कुरल काव्य भाग - 80 (मित्रता के लिए योग्यता की परख)

तमिल भाषा का महान ग्रंथ

कुरल काव्य भाग - 80

मित्रता के लिए योग्यता की परख

मूल लेखक - श्री ऐलाचार्य जी

पद्यानुवाद एवं टीकाकार - विद्याभूषण पं० श्री गोविन्दराय जैन शास्त्री

महरोनी जिला ललितपुर (म. प्र.)

आचार्य तिरुवल्लस्वामी ने कुरल काव्य जैसे महान ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने सभी जीवों की आत्मा का उद्धार करने के लिए, आत्मा की उन्नति के लिए कल्याणकारी, हितकारी, श्रेयस्कर उपदेश दिया है। ‘कुरल काव्य’ तमिल भाषा का काव्य ग्रंथ है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके रचयिता श्री एलाचार्य जी हैं जिनका अपर नाम कुंदकुंद आचार्य है, लेकिन कुछ लोग इस ग्रंथ को आचार्य तिरुवल्लुवर द्वारा रचित मानते हैं। यह मानवीय आचरण की पद्धति का बोधगम्य दिग्दर्शन देने वाला, सर्वाधिक लोकोत्तर ग्रंथ है। अपने युग के श्रेष्ठतम साहित्यकार विद्वान पंडित श्री गोविंदराय शास्त्री ने इस ग्रंथ का तमिल भाषा लिपि से संस्कृत भाषा एवं हिंदी पद्य गद्य रूप में रचना कर जनमानस का महान उपकार किया है।

परिच्छेद: 80

सख्यार्थं योग्यतापरीक्षा

अपरीक्ष्यैव मैत्री चेत् कः प्रमादो ह्यतः परः।

भद्राः प्रीतिं विधायादौ न तां मुंचति कर्हिचित्।।1।।

इससे बढकर अप्रिय बात और कोई नहीं है कि बिना परीक्षा किये किसी के साथ मित्रता करली जाये, क्योंकि एक बार मित्रता हो जाने पर सहृदय पुरुष फिर उसे छोड़ नहीं सकता।

पद्य अनुवाद -

बिना विचारे अन्य से, मैत्री करना भूल!

कारण करके त्यागना, भद्रों के प्रतिकूल।।1।।

-

अज्ञातकुलशीलानां मैत्री संकटसंहतिः।

सति प्राणक्षये यस्याः शान्तिर्भवति पूर्णतः।।2।।

जो पुरुष पहिले आदमियों की जांच किये बिना ही उनको मित्र बना लेता है वह अपने शिर पर ऐसी आपत्तियों को बुलाता है कि जो केवल उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त होंगी।

पद्य अनुवाद -

बिना विवेक विचार की, मैत्री विपदा रूप।

प्राणक्षय के साथ यह, मिटे असाता कूप।।2।।

-

कथं शीलं कुल किं कः सम्बन्धः का च योग्यता।

इति सर्व विचार्यैव कर्तव्यो मित्रसंग्रहः।।3।।

जिस मनुष्य को तुम अपना मित्र बनाना चाहते हो उसके कुल का, उसके गुणदोषों का, कौन-2 लोग उसके साथी हैं और किन किनके साथ उसका संबंध है इन बातों का अच्छी तरह से विचार कर लो और उसके पश्चात् यदि वह योग्य हो तो उसे मित्र बना लो।

पद्य अनुवाद -

कैसा कुल, कैसी प्रकृति, किन किन से सम्बन्ध?

देखो उसकी योग्यता, यही प्रीति अनुबन्ध।।3।।

-

प्रसूतिर्यस्य सद्वंशे कुकीर्तेश्च विभेति यः।

मूल्यं दत्त्वापि तेनामा कर्तव्या खलु मित्रता।।4।।

जिस पुरुष का जन्म उच्च कुल में हुआ है और जो अपयश से डरता है उसके साथ, आवश्यकता पड़े तो मूल्य देकर भी मित्रता करनी चाहिए।

