सती रोहिणी की कथा (भाग - 2)

सती रोहिणी की कथा (भाग - 2)

सेठानी रोहिणी ने राजा के स्वागत की तैयारी शुरू की। दासियों ने स्वागत कक्ष को खूब सजाया और सेठानी ने राजा के लिए अपने हाथ से भोजन बनाया। उसने 32 प्रकार के व्यंजन तैयार किए, पर स्वाद सबका एक ही था। रात हुई, रोहिणी राजा श्रीनंद की प्रतीक्षा करने लगी।

राजा आया, रोहिणी ने आदर के साथ उसे स्वर्ण मंडित सुखासन पर बैठाया।

बैठते ही राजा ने कहा - तुम कितनी सुंदर हो! उससे भी ज्यादा समझदार हो, रोहिणी! तुम नगर सेठ की पत्नी हो, पर तुम्हें मैं अपनी पटरानी बनाऊंगा। मेरी सभी रानियाँ तुम्हारी दासी होंगी। राजा बोला - मैं तुम्हारा दास हूं। तुम जैसी सुंदरी का दास बनना देवराज इंद्र का भी सौभाग्य होगा, मैं तो नगर का केवल एक राजा हूं। मेरा भी सौभाग्य कम नहीं है।

रोहिणी ने कहा - इन बातों के लिए पूरी रात पड़ी है। आप पहले भोजन कीजिए।

राजा ने चौंक कर कहा - यह भी कोई भोजन का समय है? हम सब जैन धर्म के अनुयायी हैं। क्या तुम रात्रि भोजन को निषेध नहीं मानती?

रोहिणी ने कहा - इस समय तो हम दोनों प्रेम धर्म के अनुयायी हैं। प्रेम में सब उचित होता है। मैंने प्रेम से आपके लिए 32 प्रकार के व्यंजन बनाए हैं।

राजा बोला - तुम कहती हो तो खा लेते हैं। प्रेम में नियम नहीं चलता।

रोहिणी ने श्रीनंद को भोजन परोसा। एक बड़े थाल में सोने की 32 कटोरियां थी। राजा ने बहुत अच्छी तरह भोजन खाया। भोजन के बाद बातें शुरू हुई। बातों में ही रात बीत गई। राजा संतुष्ट होकर राजभवन लौट आया। इसके बाद राजा श्रीनंद रोहिणी के पास कभी नहीं आया।

एक दिन नगर सेठ धन्ना विदेश से लौट आए। 1 साल के बाद आए थे और काफी धन कमा कर लाए थे। रोहिणी ने उनकी आरती उतारी। पति के दर्शनों से वह कदम्ब पुष्प की भांति खिल उठी। अपना सादा वेश त्याग कर रोहिणी ने 16 शृंगार किया। ऐसी सन्नारी को पाकर सेठ धन्ना बहुत खुश थे।

राजा श्रीनंद की बात रोहिणी ने अपने पति को नहीं बताई। पर गंध कभी छिपती नहीं है, चाहे सुगन्ध हो या दुर्गन्ध। दास दासियों ने नगर सेठ को बता दिया कि आपके पीछे से राजा श्रीनंद एक रात को यहाँ आये थे। रोहिणी ने उनका स्वागत किया था और अपने हाथों से भोजन खिलाया था और राजा खुश होकर अपने घर गया था और दासियों ने कहा कि रोहिणी पथभ्रष्टा है।

नगर सेठ को अपनी पत्नी पर शक हो गया। उसे अपनी पत्नी से घृणा हो गई और वह उससे कटा-कटा रहने लगा। कभी मन में आता कि रोहिणी को घर से निकाल दूँ और कहूं कि राजा के घर में ही रह ले। कभी सोचता कि मैं घर छोड़कर वन में चला जाऊं। कभी सोचता कि यह सब करना राजा से दुश्मनी मोल लेना है। मैं रोहिणी से ही कोई मतलब नहीं रखूंगा। नगर सेठ रोहिणी से कोई प्रेम भाव नहीं रखने लगा। उससे बहुत कम बोलता।

पति की उपेक्षा पत्नी को सहन नहीं होती। रोहिणी बहुत दुःखी रहती थी। भाग्य जब विपरीत हो, तो मनुष्य कर भी क्या सकता है। वह सोचती कि मेरे अशुभकर्मों का उदय हुआ है। इसके परिणाम को समता भाव से सहना चाहिए।

