सती कनक सुंदरी (भाग - 4)

सती कनक सुंदरी (भाग - 4)

इधर राजा की नींद खुली। वह इधर-उधर देखने लगा। कनक सुंदरी वहां नहीं थी। वह अपने साथ कर्णफूल व मोतियों का थाल भी ले गई थी। वह क्रोध से पागल हो उठा और गुप्त मार्ग से कनक सुंदरी के घर की ओर गया। द्वार बंद देखकर वह लौट आया।

उसका कामवेग प्रतिशोध में बदल गया। राजा दरबार में आया और अपने सेवक को भेज कर उसने धनदत्त सेठ को बुलाया।

सेठ डरता हुआ राजा के पास आया।

राजा ने एक समस्या बता कर कड़े स्वर में धनदत्त को कहा कि 7 दिन तक मुझे इस समस्या का हल मिल जाना चाहिए, वरना उसे परिवार सहित सूली पर चढ़ा दूंगा।

धनदत्त परेशान होकर घर आया। कनक सुंदरी समझ गई कि अब राजा बदला लेने की कोशिश करेगा। वह ससुर जी का चेहरा देखकर जान गई कि दाल में कुछ काला है। उसने ससुर जी से पूछा तो उन्होंने सब कुछ बता दिया।

यह सब सुनने के बाद कनक सुंदरी ने ससुर जी से कहा - पिताजी! आप चिंता मत कीजिए। 7 दिन तक इंतजार करने की जरूरत नहीं है। आप अभी राजा के पास जाएं और उनसे कहें कि आपके प्रश्न का उत्तर मेरी बहू पुत्रवधू राजसभा में देगी।

सेठ खुशी-खुशी राजा के पास पहुंचा और कहा - राजन्! आपने मुझे 7 दिन का समय दिया था, लेकिन आपकी समस्या का हल मेरी पुत्रवधू आज ही कर देगी।

राजा ने आज्ञा दे दी।

सेठ अपनी पुत्रवधू को राजसभा में ले गया। राजसभा में भद्रासन पर कनक सुंदरी बैठी। सारी सभा में सन्नाटा था।

राजा ने समस्या रखी -

बगिया में लगते फल सुंदर, पकते देख अनार।

खाने वाला तरस रहा, होता क्यों इंकार।।

कनक सुंदरी ने उत्तर दिया -

तरसेगा अधिकार हीन नर, फल को छू सकेगा।

पकता है पकने दे फल को, चाखनहार चखेगा।।

और सुनो भैया मन लगाकर, अच्छी सुरंग बनाई।

हार पिरो कर निद्रा आई, अच्छी मुंह की खाई।।

इतना कहने के बाद कनक सुंदरी ने कहा - यदि आज्ञा हो तो बात को विस्तार से समझाऊं।

राजा पर तो घड़ों पानी पड़ चुका था। वह सती कनक सुंदरी से हार मान चुका था और उसकी धर्म निष्ठा का लोहा भी मान रहा था। उसके बदले की भावना ठंडी हो चुकी थी और काम का भूत भी हवा हो गया था। राजा का हृदय बदल गया और वह कनक सुंदरी से बोला - बहिन कनक सुंदरी! अब कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। तूने मुझे सब कुछ अच्छी तरह समझा दिया है। आज से तू मेरी धर्म बहन है और मैं तेरा धर्म भाई हूं।

राजा अरिमर्दन ने सती कनक सुंदरी को अपनी बहिन बना लिया और उसका सम्मान किया। बहुत-सा धन देकर उसे विदा किया। घर जाकर उसने सास-ससुर को सब बातें बता दी।

कनक सुंदरी की होशियारी देखकर सास-ससुर भी प्रसन्न हुए और बोले - बेटी! तू इतनी चतुर है, फिर अपने पति मदन को सन्मार्ग पर क्यों नहीं लाती? राजा को सन्मार्ग पर लाने वाली भी तू ही है। अपने पति को भी सुपथ पर क्यों नहीं ले आई? तेरे होते हुए वह गुलाबो वेश्या के घर में पड़ा रहता है।

कनक सुंदरी ने सास-ससुर को विश्वास दिलाया कि हर काम का समय होता है। अब मैं अपने पति को भी सुपथ पर लाऊंगी। इस काम में मुझे आपका सहयोग चाहिए। अब मुझे आप पीहर भेज दीजिए। कुछ दिन वहां रहकर मैं इस काम को करूंगी।

