बाह्य तप
बाह्य तप
बाह्य तप के छह भेद
अनशन- खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय। इन चारों प्रकार के आहारों का सर्वथा परित्याग कर देना अनशन है। धवला, तत्वार्थ वार्तिक आदि ग्रन्थों में अनशन का विशेष वर्णन है।
अवमौदर्य- भूख से एक ग्रास, दो ग्रास, तीन ग्रास आदि क्रम से भोजन घटाकर लेना। घटते-घटते एक ग्रास मात्र लेना अवमौदर्य तप है। यह संयम की जागरूकता, दोषप्रशम, सन्तोष, स्वाध्याय और सुख की सिद्धि के लिए किया जाता है।
विविक्त शय्यासन- अध्ययन और ध्यान में बाधा करने वाले कारणों के समूहरहित विविक्त/एकान्त एवं पवित्र स्थान में शयन करना, बैठना आदि विविक्तशय्यासन तप है। विविक्त (एकान्त) में सोने-बैठने से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन होता है। ध्यान और स्वाध्याय की वृद्धि होती है और गमनागमन के अभाव से जीवों की रक्षा होती है।
शास्त्रों में शून्य घर, पहाड़ी की गुफा, वृक्ष का मूल, देवकुल, शिक्षाघर, किसी के द्वारा अपना न बनाया गया स्थान, आराम घर, क्रीड़ा के लिए आये हुए के आवास के लिए बनाया गया स्थान, ये सब विविक्त वसतिकाएँ हैं। ऐसी वसतिका में रहने वाला साधक कलह आदि दोषों से दूर रहता है। ध्यान-अध्ययन में बाधा को प्राप्त नहीं होता। जहाँ स्त्री, नपुंसक और पशु न हों तथा उद्गम, उत्पादन दोष से रहित वसतिका हो, वहीं साधु को रहना चाहिए। जहाँ राग परिणाम बढ़े और गृहस्थों का वास हो, तिर्यंच-गाय-भैंस आदि, मनुष्य, स्त्री, स्वेच्छाचारिणी वेश्या आदि, भवनवासिनी, व्यन्तर आदि, विकारी वेशभूषा वाली देवियाँ अथवा गृहस्थजन सहित ऐसे गृहों को अर्थात् वसतिकाओं को छोड़ देना चाहिए।
रसत्याग- रसों के त्याग को रसत्याग कहा जाता है। दूध, दही, घी, तेल, शक्कर और नमक तथा घृतपूर्ण अपूप, लड्डू आदि का त्याग करना, इनमें एक-एक रस को या सभी रसों का छोड़ना तथा तिक्त, कटुक, कषायले, खट्टे और मीठे- इन रसों का त्याग करना रसपरित्याग है। इन्द्रियों के जीतने वाले मुनिराज घृतादि गरिष्ठ रसों के त्यागी होते हैं।
तत्त्वार्थवार्तिककार ने रसों के भेद न गिनकर ‘घृतादिरसव्यंजन’ घृत, दही, गुड़, तेल आदि रसों को छोड़ना रसत्याग है। इतना ही कहा है। साथ में प्रश्न किया है कि जितनी भी पौद्गलिक वस्तुएँ हैं, सभी रस वाली हैं, उन सब का उल्लेख होना चाहिए, तब भट्ट श्री अकलंकदेव ने उत्तर दिया कि यहाँ विशेष रस से प्रयोजन है कि जो रस इन्द्रियों को विशेष रीति से लालायित करने वाला है, उसी का त्याग आवश्यक है। तत्त्वार्थसार में नमक को रस नहीं गिनाया। मात्र तेल, क्षीर, इक्षु, दधि और घी को लिया है। तत्त्वार्थवार्तिक में नमक का ग्रहण किया गया है। इस तप से प्रबल इन्द्रियों की विजय होती है। रस ऋद्धि आदि महाशक्तियाँ प्रगट होती हैं और सज्जनों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कायक्लेश- अनेक प्रकार के प्रतिमायोग धारण करना, मौन रखना, आतापन, वृक्षमूल, सर्दी में नदी तट पर ध्यान करना आदि क्रियाओं से शरीर को कष्ट देना कायक्लेश तप है। मूलाचार में कहा है-‘‘खड़े होना, कायोत्सर्ग करना, सोना, अनेक विधि नियम ग्रहण करना और इन क्रियाओं के द्वारा आगमानुकूल कष्ट सहन करना, यह कायक्लेश तप है।’’ इस तप को आसन, शयन आदि क्रियाओं के माध्यम से करना चाहिए।
आसन- वीरासन, स्वस्तिकासन, वज्रासन, पद्मासन, हस्तिशुण्डासन आदि।
शयन- शव-शय्या, गो-शय्या, दण्ड-शय्या तथा चाप-शय्या आदि।
इनके सिवाय शरीर से ममत्व छोड़कर श्मशान आदि में कायोत्सर्ग से खड़े रहना काय-क्लेश तप के प्रकार हैं। दातून नहीं करना, खुजली, स्नान तथा झुकने का त्याग, रात में जागते रहना और केशलोच- ये सब कायक्लेश कहे गये हैं। कायक्लेश तप करने से बल ऋद्धि आदि अनेक महाऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं। तीनों लोकों में उत्पन्न होने वाला सुख प्राप्त होता है और कामेन्द्रिय पर विजय होती है। विषय-सुखों में आसक्ति नहीं होती है तथा धर्म की प्रभावना होती है।
वृत्तेः संख्या (वृत्ति परिसंख्यान)- कठिनता से आहार प्राप्त होने के लिए प्रतिज्ञा कर लेना अथवा इस प्रकार पड़गाहन होगा तो आहार लूँगा, अन्यथा नहीं, इस प्रकार की प्रतिज्ञा लेना वृत्तिपरिसंख्यान है। एक घर, सात घर, एक गली, अर्द्धग्राम आदि के विषय का संकल्प करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। घरों, दाता, बर्तनों या भोजन का नियम भी वृत्तिपरिसंख्यान तप है। यह तप आशा, तृष्णा की निवृत्ति के लिए किया जाता है। वृत्तिपरिसंख्यान तप करने से योगियों में धीरता-वीरता उत्पन्न होती है। आशा और अन्तराय कर्म नष्ट होते हैं। लोलुपता का भी विनाश होता है।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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