नेमिनाथ भगवान
नेमिनाथ भगवान
द्वारका नगरी में राजा समुद्रविजय और रानी शिवादेवी के राज्य में श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में एक दिव्य बालक का जन्म हुआ। उसके जन्म के साथ ही आकाश में शंखनाद गूंज उठा, इसलिए उसका नाम पड़ा अरिष्टनेमि, जिसे नेमिनाथ भी कहा गया। उसका रंग श्याम था और पैरों के नीचे शंख का चिन्ह था। राजा समुद्रविजय भगवान ऋषभदेव के वंशज थे और नेमिनाथ के चचेरे भाई श्रीकृष्ण और बलराम थे। नेमिनाथ बचपन से ही करुणा, अहिंसा और वैराग्य की भावना से ओतप्रोत थे। राजसी सुख-सुविधाओं के बीच भी वे आत्मा की शांति की खोज में रहते थे।
समय बीता और राजा समुद्रविजय ने नेमिनाथ के लिए राजकुमारी राजुल (राजीमती) का विवाह प्रस्ताव स्वीकार किया। राजुल विद्या, सौंदर्य और सद्गुणों की प्रतिमूर्ति थी। वह नेमिनाथ को बचपन से ही मन-ही-मन चाहती थी। विवाह की तैयारियाँ पूरे द्वारका में धूमधाम से होने लगीं। राजुल अपने सपनों के राजकुमार के स्वागत में स्वयं को सजा रही थी। उसकी आँखों में नेमिनाथ के साथ जीवन बिताने के अनगिनत सपने थे।
विवाह का शुभ मुहूर्त आया। नेमिनाथ अपने परिवार और मित्रों के साथ विवाह मंडप की ओर बढ़े। मार्ग में उन्होंने देखा कि मंडप के पास सैकड़ों पशुओं को बंदी बनाकर रखा गया है। इन पशुओं को विवाह व्यवस्था के लिए बांधा गया था। नेमिनाथ के हृदय में करुणा उमड़ पड़ी। उन्होंने पशुओं की आँखों में भय और पीड़ा देखी, और उनके भीतर गहन वैराग्य जाग उठा। नेमिनाथ ने पशुओं को मुक्त करने का आदेश दिया और बोले, “क्या मेरे सुख के लिए इन निर्दोष जीवों को मारना उचित है? अहिंसा ही धर्म है।“ नेमिनाथ ने अपने राजसी वस्त्र, मुकुट और आभूषण त्याग दिए और वैराग्य धारण कर मोक्षमार्ग पर निकल गए।
राजुल, जो विवाह मंडप में नेमिनाथ के स्वागत की प्रतीक्षा कर रही थी, ने जब यह समाचार सुना, तो उसका हृदय टूट गया। उसने नेमिनाथ के लिए सजे हुए वस्त्र और गहनों को देखा, और उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली। राजुल ने नेमिनाथ के पीछे दौड़ते हुए कहा, “स्वामी! क्या मुझे इस प्रकार अकेला छोड़ देंगे? क्या मेरा प्रेम और प्रतीक्षा व्यर्थ थी?“
नेमिनाथ ने शांत स्वर में उत्तर दिया, “राजुल, संसार का सुख क्षणिक है, आत्मा का सुख शाश्वत। मेरा मार्ग मोक्ष का है, जिसमें कोई बंधन नहीं। तुम भी चाहो तो इस मार्ग पर चल सकती हो।“ राजुल का हृदय विदीर्ण हो गया, लेकिन उन्होंने नेमिनाथ के निर्णय का सम्मान किया। कालांतर में राजुल ने भी दीक्षा लेकर साध्वी जीवन अपनाया और मोक्ष मार्ग पर अग्रसर हुईं।
नेमिनाथ गिरनार पर्वत पर चले गए। वहाँ उन्होंने कठोर तपस्या की। 54 दिन की घोर साधना के बाद उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उनके प्रथम गणधर वरदत्त बने। उनके समवसरण में श्रीकृष्ण, बलराम और अनेकों राजाओं ने धर्म का उपदेश सुना। नेमिनाथ ने अहिंसा, करुणा और आत्मज्ञान का संदेश दिया। अपनी आयु पूर्ण कर, आषाढ़ शुक्ल सप्तमी के दिन गिरनार पर्वत पर ही उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।
देवों के देव प्रभु नेमिनाथ स्वामी को बारम्बार नमोस्तु
।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।।
सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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