सेठ धनदत्त ने कनक सुंदरी को उसके पीहर चंपापुर भेज दिया। बिना सूचना के बेटी को आया देखकर उसके पिता जिनदत्त और माता कनकसेना को प्रसन्नता हुई। माता-पिता ने उससे आने का कारण पूछा तो उसने अपना सारा दुःख बता दिया। ये सब बातें सुनकर सेठ जिनदत्त ने कहा - बेटी! भाग्य के लिए क्या कहें? हमने तो अच्छा घर-वर देखा था। हमें क्या पता था कि मदन ऐसा निकलेगा।

कनक सुदंरी ने कहा - पिताजी! अब अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे। आप मुझे धन दे दीजिए। मैं अपनी युक्ति से सब ठीक कर लूंगी।

सेठ जिनदत्त ने धन के खजाने के द्वार खोल दिए। कनक सुंदरी ने धन ले लिया और पुरुष वेश में अयोध्या आ गई। उसने अपना नाम ‘कनकसेन’ रख लिया।

कनकसेन युवक अयोध्या नरेश अरिमर्दन के पास आया और कुछ भेंट दे कर बोला कि मैं कंचनपुर का व्यापारी हूं। आपके नगर में अपना व्यापार करना चाहता हूं। मुझे भवन निर्माण के लिए अनुमति दें तथा कुछ स्थान प्रदान करें।

राजा अरिमर्दन ने कनकसेन को भवन निर्माण की अनुमति दे दी। उसे नगर के बाहर एक भूखंड भी दे दिया।

कनकसेन ने एक भव्य महल का निर्माण करवाया। उसने भवन के चार खंड किए। एक खंड में स्वर्ण महल था, जो सुनहरी रंग का बना हुआ था। उसके पर्दे भी सुनहरी रंग के थे। फर्नीचर भी सुनहरी रंग का था।

दूसरा खंड धवल गृह था, जिसकी दीवारें, परदे, फर्नीचर सब सफेद रंग के थे।

तीसरा महल अरुण रंग का था जो हर ओर से लाल रंग से बना हुआ था। इस अरुण गृह की वाटिका में लाल रंग के फूल, लाल रंग के पौधे लगे हुए थे।

चौथा गृह हरित रंग का था, जिसकी दीवारें, परदे, फर्नीचर सब हरे रंग के थे। उसमें लहराते हुए हरे रंग के वृक्ष थे। उन वृक्षों को तैयार करते समय कनक सुंदरी ने अपने नए महल से अपने घर तक गुप्त मार्ग बनवाया था। इसका पता किसी को नहीं था।

इसके बाद कनकसेन ने मित्र बन कर मदन कुमार से मित्रता की। मदन कुमार कनकसेन के साथ उसका महल देखने आया। ऐसा अद्भुत महल देखकर मदन कुमार दंग रह गया। महल के चारों भागों को देखकर मदन ने कनक से कहा - मित्र कनकसेन! तुमने तो कमाल कर दिया। स्वर्ण महल विशुद्ध कंचन का बना हुआ है। धवल महल मोतियों और चांदी से निर्मित है। हरित महल पन्ना से बना है और अरुण महल की लाल मणियों की शोभा ही न्यारी है। इतने धन से इतने कलात्मक महल बनाकर तुमने सचमुच धरती पर स्वर्ग बना लिया है।

महल की प्रशंसा सुनकर कनकसेन ने कहा - मित्र मदन! यह सब तुम्हारा ही है। लो, तुम चारों महलों की चाबी अपने पास रख लो। मैं तो अब कुछ दिन के लिए अपने नगर कंचनपुर जाऊंगा। पीछे तुम इन्हें अपना ही महल समझना।

खुश होकर मदन ने महल की चाबी ले ली। कनकसेन अपने नगर कंचनपुर चला गया।

एक दिन बाद एक रथ धनदत्त के घर के सामने आकर रुका। उसमें से उनकी पुत्रवधू कनक सुंदरी उतरी। सेठानी ने बहू का स्वागत किया। वह उसे घर के अंदर ले गई। कनक सुंदरी ने पीहर के कुशल समाचार दिए और अपनी सास के साथ रहने लगी।

एक दिन कनक सुंदरी ने पति मदन कुमार को सुनाते हुए अपनी सास को कहा कि आज मुझे एक अद्भुत सूचना मिली है। आज कनकसेन के अरुण महल में अरुणा देवी आएगी। आपकी आज्ञा हो तो मैं भी उसे देख आऊँ?

‘बेटी! तू जैसा ठीक समझे’, सेठानी ने कहा।

क्रमशः

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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