गौ भक्त राम सिंह

गौ भक्त राम सिंह

सबलगढ़ तहसील के फाटक पर रहीम सिपाही बैठा था। तब तक भीतर से राम सिंह सिपाही एक रोटी और उस पर कुछ खीर रखे बाहर निकला।

रहीम - कहो राम सिंह! यह रोटियां कहाँ लिए जा रहे हो?

राम सिंह - यह ‘अग्रासन’ है।

रहीम - इसका क्या अर्थ है?

राम सिंह - हम लोग जब रोटी बनाते हैं, तब पहले रोटी गौ माता के लिए बनाते हैं। उसको ‘अग्रासन’ कहते हैं।

रहीम - तुम रोटी खा चुके?

राम सिंह - पहले मैं गौ माता को खिलाऊंगा, तब कहीं मैं चौके में पैर रखूंगा।

रहीम - तुम गाय को माता मानते हो?

राम सिंह - माता ही नहीं, जगत माता। तुम्हारे मुसलमान धर्म में भी कहा है कि यह पृथ्वी गाय के सींग पर रखी हुई है।

रहीम - तुम्हारा इष्ट देव कौन है? तुम किसकी पूजा करते हो?

राम सिंह - मेरी इष्ट देव गाय है। मैं गाय की ही पूजा करता हूं। वैतरणी की नाव भी वही है।

रहीम - आज तुम्हारी गौ भक्ति देखी जाएगी।

राम सिंह - कैसे?

रहीम - तुम जानते हो न कि आज ईद है?

राम सिंह - जानता हूं, फिर!

रहीम - यह जानते हो कि इस समय तहसीलदार, नायब तहसीलदार, थानेदार, दीवान और कई सिपाही मुसलमान हैं?

राम सिंह - यह भी जानता हूं, फिर!

रहीम - इस तहसील के अहाते में ही थाना भी है, यह मालूम है?

राम सिंह - मालूम है, फिर!

रहीम - तहसील और थाने के बीच में जो आंगन है, उसी में आज ‘गोकुशी’ की जाएगी।

राम सिंह - किस समय?

रहीम - रात के 12:00 बजे।

राम सिंह - 11:00 बजे से मेरा पहरा है।

रहीम - तब तो तुम अपनी आँखों से अपनी गौ माता को जिबह होते देखोगे।

राम सिंह - यह बात सब अहलकारों ने पास कर दी है कि तहसील में गोकुशी हो?

रहीम - जी हां ठाकुर साहब! सब अफसर मुसलमान हैं। यह बात तय हो चुकी है।

राम सिंह - मेरे सामने गोकुशी हो, वह बात तो असंभव है, नामुमकिन है, रहीम!

रहीम - मैं खुद अपने हाथ से गाय के गले पर छुरी चलाऊंगा।

राम सिंह - मगर सिर पर कफ़न बांध कर आना।

रहीम - देखूंगा कि तुम क्या करते हो।

रात के 11:00 बजे राम सिंह सिपाही वर्दी पहनकर और हाथ में भरी हुई दोनाली लेकर खजाने का पहरा देने लगा। वहां पर और भी भरी हुई रखी थी। पांच गारद के सिपाहियों की और सात थाने के सिपाहियों की। सभी बंदूकें भरी हुई थी और दुनाली बंदूकें थी।

आधे घंटे के बाद एक जवान और सुंदर गाय को लेकर रहीम आया। उसने आंगन के एक खूंटे पर गाय बांध दी और छुरी की धार देखने लगा।

आंगन भर में कुर्सियां बिछाई गई। तहसीलदार, नायब तहसीलदार, थानेदार और दीवान जी आकर उन कुर्सियों पर बैठ गए। शहर के कुछ धनी, मानी, रईस मुसलमान भी आकर बैठ गए। सब लोग 14 की संख्या में थे। सात मुसलमान सिपाही पीछे खड़े थे। एक मौलवी ने उठ कर जिबह की दुआ पढ़ी।

राम सिंह - खबरदार रहीम! खबरदार!!

रहीम - क्या बकते हो?

राम सिंह - चने के धोखे में मिर्च मत चबाना।

रहीम - चुप रहो।

राम सिंह - तहसीलदार साहब! यह तहसील केवल मुसलमानों की तहसील नहीं है। इस तहसील में हिंदू लोगों का भी साझा है।

तहसीलदार - इसका मतलब?

राम सिंह - मतलब यह है कि तहसील के भीतर गोकुशी नहीं हो सकती।

तहसीलदार - मेरा हुक्म है।

राम सिंह - आपका हुक्म कोई चीज नहीं। कलेक्टर का हुक्म दिखलाइए।

तहसीलदार - अपनी तहसील का मैं ही कलेक्टर हूं। तहसील सबलगढ़ का मैं जॉर्ज पंचम हूं। समझे?