समय बीता, गर्मियां आई। गर्मियां बीती, वर्षा आई। पहले दिन पानी पड़ा, तो सभी जीव खुश हुए। नालियों में पानी बहने लगा। प्रकृति में निखार आ गया। लेकिन पानी ने ऐसा जोर पकड़ा कि दिन भर भी पानी बरसा, रात को भी बरसा। बरसते-बरसते दो-तीन दिन बीत गए। उस वर्ष पाटलिपुत्र में 7 दिन तक पानी बरसा। मानो गंगा समुद्र के समान बहने लगी हो। घरों में पानी भर गया। नगर में नाव चलने लगी। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। कच्चे घर और छप्पर वाले मकान नष्ट हो गए। पक्के घर वाले भी घबराने लगे।

सातवें दिन पानी तो बंद हो गया, पर पाटलिपुत्र नगर जल में डूब गया। ऊंचे घर वाले चौथी-पांचवी मंजिल पर चढ़ गए। बाकी लोगों ने भी उनके यहां शरण ली। ऐसा लगता था कि समुद्र का बहाव गंगा की ओर मुड़ गया है, क्योंकि वर्षा होने के बाद भी पानी का बढ़ना कम नहीं हो रहा था। राजा श्रीनंद ने नैमित्तिक बुलाए और उनसे पूछा कि पानी के प्रकोप से हम कैसे बचेंगे?

नैमित्तिकों ने कहा - श्री महाराज! यदि मन, कर्म और वचन से पूर्ण पवित्र पतिव्रता नारी अंजलि में जल लेकर पानी को घटाने का संकल्प करे, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।

राजा ने एक नाव तैयार करवाई और उसमें नगाड़ा रखवा कर घोषणा कराई। नाव में नगाड़ा बजने लगा और घोषणा होने लगी कि मन, कर्म और वचन से जो नारी अपने को सती मानती हो, वह इस नगाड़े को छूने के बाद अंजलि में जल लेकर छोड़े और कहे कि यदि मैं सती हूं, तो नगर का पानी बह जाए।

सभी ने इस घोषणा को सुना और अपने-अपने मन को टटोला। किसी का साहस नगाड़ा छूने का नहीं हुआ।

पानी पर तैरते-तैरते नाव नगर सेठ के भवन की ओर भी गई, तो सेठानी रोहिणी ने ऊपर से आवाज दी - नाव रोको, मैं अभी आती हूं।

नाव में आकर रोहिणी ने नगाड़ा छुआ। नगर सेठ भी नाव में आ गए। नाव राजभवन में पहुंची। यह खबर सब ओर फैल गई। सभी छतों पर भीड़ जुड़ गई। नगर सेठ हैरान थे कि रोहिणी जैसी स्त्री ने नगाड़ा क्यों छुआ?

रोहिणी ने अंजलि में जल लिया और बोली - यदि मैंने स्वप्न में भी परपुरुष का चिंतन न किया हो, यदि मैं मन, कर्म, वचन से पूर्णतया पतिव्रता हूं, तो नगर में यह जलगति विलीन हो जाए। यह कहकर रोहिणी ने उस अथाह जल में अंजली का जल छोड़ दिया।

उसके जल छोड़ते ही समुद्र की तरह पानी के बहने का शोर हुआ। थोड़ी देर में पानी ऐसे बह गया, जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना रणक्षेत्र से भाग जाती है और मैदान खाली हो जाता है। जाने कहां बह गया वह सारा पानी!

नाव के आसपास कीचड़ था। मजदूर लोग सड़क का कीचड़ साफ करने में लग गए। रोहिणी की जय-जयकार होने लगी, पर नगर सेठ की आँखों में आंसू थे। घर पहुंच कर नगर सेठ धन्ना अपनी पत्नी के पैरों में झुका और रोहिणी पीछे हट गई।

वह बोली - क्या करते हैं, नाथ? मुझे पापिन क्यों बनाते हो?

सेठ बोला - रोहिणी! आखिर मेरा प्रायश्चित क्या है? मैंने तुम्हें पथभ्रष्ट समझा था, लेकिन तुम तो सती निकली। पाटलिपुत्र में तुम जैसी और कोई स्त्री नहीं है। प्रिये! मुझे शंका के नाग ने डस लिया था, पर मैं क्या करूं? जो कुछ मैंने सुना था, उसे सुनकर तो सभी को शक होगा।

रोहिणी बोली - स्वामी! मुझे आप अपने हृदय में पुनः स्थान दें, यही आपका प्रायश्चित है। राजा के साथ जो घटना घटी, उसका रहस्य जाने बिना संदेह होना स्वाभाविक है। स्वामी! दोष मेरा ही है, जो मैं आपके हृदय में विश्वास नहीं जमा सकी। वरना राजा को मेरी शैया पर सोते देखकर भी आप शक नहीं करते।

दोष तुम्हारा नहीं मेरा है, नगर सेठ धन्ना ने कहा - मेरा मन पापी है। खैर! अब यह बताओ कि राजा मेरे पीछे से तुम्हारे यहां आया था क्या?