पद्य अनुवाद -

जन्मा हो वर-वंश में, और जिसे अघभीति।

देकर के कुछ मूल्य भी, करलो उससे प्रीति।।4।।

-

अन्विष्यापि समं तेन मैत्री कार्या विपश्चिता।

सुमार्गाच्चलितं मित्रं यो भर्त्सयति नीतिवित्।।5।।

ऐसे लोगों को खोजो और उनके साथ मित्रता करो कि जो सन्मार्ग को जानते हैं और तुम्हारे बहक जाने पर तुम्हें झिड़क कर तुम्हारी भर्त्सना कर सकें।

पद्य अनुवाद -

झिड़क सके जो चूक पर, जाने शुभ आचार।

ऐसे नर की मित्रता, खोजो सर्वप्रकार।।5।।

-

विपत्स्वपि महानेकः सुगुणः सर्वसम्मतः।

यदापन्मानदण्डेन ज्ञायते मित्रसंस्थितिः।।6।।

आपत्ति में एक गुण है - वह एक नापदण्ड है जिससे तुम अपने मित्रों को नाप सकते हो।

पद्य अनुवाद -

विपदा में माना हुआ, गुण है एक अनूप।

विपदा जैसा नापगज, नापे मित्र स्वरूप।।6।।

-

अस्मिन्नेवास्ति कल्याणं नराणां सौख्यवर्द्धनम्।

यन्मूर्खस्य सदा हेया मैत्री दुर्गतिकारिणी।।7।।

निस्सन्देह मनुष्य का लाभ इसी में है कि वह मूर्खों से मित्रता न करे।

पद्य अनुवाद -

इसमें ही कल्याण है, हे नर तेरा आप।

मत कर मैत्री मूर्ख से, दुर्गति को जो शाप।।7।।

-

औदासीन्यनिरुत्साहभृता हेया विचारकाः।

बन्धुता सापि हातव्या विपत्तौ या पराङ्मुखी।।8।।

ऐसे विचारों को मत आने दो जिनसे मन निरुत्साह तथा उदास हो और न ऐसे लोगों से मित्रता करो कि जो दुःख पड़ते ही तुम्हारा साथ छोड़ देंगे।

पद्य अनुवाद -

निरुत्साह औदास्य के, करो न कभी विचार।

और तजो दे बन्धु जो, दुःख समय निस्सार।।8।।

-

सम्पत्तौ सह संवृद्धा विपत्तौ ये च मायिनः।

मैत्रीस्मृतिर्हि तेषान्नु मृत्युकालेऽपि दाहदा।।9।।

जो लोग संकट के समय धोखा दे सकते हैं उनकी मित्रता की स्मृति मृत्यु के समय भी हृदय में दाह पैदा करती है।

पद्य अनुवाद -

सब सुख भोगे साथ पर, दुःख समय छलनीति।

मृत्यु समय भी दाह दे, ऐसे शठ की प्रीति।।9।।

-

विशुद्धहृदयैरायैः सह मैत्रीं विधेहि वै।

उपयाचितदानेन मुंचस्वानार्यमित्रताम्।।10।।

पवित्र लोगों के साथ बड़े चाव से मित्रता करो, लेकिन जो अयोग्य हैं उनका साथ छोड़ दो, इसके लिए चाहे तुम्हें कुछ भेंट भी देना पड़े।

पद्य अनुवाद -

शुद्धहृदय के आर्य से, करलो मैत्री आर्य।

तज दो मैत्री भेंट धर, यदि झे मित्र अनार्य।।10।।

क्रमशः

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने वाला लगा हो तो कृपया comment के द्वारा अपने विचारों से अवगत करवाएं और दूसरे लोग भी प्रेरणा ले सकें इसलिए अधिक-से-अधिक share करें।

धन्यवाद।

--

सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

🙏🙏🙏

Comments

Popular posts from this blog

बालक और राजा का धैर्य

चौबोली रानी (भाग - 24)

सती नर्मदा सुंदरी की कहानी (भाग - 2)

सती कुसुम श्री (भाग - 11)

हम अपने बारे में दूसरे व्यक्ति की नैगेटिव सोच को पोजिटिव सोच में कैसे बदल सकते हैं?

मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 18 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश

जैन धर्म के 24 तीर्थंकर व उनके चिह्न

बारह भावना (1 - अथिर भावना)

रानी पद्मावती की कहानी (भाग - 4)

चौबोली रानी (भाग - 28)