राम सिंह - चाहे आप साक्षात खुदा ही क्यों न हों? पर मेरे सामने ऐसा हरगिज़ नहीं होगा।

थानेदार - होगा! होगा!! और बीच खेत के होगा! हथियार रख दो और निकल जाओ तहसील के बाहर।

राम सिंह - मेरा हथियार कौन छीन सकता है?

थानेदार - मैं।

राम सिंह - आइए! छीनिए आकर!

दीवान - क्या तुम्हारी आफत आ गई है, राम सिंह? अपने अफसर से ऐसी नाजायज गुफ्तगू।

राम सिंह - अफसर! किस बेवकूफ ने इनको अफसर बनाया? पब्लिक का दिल दुखाना अफसर का काम नहीं है।

थानेदार - रहीम! अपना काम करो। काफिर को बकने दो।

रहीम ने गाय के पास जाकर ज्यों ही छुरा ऊंचा किया, त्यों ही राम सिंह ने दन से गोली चला दी। रहीम मरकर गिर पड़ा।

थानेदार - पकड़ो! पकड़ो!

राम सिंह ने दूसरी गोली थानेदार की छाती पर रसीद की। ‘हाय’ कहकर थानेदार भी वहीं ढेर हो गया।

तहसीलदार उठकर भागने लगे। राम सिंह ने खाली बंदूक वहीं डाल दी और लपक कर दूसरी भरी हुई दोनाली उठा ली।

राम सिंह - कहां चले, जॉर्ज पंचम! जरा अपनी कलेक्टरी की चाशनी तो चख लो। इतना कहकर राम सिंह ने घोड़ा दबाया। तहसीलदार की खोपड़ी में गोली लगी और वह वहीं ढेर हो गए। इसके बाद भगदड़ शुरू हो गई। मगर राम सिंह को विराम कहां? तड़ातड़ गोलियां चल रही थी। उसका निशाना अचूक था। 11 आदमी जान से मारे गए। इसके बाद राम सिंह ने गौ माता के चरण छुए और रस्सी खोल दी। वह बाहर भाग गई। तब राम सिंह ने एक गोली अपनी छाती में मार ली और मर कर वहीं गिर पड़े।

सवेरा हुआ। सारा समाचार शहर में फैल गया। हिंदू जनता ने राम सिंह की अर्थी बनाई। एक सेठ जी ने लाश पर 500 रुपए का दुशाला डाल दिया। चार साधुओं ने लाश को कंधा लगाया। शहर के हलवाइयों ने बतासे जमा किए। सर्राफों ने पैसे जमा किए, धनिकों ने पैसे और रेज़गारी इकट्ठी की। माली लोगों ने फूल इकट्ठे किए।

जब लाश चली, तो आगे-आगे वही कुर्बानी वाली गाय सजा कर चलाई गई। पीछे शंख, घंटा, घड़ियाल का नाद होने लगा। रास्ते में फूल बतासे, पैसे, रेज़गारी बरसाई जाने लगी। विराट जुलूस निकाला गया। कई एक सहृदय मुसलमान और ईसाई सज्जन भी साथ थे।

श्मशान पर जब लाश उतारी गई, तब जनाब मोहम्मद अली सौदागर ने लाश पर गुलाब के फूल चढ़ाकर कहा - ‘हजरत मोहम्मद साहब ने शरीफ में लिखा है कि उन जानवरों को हरगिज न मारा जाए, जो जनता को आराम पहुंचाते हैं।’

बादशाह अकबर और बादशाह जहांगीर ने कानून बनाकर गोकुशी बंद कर दी थी। अफसोस है कि हमारे तअस्सुबी मुसलमान, सिर्फ हिंदू भाईयों का दिल दुखाने की गरज से गोकुशी करते हैं। मैं उन पर लानत भेजता हूं।

पादरी यंग साहब ईसाई थे। उन्होंने कहा - ‘सरकार अगर गोकुशी कराती होती, तो विलायत में खूब गोकुशी की जाती। मगर वहां इसका नाम और निशान तक नहीं है। विलायत के सभी अंग्रेज किसान गायों को पालते हैं। अफसोस है कि सिर्फ चमड़े के व्यापार में गोकुशी का यह बुरा काम जारी कर रखा है। भाई राम सिंह की बहादुरी की मैं तारीफ करता हूं। आप साहेबान से प्रार्थना करता हूं कि ठाकुर राम सिंह के बाल-बच्चों के लिए कुछ चंदा किया जाए।’

उसी समय 15000 का चंदा लिखा गया। उसमें सहृदय जनाब मोहम्मद अली साहब ने 3000 रुपए और पादरी साहब ने 1000 रुपए दिए। यह घटना अक्षरशः सत्य है, केवल नाम बदल दिए गए हैं।

।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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