अहिंसा की विजय

अहिंसा की विजय

एक बार काशी नरेश नारायण सिंह ने अयोध्या के राजा चंद्रसेन पर अकारण चढ़ाई कर दी। अपने राज्य का विस्तार करना ही चढ़ाई का कारण था। राजा चंद्रसेन अहिंसा का पुजारी था। उसने सोचा कि युद्ध करने से हजारों आदमी मारे जाएंगे, इसलिए वह राज्य और राजधानी छोड़कर रात में ही कहीं चला गया। उसने संन्यासी का रूप बनाया और काशी जाकर एक मंदिर में रहने लगा।

राजा के साथ उसकी एक रानी भी थी। रानी पतिव्रता थी। संकट के समय अपने पति को अकेला छोड़कर वह अपने मायके नहीं गई। साध्वी वेश में राजा के साथ ही रहने लगी। रानी गर्भवती थी। 9 महीने बाद उसके यहां एक पुत्र पैदा हुआ। राजा ने उसका नाम रखा - सूर्यसेन।

जब सूर्यसेन 10 वर्ष का हुआ, तब उसे शिक्षा प्राप्त करने के लिए हरिद्वार के एक गुरुकुल में भेज दिया गया।

एक दिन काशी नरेश को पता लगा कि अयोध्या नरेश चंद्रसेन अपनी रानी के साथ साधु वेश में उसी की काशी नगरी में रहता है। राजा बहुत कुपित हुआ। उसने दोनों को गिरफ्तार करवा लिया और दोनों को फांसी की सजा दे दी। यह समाचार पाकर उसका पुत्र सूर्यसेन हरिद्वार से आया और माता-पिता के अंतिम दर्शन करने जेलखाने में गया। पुत्र को प्यार करके पिता ने उपदेश दिया -

  1. न अधिक देखना, न थोड़ा देखना।

  2. हिंसा कभी प्रति हिंसा के द्वारा पराजित नहीं होती।

  3. लड़ाई को लड़ाई के द्वारा जीता नहीं जा सकता।

  4. जवाबी शत्रुता से शत्रुता नहीं मिट सकती।

  5. हिंसा, लड़ाई और शत्रुता को प्रेम ही जीत सकता है।

जब अयोध्या नरेश को रानी के साथ फांसी दे दी गई, तब राजकुमार सूर्यसेन ने कुछ सोच-समझकर काशी नरेश के महावत के यहां नौकरी कर ली। काशी नरेश को मालूम न था कि अयोध्या नरेश का कोई पुत्र भी था।

सूर्यसेन को मुरली बजाने का शौक था। प्रातः 4:00 बजे वह प्रतिदिन बहुत प्रेम से मुरली बजाया करता था।

एक दिन उसकी मुरली की मधुर ध्वनि काशी नरेश के कानों में भी जा पहुंची। प्रातः राजा ने महावत से पूछा - तुम्हारे घर में मुरली कौन बजाता है?

महावत ने कहा - एक आवारा लड़के को मैंने नौकर रखा है। वह हाथियों को पानी पिला लाता है। वही मुरली बजाता है।

काशी नरेश ने सूर्यसेन को अपना ‘अंगरक्षक’ बना लिया।

एक दिन काशी नरेश शिकार खेलने गया। घने जंगल में वह अपने साथियों से छूट गया। एक घोड़े पर राजा था और दूसरे पर उनका अंगरक्षक सूर्यसेन था। थककर दोनों एक घने वृक्ष की छाया में जा बैठे। राजा को कुछ आलस्य मालूम हुआ। गर्मी के दिन थे। सूर्यसेन की गोद को तकिया बनाकर राजा सो गया।

उसी समय सूर्यसेन को ध्यान आया कि यह तो वही काशी नरेश है, जिसने उसके माता-पिता को बिना अपराध के फांसी पर लटकाया था। आज मौका मिला है। क्यों न माता-पिता के खून का बदला इसकी मौत से चुका लूं?

