच्चा सुख समझता है उसके वैरी भी उसकी प्रशंसा करते हैं।
पद्य अनुवाद -
श्रम दबाव या वेग में, माने जो नर मोद।
फैलाते उस धीर की, अरि भी गुण-आमोद।।10।।
क्रमशः
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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