कुरल काव्य भाग - 75 (दुर्ग)

तमिल भाषा का महान ग्रंथ

कुरल काव्य भाग - 75

दुर्ग

मूल लेखक - श्री ऐलाचार्य जी

पद्यानुवाद एवं टीकाकार - विद्याभूषण पं० श्री गोविन्दराय जैन शास्त्री

महरोनी जिला ललितपुर (म. प्र.)

आचार्य तिरुवल्लस्वामी ने कुरल काव्य जैसे महान ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने सभी जीवों की आत्मा का उद्धार करने के लिए, आत्मा की उन्नति के लिए कल्याणकारी, हितकारी, श्रेयस्कर उपदेश दिया है। ‘कुरल काव्य’ तमिल भाषा का काव्य ग्रंथ है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके रचयिता श्री एलाचार्य जी हैं जिनका अपर नाम कुंदकुंद आचार्य है, लेकिन कुछ लोग इस ग्रंथ को आचार्य तिरुवल्लुवर द्वारा रचित मानते हैं। यह मानवीय आचरण की पद्धति का बोधगम्य दिग्दर्शन देने वाला, सर्वाधिक लोकोत्तर ग्रंथ है। अपने युग के श्रेष्ठतम साहित्यकार विद्वान पंडित श्री गोविंदराय शास्त्री ने इस ग्रंथ का तमिल भाषा लिपि से संस्कृत भाषा एवं हिंदी पद्य गद्य रूप में रचना कर जनमानस का महान उपकार किया है।

परिच्छेद: 75

दुर्गः

उपकर्ता यथा दुर्गो निर्बलानां स्वरक्षिणाम्।

सबलानां तथैवैष नास्ति न्यूनः सहायकृत्।।1।।

दुर्बलों के लिए, जिन्हें केवल अपने बचाव की ही चिन्ता होती है, दुर्ग बहुत ही उपयोगी होते हैं, परन्तु बलवान् और प्रतापी के लिए भी वे कम उपयोगी नहीं है।

पद्य अनुवाद -

निर्बल की रक्षार्थ गढ़, यदि है प्रवल सहाय।

तो पाते बलवान भी, न्यून नहीं सदुपाय।।1।।

-

वनदुर्गो गिरेर्दुर्गो मरुदुर्गोऽथ वारिणः।

दुर्गः प्राकारदुर्गश्च सन्ति दुर्गा अनेकधा।।2।।

जल, प्राकार, मरुभूमि, पर्वत और सघन वन - ये सब नाना प्रकार के रक्षणात्मक सीमा-दुर्ग हैं।

पद्य अनुवाद -

अद्रि, नीर, मरुभूमि, वन, और परिधि के दुर्ग।

रक्षक ये हैं राष्ट्र के, सब ही सीमा दुर्ग।।2।।

-

दाढर्यमुत्सेधविष्कम्भावजय्यत्वञ्च सर्वतः।

दुर्गाणां हि विनिर्माणे नूनमावश्यका गुणाः।।3।।

ऊँचाई, मोटाई, मजबूती और अजेयपन - ये चार गुण हैं, जो निर्माण कला की दृष्टि से किलों के लिए अनिवार्य हैं।

पद्य अनुवाद -

दृढ़ ऊँचा विस्तीर्ण हो, रिपु से और अजेय।

दुर्गों के निर्माण में, ये सब गुण हैं ज्ञेय।।3।।

-

यो दार्ढ्ये किंचिदूनोऽपि शत्रूणां मदभंजकः।

पर्याप्तो यत्र विस्तारो स दुर्गः प्रवरो मतः।।4।।

वह गढ़ सबसे उत्तम है जो थोड़ी भी जगह से भेद्य न हो, साथ ही विस्तीर्ण हो और जो लोग उसे जीत लेना चाहें, उनके आक्रमणों को रोकने की जिसमें क्षमता हो।

