अंतर का दीया

  अंतर का दीया


तुम सोचते हो कि संसार की यात्रा में तुम अकेले हो, परमात्मा भी साथ नहीं है। याद रखना कि जिनको तुमने संग-साथ समझा है, यह केवल नदी-नाव संयोग है। बस! कुछ अजनबी इकठ्ठे हो गये हैं नाव मे। कोई पत्नी बन गई है, कोई पति बन गया है, कोई बेटा बन गया है, कोई भाई बन गया है, कोई मित्र बन गया है..... और नाव में बैठे-बैठे थोड़ी देर में ही हमने कैसे-कैसे खेल रचा लिए हैं - मोह के, आसक्ति के, राग के।

यहां तुम बिल्कुल अकेले हो। मगर तुमने भ्रांति से यह सोच बना लिया है कि ये सब मेरे हैं, भाई है, पत्नी है, बेटा है, मित्र हैं, सब हैं। परिवार है, प्रियजन हैं। जरा सोचो। एक बार फिर से पर्दा उठाकर देखो अपने भीतर का! तुम बिल्कुल अकेले हो या नहीं? पत्नी बाहर है, पति बाहर है, भीतर तो तुम बिल्कुल अकेले हो। यह संग-साथ झूठा है। यह छोड़ना पड़ेगा, तो असली संगी मिलेगा।

इसलिए मैं कहता हूं, अकेले रह जाओ तो इसका मतलब यह मत समझना कि तुम अकेले हो गये। जब तुम अकेले रह जाओगे, तब तुम अचानक पाओगे कि परमात्मा तुम्हारे साथ मौजूद है। असली संगी, असली साथी तुम्हारे साथ मौजूद है और उसकी मौजूदगी ऐसी नहीं है कि वह पराया है। वह तुम्हारा अंतरात्मा है। वह तुम्हारे भीतर हीं जलता हुआ एक प्रकाशमान दीया है।

सारा अस्तित्व तुम्हारा है। सब कुछ तुम्हारे साथ है। न तुम कभी अकेले थे और न तुम कभी अकेले हो सकते हो। मगर इस अनुभव से पहले दुनिया से तो अकेला होना पड़ेगा। यह जो झूठा संग-साथ है, इसकी तरफ पीठ करनी पड़ेगी।

अकेले होकर ही परमात्मा का साथ मिलता है। फिर कोई अकेला नहीं रह जाता। राह तुम्हें दिखा दी है। कैसे अपने भीतर की सीढ़ियां उतरो, तुम्हें बता दिया है। उतरना तो तुम्हीं को पड़ेगा। तुम्हारा प्रकाशित अंतर्मन दुनिया को भी अपने आलोक से प्रकाशित कर देगा।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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