अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (12)
अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (12)
(आचार्य माघनन्दीकृत)
स्वच्छै-र्जिनेन्द्र तव चन्द्र-करावदातैः।
शुद्धांशुकेन विमलेन नितान्त - रम्ये,
देहे स्थितान् जलकणान् परिमार्जयामि।।
नत्वा- नमस्कार करके
मुहुः - बार-बार
निजकरैः - अपने हाथों से
अमृत- अमृत की
उप मेयैः - उपमा के द्वारा
स्वच्छैः-स्वच्छ से
जिनेन्द्र -जिनेन्द्र भगवान
तव - आपका
चन्द्र करावदातैः- चन्द्रमा की किरणों के समान सुशोभित
शुद्ध अंशुकेन - शुद्ध वस्त्र के द्वारा
विमलेन - जो पवित्र हैं
नितान्त रम्ये - हमेशा रमणीयता देने वाले
देहे - देह पर
स्थितान् - स्थित
जलकणान् - जल के कणों को
परिमार्जयामि - परिमार्जन अर्थात् साफ करता हूँ
अर्थ - हे जिनेन्द्र भगवान! अपने हाथों के द्वारा बार-बार नमस्कार करके, जो अमृत के समान स्वच्छ हैं, आपका शरीर चन्द्रमा की किरणों के समान सुशोभित है, जो पवित्र हैं और हमेशा रमणीयता देने वाले हैं, ऐसी देह पर स्थित जल के कणों को शुद्ध वस्त्र के द्वारा परिमार्जन अर्थात् साफ करता हूँ।
ऊँ ह्रीं अमलांशुकेन जिनबिम्ब-मार्जनं करोमि।
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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