पद्य अनुवाद -

दुर्ग प्रवर वह ही जहाँ, हो यथेष्ट विस्तार।

दृढ़ता में अन्यून हो, करे विफल रिपुवार।।4।।

-

दुर्गसैनिकरक्षायाः प्रबन्धो वस्तुसंग्रहः।

अजय्यत्वञ्च दुर्गस्य सन्ति ह्यावश्यका गुणाः।।5।।

अजेयत्व, दुर्गस्थ सैन्य के लिए रक्षणात्मक सुविधा, रसद तथा अन्य सामग्री का प्रचुर मात्रा में संग्रह, ये सब दुर्ग के लिए आवश्यक बातें हैं।

पद्य अनुवाद -

रक्षा और अजेयता, सब बिध वस्तु प्रबन्ध।

ये गुण रखते दुर्ग से, आवश्यक सम्बन्ध।।5।।

-

आवश्यकपदार्थानां यत्र पर्याप्तसंग्रहः।

रक्षितो यो हि वीरैश्च स दुर्गो दुर्ग उच्यते।।6।।

वही सच्चा किला है जिसमें हर प्रकार का सामान पर्याप्त परिमाण में विद्यमान हो और जो ऐसे लोगों के संरक्षण में हो कि जो किले को बचाने के लिए वीरतापूर्वक लड़ें।

पद्य अनुवाद -

है यथार्थ वह ही किला, रक्षक जिसके वीर।

धान्यादिक से पूर्ण जो, रखता उत्तम नीर।।6।।

-

चिरानुबन्धावस्कन्दसुरंगाभिश्च यं रिपुः।

विजेतुं नैव शक्नोति स दुर्गो दुर्ग उच्यते।।7।।

निस्सन्देह वह सच्चा गढ़ है कि जिसे न तो कोई घेरा डालकर जीत सके, न अचानक हमला करके और न कोई जिसे सुरंग लगाकर ही तोड़ सके।

पद्य अनुवाद -

धावा कर या घेर कर, या सुरंग से खण्ड।

करके, जिसे न जीतते, वह ही दुर्ग प्रचण्ड।।7।।

-

विजयाय कृतोद्योगान् परिवारकसैनिकान्।

अपि जेतुं क्षमो यश्च सैव दुर्गेऽस्त्यसंशयम्।।8।।

वही वास्तविक दुर्ग है जो अपने भीतर लड़ने वालों को पूर्ण बलशाली बनाता है और घेरा डालने वालों के अटूट उद्योगों को विफल कर देता है।

पद्य अनुवाद -

घेरा देकर भी जिसे, थक जाते अरि वीर।

बल देते निज सैन्य को, गढ़ के दृढ़ प्राचीर।।8।।

-

सैव दुर्गोऽस्ति यच्छक्तेस्तत्रस्था रक्षका भटाः।

दूरादेव बहिः सीम्नो घातयन्ति स्ववैरिणः।।9।।

वही खरा दुर्ग है, जो नाना प्रकार के विकट साधनों द्वारा अजेय बन गया है और जो अपने संरक्षकों को इस योग्य बनाता है कि वे बैरियों को किले की सुदूर सीमा पर ही मार कर गिरा सकें।

पद्य अनुवाद -

वह ही सच्चा दुर्ग है, जिसके बल पर वीर।

सीमा पर ही शत्रु को, कर दें भिन्न-शरीर।।9।।

-

पूर्णसाधनसम्पन्नः सुदुर्गोऽपि निरर्थकः।

यदि प्रमादिनः सन्ति रक्षकाः स्फूर्तिविच्युताः।।10।।

यदि रक्षक सैन्यवर्ग समय पर फुर्ती से काम न ले, तो चाहे दुर्ग कितना ही सुदृढ़ हो, किसी काम का नहीं।

पद्य अनुवाद -

पूर्ण सुसज्जित दुर्ग भी, हो जाता बेकाम।

रक्षक फुर्ती त्यागकर, करते यदि विश्राम।।10।।

क्रमशः

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

--

सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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