सती रोहिणी की कथा (भाग - 1)
सती रोहिणी की कथा (भाग - 1)
पाटलिपुत्र नगर में वहाँ के धनवान सेठ धन्ना रहते थे। वे व्यापारी वर्ग के लिए बहुत उदार थे। वे सबको सहारा देते थे। जब अनेक व्यापारियों का व्यापार चौपट हो गया, तब सेठ धन्ना ने उन्हें पूंजी देकर उनका सहयोग किया। उन सब का व्यापार फिर से चलने लगा। नगर सेठ धन्ना व्यापारी वर्ग के सच्चे साथी थे। निर्धन जनों को वे बहुत सहायता देते थे। प्रतिभावान छात्रों, विधवा स्त्रियों, अपाहिजों आदि को दान देते, पाठशालाएं, भोजगृह, अतिथि गृह आदि खुलवाते थे। सेठ साहूकारों और व्यापारियों के कारण गंगा तट पर बसा पाटलिपुत्र बहुत समृद्ध नगर था।
वहां के राजा श्रीनंद थे। राजा के कहते ही व्यापारी राजा का कोष भर देते थे। इन्हीं से उनके नगर की शोभा बनी हुई थी। नगर सेठ धन्ना की सेठानी का नाम रोहिणी था। रोहिणी परम रूपवती, पतिव्रता और धर्म निष्ठ थी। पति-पत्नी में बहुत प्रेम था। घर में दास-दासियां, रथ आदि वाहन, सुन्दर भव्य भवन और रजत स्वर्ण के पात्र आदि सब सुख-सुविधाएँ थी।
एक बार सेठ जी ने सेठानी रोहिणी को कहा कि हमारे नगर के रतनचंद्र, सागरदत्त आदि सेठ बाहर विदेश में व्यापार करने के लिए जा रहे हैं। यदि तुम कहो तो मैं भी चला जाऊं।
पति की इच्छा सोच कर सेठानी रोहिणी ने कहा - स्वामी! आपको जाना ही चाहिए। हमारे मुनीम आदि सभी विश्वासपात्र हैं। पर कभी-कभी अपना व्यापार का काम स्वयं भी करना चाहिए।
सेठ धन्ना ने कहा - प्रिये! यह तुम कह रही हो! क्या तुम्हें मेरे बिना अच्छा लगेगा?
रोहिणी सेठानी ने कहा - स्वामी! यदि मेरा इतना ख्याल है तो जल्दी लौट आना। कई बार ऐसे वियोग से भी आपस में प्रीति बढ़ जाती है।
इससे सेठ धन्ना बहुत खुश हुआ। वह बोला - हाँ प्रिये! मैं डेढ़ वर्ष में लौट आऊंगा। तुम जाने की सब तैयारी करवाओ। आठ दिन में जाना है।
शुभ मुहूर्त में सेठ धन्ना ने विदेश को प्रस्थान किया। उसके जाने के बाद रोहिणी सेठानी ने सब शृंगार त्याग दिए। रेशमी वस्त्र, रत्न जड़ित आभूषण आदि पहनने छोड़ दिए। केशों में सुगंधित तेल लगाना और वेणी गूंथना भी छोड़ दिया। सेठानी रोहिणी साध्वी की तरह रहने लगी।
एक दिन उसकी दासी ने पूछा - स्वामिनी! लोक में बड़ी-बूढ़ी ऐसा कहती हैं कि सुहागवती स्त्री को सब श्रृंगार करने चाहिए। क्या वह ठीक नहीं कहती?
रोहिणी ने कहा - शृंगार दो तरह का होता है। एक ऐसा कि जिससे यह पता चले कि स्त्री विधवा है या सधवा और दूसरा श्रृंगार अपने पति को प्रसन्न करने के लिए होता है। लोक में यह भी कहते हैं कि भोजन अपनी पसंद का करें और कपड़े दूसरे की पसंद के पहनें। जिसके पति परदेश में हों, उसे शृंगार नहीं करना चाहिए। मेरा शृंगार देखने वाले यहाँ होते, तो उनके लिए मैं मंगलसूत्र आदि सब कुछ पहनती और शृंगार करती।
दासी ने कहा - मैं समझ गई, स्वामिनी! आपकी बातें बहुत अच्छी हैं।
पाटलिपुत्र के राजा के राजोद्यान में एक सार्वजनिक उद्यान भी था, जो सभी के लिए खुला था। यह उपवन कई कोस में फैला हुआ था। इस उद्यान में सभी तरह के वृक्ष थे। फल-फूल और शीतल छाया वाले लता कुंज बहुत ही रमणीय थे। इस उद्यान में बहुत दूर तक फैला हुआ हरा-भरा घास का मैदान था, जिसके बीच में आड़ी-तिरछी पगडंडिया और बड़े मार्ग भी थे। बड़े मार्ग पर वाहन चलते थे और पगडंडियों पर पैदल पथिक चलते थे। जल से भरे हुए जल कुंड थे जिनमें कमल खिले रहते थे। बैठने के लिए मैदान में लाल पत्थर के शिलाखंड थे। सुबह और शाम नगर के सैंकड़ों नर-नारियाँ इसमें भ्रमण करने आते थे।
