सती विशल्या की कहानी

सती विशल्या की कहानी

राजा द्रोणमेघ भरत क्षेत्र के अयोध्या नगर में राज्य करते थे। सती अनंगसरा का जीव तीसरे स्वर्ग से चलकर राजा के यहाँ ‘विशल्या’ नामक पुत्री के रूप में उत्पन्न हुआ। विशल्या बहुत गुणवती थी। उसके समान तीन लोक में अन्य कोई सुगंधित शरीर सहित नहीं थी। वह अनेक गुणों की खान और अत्यन्त रूपवान थी। पूर्व भव में वन में किए हुए तप के प्रभाव से उसे महापवित्र शरीर मिला था। उसने पूर्व भव में अजगर को अभय दान दिया था। यह उसी का फल था कि उसके स्नान के जल से सभी रोग दूर होकर शांत हो जाते थे। उपसर्ग सहने से और महा तप करने से उसने यह फल पाया कि उसके स्नान के जल से सारे वायु विकार से संबंधित रोग भी नष्ट हो जाते थे।

एक समय की बात है। हस्तिनापुर में एक महाधनवान ‘विंध्य’ नाम का व्यापारी आया। वह गधा, ऊँट, भैंसा आदि पर अपना सामान लादकर व्यापार किया करता था। ग्यारह महीने पहले वह अयोध्या में आया और फिर वहीं रह गया। उसने अपना व्यापार इतना बढ़ा लिया कि भैंसा के ऊपर ज्यादा बोझ लादने के कारण भैंसा घायल हो गया जो तीव्र वेदना से मरण को प्राप्त हो गया।

वह भैंसा अकाम निर्जरा के कारण मरण करने से ‘अश्वकेतु’ नाम का वायुविकार देव हुआ। उसने अवधि ज्ञान से अपने पूर्व भव को जाना कि मैं पूर्व भव में भैंसा था। मेरी पीठ पर ज्यादा बोझ रखने से मेरी पीठ घायल हो गई थी और मैं रोग ग्रस्त हो गया था। मैं एक दिन कीचड़ में फंस गया था तो सभी लोग मेरे सिर पर से इधर-उधर आते-जाते थे। अब मैं देव बन गया हूँ, तो सबसे बदला लूँगा। अपनी इस देव पर्याय का लाभ उठाऊँगा। उसने अयोध्या नगरी में अनेक रोग फैला दिए। ये सभी रोग सती विशल्या के स्नान के जल के प्रभाव से नष्ट हुए।

इसी तरह अयोध्या में एक देवगति नाम का नगर था। वहां के राजा शशिमंडल और रानी सुप्रभा का पुत्र ‘चंद्रप्रीतम’ था। एक दिन चंद्रप्रीतम आकाश में भ्रमण कर रहा था कि उसे ‘सहस्रविजय’ मिल गया। वह राजा बेलअध्यक्ष का पुत्र था। वह उसका शत्रु बन गया था क्योंकि उसने उसकी पसंद की हुई राजकुमारी से विवाह कर लिया था। दोनों में महायुद्ध हो गया। तब सहस्रविजय ने ‘चंडरवा’ नाम की शक्ति चंद्रप्रीतम पर लगाई। वह आकाश से अयोध्या के राजा द्रोणमेघ के उद्यान में गिर पड़ा, जिसे राजा द्रोणमेघ ने देख लिया। महादयावान राजा द्रोणमेघ ने शक्ति की चोट से घायल हुआ जान कर उसके वक्ष स्थल पर चंदन का लेप लगाया और सती विशल्या के स्नान का जल लगाया। तब वह शक्ति निकल कर भाग गई और चंद्रप्रीतम पहले से भी अधिक सुंदर हो गया। वह राजा द्रोणमेघ की जय जयकार करने लगा और बोला कि आपने मुझे नया जन्म दिया है, जिससे कि मुझे आपके दर्शन प्राप्त हुए।

