कुरल काव्य भाग - 92 (वेश्या)

तमिल भाषा का महान ग्रंथ

कुरल काव्य भाग - 92

वेश्या

मूल लेखक - श्री ऐलाचार्य जी

पद्यानुवाद एवं टीकाकार - विद्याभूषण पं० श्री गोविन्दराय जैन शास्त्री

महरोनी जिला ललितपुर (म. प्र.)

आचार्य तिरुवल्लस्वामी ने कुरल काव्य जैसे महान ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने सभी जीवों की आत्मा का उद्धार करने के लिए, आत्मा की उन्नति के लिए कल्याणकारी, हितकारी, श्रेयस्कर उपदेश दिया है। ‘कुरल काव्य’ तमिल भाषा का काव्य ग्रंथ है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके रचयिता श्री एलाचार्य जी हैं जिनका अपर नाम कुंदकुंद आचार्य है, लेकिन कुछ लोग इस ग्रंथ को आचार्य तिरुवल्लुवर द्वारा रचित मानते हैं। यह मानवीय आचरण की पद्धति का बोधगम्य दिग्दर्शन देने वाला, सर्वाधिक लोकोत्तर ग्रंथ है। अपने युग के श्रेष्ठतम साहित्यकार विद्वान पंडित श्री गोविंदराय शास्त्री ने इस ग्रंथ का तमिल भाषा लिपि से संस्कृत भाषा एवं हिंदी पद्य गद्य रूप में रचना कर जनमानस का महान उपकार किया है।

परिच्छेद: 92

वेश्या

धनाय नानुरागाय नरेभ्यः स्पृहयन्ति याः।

तासां मृषाप्रियालापाः केवलं दुःखहेतवः।।1।।

जो स्त्रियाँ प्रेम के लिए नहीं, बल्कि धन के लोभ से किसी पुरुष की कामना करती हैं, उनकी मायापूर्ण मीठी बातें सुनने से दुःख ही दुःख होता है।

पद्य अनुवाद -

जिन्हें न नर से प्रेम है, धन से ही अनुकूल।

कपट मधुर उनके वचन, बनते विपदा-मूल।।1।।

-

वदन्ति मधुरा वाचः परं ध्यानं धनागमे।

वण्यस्त्रीणां मनोभावं ज्ञात्वैवं भव दूरगः।।2।।

जो दुष्ट स्त्रियाँ मधुमयी वाणी बोलती हैं, पर जिनका ध्यान अपने नफे पर रहता है, उनकी चाल-ढाल को विचार कर उनसे सदा दूर रहो।

पद्य अनुवाद -

वेश्या मधुसम बोलती, धन की आय विचार।

चाल ढाल उसकी समझ, दूर रहो यह सार।।2।।

-

कपटप्रणयं धूर्ता दर्शयन्ती मुहुर्मुहुः।

विलासिनी महावित्तमालिंगत्युरसा विटम्।।

परं तस्य समाश्लेषस्तथा तस्या वभाति सः।

कुविष्टिर्वै यथाऽज्ञातं स्पृशेत् संतमसे शवम्।।3।। (युग्म)

वेश्या जब अपने प्रेमी का दृढ़-आलिंगन करती है, तो वह ऊपर से यह प्रदर्शन करती है कि वह उससे प्रेम करती है परन्तु मन में तो उसे ऐसा अनुभव होता है जैसे कोई बेगारी अन्धेरे कमरे में किसी अज्ञात लाश को छूता है।

पद्य अनुवाद -

गणिका उर से भेंटती, धनिक देख निज जार।

ऊपर से कर धूर्तता, दिखलाती अति प्यार।

लगे उसे पर चित्त में, प्रेमी की यह देह।

बेगारी तम में छुए, ज्यों कोई मृतदेह।।3।।

-

विशुद्धकार्यसंलग्नाः सद्व्रताः पुरुषोत्तमाः।

कलंकितं न कुर्वन्ति निजांगं वारयोषिता।।4।।

जिन लोगों के मन का झुकाव पवित्र कार्यों की ओर है, वे असती स्त्रियों के स्पर्श से अपने शरीर को कलंकित नहीं करते।