उसकी आंखों में खून उतर आया। प्रतिशोध की ज्वाला छाती में भभक उठी। उसने म्यान से तलवार खींच ली।

उसी समय पिता का एक उपदेश उसके दिमाग में आया कि हिंसा कभी प्रति हिंसा के द्वारा पराजित नहीं होती। सूर्यसेन ने चुपके से अपनी तलवार म्यान में रख ली। पिता की वसीयत मिटाने का हौसला न रहा।

उसी समय राजा की आंखें खुल गई। बैठकर काशी नरेश ने कहा - ‘बेटा! आज बहुत बुरा सपना देखा है मैंने। ऐसा मालूम हुआ कि तुम मेरा सिर काटने के लिए अपनी नंगी तलवार हाथ में लिए हुए हो।’

सूर्यसेन ने फिर तलवार खींच ली। बोला - ‘आपका सपना गलत नहीं है। मैं अयोध्या नरेश का राजकुमार हूं। आपने बिना अपराध मेरे साधु के समान माता-पिता का वध कराया है। मैं आज उसका बदला लूंगा। जब तक आप अपनी तलवार म्यान से निकालेंगे, तब तक तो मैं आपका सिर धड़ से जुदा कर दूंगा। आपके अत्याचार का बदला तो मुझे लेना ही चाहिए।’

दूसरा उपाय न देखकर राजा ने हाथ जोड़ते हुए कहा - ‘बेटा! मुझे क्षमा कर दो। मैं तुमसे अपने प्राणों की भीख मांगता हूं। मैं आज तुम्हारी शरण में हूं।’

‘अगर अब मैं आपको छोड़ता हूं, तो आप मुझे भी मरवा डालेंगे।’

‘नहीं बेटा! विश्वनाथ बाबा की शपथ! मैं तुमको कोई भी सजा नहीं दूंगा।’

इसके बाद दोनों ने हाथ में हाथ पकड़ कर अपनी प्रतिज्ञा निभाने की शपथ ली।

तब सूर्यसेन ने अपना सारा भेद खोल दिया। अंत में कहा - ‘मरते समय मेरे पिता ने मुझे जो उपदेश दिया था, उसी के कारण आज आपकी जान बची है।’

‘वह क्या उपदेश है?’, राजा ने प्रश्न किया।

‘न अधिक देखना, न थोड़ा देखना। हिंसा को कभी प्रतिहिंसा से पराजित नहीं किया जा सकता’, सूर्यसेन ने कहा।

‘इसका अर्थ क्या है?’, राजा ने पूछा।

सूर्यसेन ने समझाया - ‘अधिक न देखने का अर्थ है - हिंसा को अधिक दिनों तक अपने मन में नहीं रखना चाहिए। न थोड़ा देखने का मतलब यह है कि अपने बंधु या मित्र का जरा भी दोष देखकर उससे सहज ही संबंध नहीं तोड़ना चाहिए। अब रहा हिंसा को प्रति हिंसा के द्वारा पराजित नहीं किया जा सकता। इसका अर्थ प्रत्यक्ष है। यदि मैं आपको प्रति हिंसा की भावना से मार डालता, तो परिणाम यही होता न कि आपके पक्ष वाले मुझे मार डालते। आज मेरे पिता के उपदेश ने ही हम दोनों के प्राण बचाए हैं। जवाबी शत्रुता से शत्रुता नहीं मिट सकती। यह सिद्धांत कितना सच्चा है। आपने मेरे जीवन की रक्षा करके महत्वपूर्ण काम किया है। मैंने भी आपके जीवन की रक्षा करके कम महत्वपूर्ण काम नहीं किया।’

‘बेटा! तूने तो मेरा पाप नाश कर दिया। पुण्य का सूर्य प्रकाशित हो गया है।’

गदगद कण्ठ होकर राजा ने लड़के को छाती से लगा लिया। राजधानी में लौटकर काशी नरेश ने सूर्यसेन का राजपाट उसे लौटा दिया। अयोध्या नरेश सूर्यसेन को काशी नरेश ने अपनी राजकुमारी भी ब्याह दी।

अहिंसा की तलवार ने जो काम किया, वह हिंसा की तलवार नहीं कर सकती थी। हिंसा से दोनों राजवंश डूब जाते। किसी की आत्मा को किसी भी प्रकार से दुःख पहुंचाना ही हिंसा है। अहिंसा का मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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