उधर जब राम और रावण का युद्ध चल रहा था, तब लक्ष्मण को ‘अमोघविजय’ नाम की शक्ति लग गई, जिसके कारण वह मूर्छित हो गए। यह शक्ति तीन लोक में प्रसिद्ध है। इसके बारे में कहा जाता है कि एक बार कैलाश पर्वत पर बाली मुनिराज प्रतिमा धारण कर विराजे हुए थे। उन्होंने प्रतिज्ञा ली थी कि देव-शास्त्र-गुरु को ही नमस्कार करूँगा। दशानन के आगे सर नहीं झुकाऊँगा। दशानन ने मुनि बाली की बहन से विवाह कर लिया ताकि वह सर झुकाए। मुनि बाली ने सुग्रीव को राज्य सौंप कर मुनि दीक्षा धारण कर ली थी। जब मुनि बाली कैलाश पर्वत पर तप कर रहे थे तो दशानन का विमान ऊपर से जाते समय आगे नहीं बढ़ सका और वहीं रुक गया। रावण ने बाली को देखा और उसकी तपस्या भंग करने के लिए कैलाश पर्वत को उठा लिया। तब मुनि बाली ने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया। जब दशानन दबने लगा तो रानी मंदोदरी ने मुनि बाली से क्षमा मांगी। दशानन रोने लगा तो सब उसे रोनू कहने लगे। तब से उसका नाम ‘रावण’ पड़ गया।

एक दिन रावण भगवान शांतिनाथ के चैत्यालय में भक्ति कर रहा था। जब भक्ति करते हुए वीणा का तार टूट गया तो रावण ने अपने हाथ की नस निकाल कर वीणा में लगा दी और वीणा बजाई। इतनी भक्ति की और जिनेंद्र शांतिनाथ भगवान के इतने गुण गाए कि धरणेन्द्र का आसन कंपायमान हो गया और धरणेन्द्र ने प्रसन्न होकर वह शक्ति दशानन को दे दी और कहा कि यह शक्ति जिसे भी लगेगी उसके प्राण नष्ट कर देगी, परंतु एक ‘विशल्या’ महासती को छोड़कर क्योंकि विशल्या ने पूर्व जन्म में महा तप किया है जो मुनियों से भी नहीं हो सकता।

धन्य है सती विशल्या, जिसके रूप, साहस, धर्म में दृढ़ श्रद्धा और तप का मुकाबला अन्य कोई स्त्री करने में समर्थ नहीं है।

विद्याधर चंद्रप्रीतम ने रामचंद्र जी के पास जाकर उनको ये सारी बातें बताई कि वह किस तरह शक्ति से बच पाया है। तब रामचंद्र जी ने उससे पूछा कि यह पवित्र जल कहाँ से आएगा, तब उसने बताया कि यह जल विशल्या महासती के स्नान का है जो कि अयोध्या के राजा द्रोणमेघ की पुत्री है। उस सती के स्नान के जल से सारे रोग व शक्तियां नष्ट हो जाती हैं। वह महा गुणवान है। उसके समान तीन लोक में अन्य कोई सुगंधित शरीर वाली और रूपवती, गुणवती स्त्री नहीं है। पूर्व भव में किए हुए तप के प्रभाव से महापवित्र शरीर मिला है।

तब रामचंद्र जी ने कहा कि इस महासती विशल्या के स्नान का जल अति शीघ्र मंगाओ। लक्ष्मण को लगी शक्ति एवं मूर्च्छा दूर करने का यही एक उपाय है और कोई नहीं। विद्याधर चंद्रप्रीतम, हनुमान और भामंडल (सीता के भाई) आदि अयोध्या में राजा द्रोणमेघ के राज भवन में गए। वहां उन्हें सारा वृतान्त सुना दिया कि कैसे रावण सीता को हर कर लंका ले गया है और युद्ध के दौरान लक्ष्मण को अमोघ विजय नामक शक्ति लगी है। वह मूर्छित हो गए हैं।

राजा द्रोणमेघ ने जब यह सुना तो वह युद्ध के लिए तैयार हो गए और सेना को भी युद्ध की तैयारी के लिए घोषणा कर दी। तब हनुमान ने बताया कि लंका नगरी यहां से बहुत दूर है। इतना समय नहीं है क्योंकि सूर्यास्त होने से पहले उन्हें लक्ष्मण के पास पहुंचना है। लंका नगरी के बीच में एक बहुत बड़ा समुद्र भी है।

द्रोणमेघ ने कहा कि हमें क्या करना चाहिए?