राजा श्रीनंद भी आते थे, कभी अकेले और कभी रानियों के साथ। यह राजोद्यान सार्वजनिक था, फिर भी इसका एक द्वार राजा के लिए था और एक विशेष भाग भी राजा के लिए नियत था। हर दिशा में प्रवेश करने के लिए इस राजोद्यान के बाहर बड़े-बड़े द्वार थे और कई छोटे-छोटे द्वार थे। उद्यान में हिरण, खरगोश, मोर आदि अनेक पशु-पक्षी रहते थे।
प्रभात का सुहाना समय था। शीतल मंद सुगंधित हवा बह रही थी। राजा उद्यान में भ्रमण के लिए आए और सेठानी रोहिणी भी उद्यान में घूमने के लिए आई थी। वह अपनी दासी के साथ एक शिलाखंड पर बैठी थी। उसी समय राजा श्रीनंद उद्यान क्षेत्र की ओर जा रहे थे। उन्हें आया जानकर सब खड़े हो गए और अपना नाम ले लेकर अभिवादन करने लगे।
राजा श्रीनंद सबके सामने एक क्षण रुककर प्रजाजनों का अभिवादन लेते हुए आगे बढ़ते गए।
राजा सेठानी रोहिणी के सामने रुक गए। रोहिणी ने उनका अभिवादन किया और दासी ने कहा - श्रीमान्! नगर सेठ धन्ना की सेठानी रोहिणी अन्नदाता को प्रणाम करती है।
राजा ने कहा - ओह! नगर सेठ धन्ना! वह तो हमारे नगर के गौरव हैं। यह कहकर राजा श्रीनंद अंगरक्षकों सहित आगे बढ़ गए और जल कुंड के पास बैठ गए।
आज राजा श्रीनंद के मन में रोहिणी सेठानी के रूप ने खलबली मचा दी थी। राजा श्रीनंद राजभवन आए और राजसभा में भी गये पर आज उनका मन ही नहीं लग रहा था। राजा श्रीनंद ने आज जल्दी ही सभा विसर्जित कर दी और अपने कक्ष में जा बैठे। एक और उन्हें अपनी बदनामी का डर था और दूसरी और रोहिणी को पाये बिना भी रह नहीं सकते थे।
राजा श्रीनंद एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे, जो अपनी प्रजा को अपनी संतान की तरह मानते थे। पर आखिर मनुष्य के भावों को गिरते देर नहीं लगती। वह यह भूल गये कि रोहिणी सेठानी मेरी प्रजापुत्री की तरह है और परनारी है। उन्होंने तो यह निश्चय कर लिया कि रोहिणी को अपनी पटरानी बनाऊंगा।
राजा श्रीनंद ने अपनी एक दासी को बुलाया और उससे कहा - अर्चना! तुझे एक बात कहूं? अन्य किसी से मत कहना।
दासी अर्चना ने पलकें झुका कर कहा - अन्नदाता! जिस दिन आपकी बात मेरे मुँह से निकल जाए, उस दिन मेरा सिर धड़ से अलग कर देना।
राजा ने कहा - तू बहुत अच्छी है, अर्चना! तुम्हें मेरा एक काम करना होगा। यहाँ नगर सेठ धन्ना की एक हवेली है। हवेली में नगर सेठ की पत्नी रोहिणी को मेरा प्रेम संदेश देना और यह अंगूठी भी।
मैं समझ गई, अन्नदाता!
अर्चना ने अंगूठी को उलट-पलट कर देखा और कहा - आपका नमक खाया है, अन्नदाता! यह दासी आपका काम बनाकर ही लौटेगी।
संध्या का समय था। राजा की दासी अर्चना सेठानी के पास पहुंची और उसकी अंगुली में अंगूठी पहनाते हुए बोली - श्रीनंद महाराज ने अपनी यह भेंट आपको भेजी है। उनका यह संदेश है कि वह आपके दास बनना चाहते हैं। उनकी प्रेम-प्रार्थना स्वीकार कीजिए।
दासी की बातें सुनकर रोहिणी ने कुछ क्षण सोचा और दूसरे ही क्षण में कुछ सोच कर मुस्कुराई। उसने अंगूठी स्वीकार कर ली और कहा - उन्हें रात को मेरे घर भेजना। मैं उनका सम्मान पूर्ण स्वागत करूंगी।
अर्चना खुश होती हुई राजा श्रीनंद के पास पहुंची और रोहिणी की बात सुनाई। राजा ने एक कीमती हार दासी को ईनाम में दिया और बड़ी बेताबी से रात होने की प्रतीक्षा करने लगा। उसने सोचा कि प्रजा का सुख-दुःख जानने के लिए मैं रोज़ वेश बदलकर रात को नगर का भ्रमण करता हूं। यही समय रोहिणी के यहां जाने का ठीक रहेगा।
क्रमशः
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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