हां! मेरे पास आया था, रोहिणी ने बीच में ही कहा - और उसके लिए मैंने भोजन भी बनाया, उसे खिलाया भी और उसके बाद राजा मेरे यहां से प्रसन्न व संतुष्ट होकर लौटा। मैं आपको बताती हूं।

रोहिणी पति को बताने लगी - राजा श्रीनंद ने पहले तो रात में भोजन करना धर्म विरुद्ध बताया, पर जब वह परनारी से स्नेह करने का अधर्म करने पर उतारू था, तो रात्रि भोजन को धर्म बताने लगा।

स्वामी! मैंने राजा से कहा कि इस समय तो हम दोनों प्रेम धर्म के अनुयायी हैं, प्रेम में सब उचित होता है।

कामांध राजा वासना को प्रेम समझने लगा और उसने भोजन की स्वीकृति दे दी।

उसे समझाने की दृष्टि से ही मैंने उसके लिए 32 प्रकार के व्यंजन बनाए थे। राजा ने एक-एक करके पहले सभी व्यंजनों को चखा। उन सब का स्वाद एक-सा ही था।

राजा बोला - रोहिणी व्यंजन तो 32 हैं पर स्वाद सबका एक ही है। इससे तो अच्छा था कि एक बड़े कटोरे में ही व्यंजन रख देती, ये 32 कटोरियाँ रखने की क्या आवश्यकता थी।

मैंने कहा - राजन्! स्वाद में भले ही यह व्यंजन एक जैसे हैं, लेकिन रंग रूप में तो भिन्न हैं। कोई पीले रंग का है, कोई लाल रंग का है। राजन्! कामवासना में पुरुष स्वाद की समानता नहीं देखता। वह रूप रंग में स्वयं को भूल कर अपने दोनों लोक बिगाड़ देता है। राजन्! किसी भी स्त्री के साथ भोग किया जाए तो भोगानंद में सब में एक जैसा ही आनंद है। रूप रंग में सब स्त्रियां अलग-अलग हैं, पर सब का स्वाद एक जैसा ही है। केवल रूप-रंग में स्त्रियां भिन्न दिखाई देती हैं। अतः अपनी विवाहित स्त्री के रहते उसका त्याग करके जो कामी पुरुष परनारी पर दृष्टि रखते हैं, उसके पीछे कौन-सा दर्शन है, क्या औचित्य है? यह आप मुझे भी समझाएं। आप 32 व्यंजन इसलिए पसंद नहीं कर रहे कि सब का स्वाद एक-सा है।

राजन्! काम मित्र भी है और शत्रु भी है। यह इतना पराक्रमी शत्रु है कि ऋषि-मुनि भी उससे डरते हैं, पर उसे मित्र बनाकर जीता जा सकता है। यह जो विवाह की पद्धति है, यह काम को मित्र के समान भला करने वाला बनाती है। आप काम को मित्र न बनाकर, शत्रु बनाने पर तुले हुए हैं। आप हमारे राजा हैं। राजा पिता के समान होता है। इससे बड़ी निकृष्ट बात क्या होगी कि एक पिता अपनी पुत्री से भोग याचना करे।

इतना कहने के बाद रोहिणी ने सेठ धन्ना से कहा कि इतना सुनते ही राजा श्रीनंद पानी-पानी हो गया। उसने मेरे चरण छूकर मुझे अपनी बहन माना और वह मेरे यहां से प्रसन्न व संतुष्ट होकर गया। जिसके लोक-परलोक दोनों बन जाएं, वह प्रसन्न तो होगा ही।

तुम धन्य हो प्रिये! सेठ धन्ना ने कहा - मैं तुम्हारा होकर भी तुम्हें नहीं जान पाया, पर अब तो सारा पाटलिपुत्र जान गया है। पाटलिपुत्र के बहते पानी में मेरे संशय की कलुषता भी बह गई है।

फिर उन दोनों ने श्रावक व्रत लिए और सारे सुख भोगे।

एक दिन नगर में आचार्य मुनिराज आए। रोहिणी और धन्ना सेठ मुनिराज के दर्शन करने गए और उन दोनों को वैराग्य हो गया और उन्होंने मुनिराज से निवेदन किया कि हे प्रभु! हे गुरुवर! हमें दीक्षा दे दीजिए।

मुनिराज ने धन्ना सेठ को मुनि दीक्षा और रोहिणी सेठानी को आर्यिका दीक्षा दे दी। दोनों तपस्या करके समाधि मरण करके देवलोक में देव हुए। आगे के भवों में दोनों मोक्ष प्राप्त करेंगे।

धन्य है सती रोहिणी और उनका सतीत्व!!!

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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