तब हनुमान ने कहा कि महासती विशल्या के स्नान का जल जल्दी से दे दो। यदि सूर्यास्त हो गया तो लक्ष्मण का जीवित रहना कठिन है।

द्रोणमेघ ने कहा - जल क्या, आप विशल्या को ही ले जाओ, क्योंकि मुनिराज ने कहा था कि पुनर्वसु का जीव, जो स्वर्ग में देव हुआ है और वहां से चलकर ‘लक्ष्मण’ हुआ है और इस भव में लक्ष्मण और विशल्या का विवाह होगा।

थोड़ी देर बाद हनुमान, अंगद आदि विशल्या और उसके साथ 1000 से अधिक राज कन्याएं लेकर विमान से चले गए।

जैसे ही विमान राम के कटक में प्रवेश करने लगा, वैसे ही लक्ष्मण की मूर्च्छा दूर होने लगी। कटक में पहुंचकर राजकुमारी विशल्या ने रामचंद्र जी के चरणों में नमस्कार किया और सखियों के कहने पर लक्ष्मण के समीप बैठी। पूर्णिमा के चंद्रमा के समान सुन्दर मुख वाली राजकुमारी विशल्या ने लक्ष्मण के चरणों के निकट बैठकर अपने कोमल हाथों से चंदन का लेप कर लक्ष्मण के शरीर पर लगाया और अपने स्नान के जल से लक्ष्मण के शरीर को नहलाया तो वह शक्ति देवरूपी होकर लक्ष्मण के शरीर से निकल गई।

जब वह शक्ति निकली तो उसे हनुमान ने पकड़ लिया। वह दिव्य शक्ति देवांगना थी। तब उस शक्ति ने हनुमान जी से हाथ जोड़कर कहा कि हे नाथ! यदि मुझसे प्रसन्न हो तो मेरा अपराध क्षमा कर दो। हमारी यही रीति है कि जो हमारी साधना करता है, हम उसके वश में हो जाते हैं। तब हनुमान ने उसे छोड़ दिया।

सभी राज कन्याओं ने राजकुमारी विशल्या के स्नान का जल सभी मूर्छित सैनिकों, राजाओं, विद्याधर आदि पर छिड़का तो सब अच्छे हो गए। इंद्रजीत, कुंभकरण, मेघनाद आदि भी मूर्छित हो गए थे। उन्हें भी उसके स्नान का जल छिड़क कर ठीक कर दिया। सारी सेना, हाथी, घोड़े सब अच्छे हो गए।

लक्ष्मण ने आंखें खोली और उठकर अपने भाई रामचंद्र जी के गले मिला। रामचंद्र जी ने कहा - हे लक्ष्मण! यह राजा द्रोणमेघ की पुत्री महासती विशल्या है। इनके स्नान के जल से तुम्हारी मूर्च्छा दूर हो गई है। रामचन्द्र जी ने सारा वृतान्त लक्ष्मण को सुना दिया। लक्ष्मण ने विशल्या को अनुराग की दृष्टि से देखा। उसे ज्ञात हो आया कि मैंने पूर्व भव में विशल्या से विवाह करने का निदान बांधा था जो उस समय अनंगसरा थी। वही इस जन्म में विशल्या के रूप में उसे प्राप्त हुई है। कुछ समय बाद लक्ष्मण और विशल्या का बड़ी धूमधाम से विवाह हो गया।

अहंकार हटाने को चिराग चाहिए,

वीर जैसे बनने को त्याग चाहिए।

सोई हुई आत्मा को जगाने के लिए,

गुरुवर प्रज्ञा सागर जैसा वैराग्य चाहिए।।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने वाला लगा हो तो कृपया comment के द्वारा अपने विचारों से अवगत करवाएं और दूसरे लोग भी प्रेरणा ले सकें इसलिए अधिक-से-अधिक share करें।

धन्यवाद।

--

सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

🙏🙏🙏

Comments

Popular posts from this blog

बालक और राजा का धैर्य

चौबोली रानी (भाग - 24)

सती नर्मदा सुंदरी की कहानी (भाग - 2)

सती कुसुम श्री (भाग - 11)

हम अपने बारे में दूसरे व्यक्ति की नैगेटिव सोच को पोजिटिव सोच में कैसे बदल सकते हैं?

मुनि श्री 108 विशोक सागर जी महाराज के 18 अक्टूबर, 2022 के प्रवचन का सारांश

जैन धर्म के 24 तीर्थंकर व उनके चिह्न

बारह भावना (1 - अथिर भावना)

रानी पद्मावती की कहानी (भाग - 4)

चौबोली रानी (भाग - 28)