पद्य अनुवाद -

व्रतभूषित नररत्न जो, होते मन्द-कषाय।

करें न वेश्यासंग से, दूषित वे निज काय।।4।।

-

येषामगाधपाण्डित्यं बुद्धिश्चापि सुनिर्मला।

रूपाजीवांगसंस्पर्शान मलिना न भवन्ति ते।।5।।

जिन लोगों की बुद्धि निर्मल है और जिनमें अगाध ज्ञान है, वे उन औरतों के स्पर्श से अपने को अपवित्र नहीं करते कि जिनका सौन्दर्य और लावण्य सब लोगों के लिए खुला है।

पद्य अनुवाद -

जिनके ज्ञान अगाध है, अथवा निर्मल बुद्धि।

रूप-हाट से वे कभी, लेते नहीं अशुद्धि।।5।।

-

न गृह्णन्ति करं तस्या जना स्वहितकारिणः।

विक्रीणाति निजं रूपं स्वैरिणी यातिचंचला।।6।।

जिनको अपने कल्याण की चाह है वे स्वैरिणी गणिका का हाथ नहीं छूते कि जो अपनी अपवित्र सुन्दरता को बेचती फिरती है।

पद्य अनुवाद -

रूप अपावन बेचती, वेश्या चपल अपार।

छुएँ ने उसका हाथ वे, जो हैं निजहितकार।।6।।

-

अन्वेषयन्ति तां भुक्तामज्ञा एव पृथग् जनाः।

देहेन स्वजते किन्तु रमतेऽन्यत्र तन्मनः।।7।।

जो ओछी तबियत के आदमी हैं वे ही उन स्त्रियों को खोजेंगे कि जो केवल शरीर से आलिंगन करती हैं, जबकि उनका मन दूसरी जगह रहता है।

पद्य अनुवाद -

खोजें असती नारियाँ, नर ही अधम जघन्य।

गले लगाती एक वे, सोचें मन से अन्य।।7।।

-

येषां विमर्शशून्याधीर्मन्यन्ते ते हि लम्पटाः।

स्वर्वध्वा इव वेश्यायाः परिष्वंगं सुधामयम्।।8।।

जिनमें सोचने समझने की बुद्धि नहीं है उनके लिए चालाक कामिनियों का आलिंगन ही अप्सराओं की मोहिनी के समान है।

पद्य अनुवाद -

अविवेकी गुनते यही, पाकर वेश्या संग।

स्वर्गसुधा सी अप्सरा, मानो लिपटी अंग।।8।।

-

गणिका कृतशृंगारा नूनं निरयसन्निभा।

तत्प्रणालश्च तद्बाहुर्यत्र मज्जन्ति कामिनः।।9।।

भरपूर साज-सिंगार किये और बनी-ठनी स्वैरिणी के कोमल बाहु नरक की अपवित्र नाली के समान हैं जिसमें घृणित मूर्ख लोग अपने को जा डुबोते हैं।

पद्य अनुवाद -

बनी ठनी शृंगार से, वेश्या नरक समान।

नाले जिसके बाहु हैं, डूबें कामी आन।।9।।

-

दुरोदरं सुरापानं बहुसक्ता नितम्बिनी।

भाग्यं येषां विपर्यस्तं तेषामानन्दहेतवः।।10।।

चंचल मन वाली स्त्री, मद्यपान और जुआ, ये उन्हीं के लिए आनन्द वर्द्धक हैं कि जिन्हें भाग्य-लक्ष्मी छोड़ देती है।

पद्य अनुवाद -

द्यूतचाट वेश्यागमन, और सुरा का पान।

भाग्यश्री जिनकी हटी, उनके सुख सामान।।10।।

क्रमशः

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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