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अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (10)

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अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (10) (आचार्य माघनन्दीकृत)        पानीय-चन्दन-सदाक्षत-पुष्पपुंज- नैवेद्य-दीपक-सुधूप-फल-व्रजेन। कर्माष्टक-क्रथक-वीर-मनन्त-शक्तिं सम्पूजयामि महसा महसां निधानम्।। पानीय - जल चन्दन - चन्दन सत् - अक्षय अक्षत - अक्षत पुष्प-पुंज - पुष्पों का समूह नैवेद्य - नैवेद्य दीपक - दीपक सुधूप - अच्छी धूप फल - फल व्रजेन - समूह से कर्म - कर्म अष्टक - आठ क्रथक - नाश करके वीरम् - बलशाली अनन्त - अनन्त शक्तिम् -शक्ति को सम्पूजयामि - मैं पूजा करता हूँ महसा - उत्साह से महसाम् - आत्मतेज निधानम् - भण्डार अर्थ - मैं जल, चन्दन, अक्षय अक्षत, पुष्पों के समूह, नैवेद्य, दीपक, अच्छी धूप और फल के समूह से आठ बलशाली कर्मों का नाश करने वाले, अनन्त शक्ति वाले, उत्साह वाले आत्मतेज के भण्डार जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता हूँ । ऊँ ह्रीं अभिषेकान्ते श्रीवृषभादिवीरान्तेभ्योऽर्घ्यं निर्व. स्वाहा ।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।। सरिता जैन सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका हिसार 🙏🙏🙏 विनम्र निवेदन यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने वाला लगा हो तो कृपया comment के द्वारा अपने विचारों से ...

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (9)

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अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (9) (आचार्य माघनन्दीकृत)      सकल-भुवन-नाथं तं जिनेन्द्रं सुरेन्द्रै- रभिषव-विधि-माप्तं स्नातकं स्नापयामः। यदभिषवन-वारां, बिन्दु-रेकोऽपि नृणाम्, प्रभवति हि विधातुं भुक्तिसन्मुक्तिलक्ष्मीम्।। सकल - सारे भुवन - लोकों नाथम् - स्वामी तं - उन जिनेन्द्रम् - जिनेन्द्र भगवान को  सुरेन्द्रैः - सुरेन्द्रों के द्वारा अभिषव - अभिषेक की  विधिम् - विधि को आप्तम् - प्राप्त किया गया स्नातकम् - स्नातक अर्थात् 13वें व 14वें गुणस्थान वाले  स्नापयामः - अभिषेक करते हैं यत् - जो  अभिषवन - अभिषेक का वाराम् - जल बिन्दुः - बिन्दु एकः - एक  अपि - भी नृणाम् - मनुष्यों के लिए प्रभवति - सक्षम है हि - निश्चय से  विधातुं - देने में  भुक्ति - सांसारिक भुक्ति सन्मुक्ति - सद् मुक्ति रूपी लक्ष्मीम् - लक्ष्मी को अर्थ - सारे लोकों के स्वामी उन स्नातक अर्थात् 13वें व 14वें गुणस्थान वाले जिनेन्द्र भगवान को सुरेन्द्रों के द्वारा अभिषेक की विधि को प्राप्त किया गया, हम उनका अभिषेक करते हैं; जिस अभिषेक के जल की एक बिन्दु भी मनुष्यों के लिए निश्चय से सांसारिक...

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (8)

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अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (8) (आचार्य माघनन्दीकृत)       तीर्थात्तम-भवै-नीरै- क्षीर-वारिधि-रूपकैः। स्नपयामि सुजन्माप्तान् जिनान् सर्वार्थ-सिद्धिदान्। । तीर्थ - तीर्थ उत्तम - उत्तम भवैः - उत्पन्न नीरैः - जल के द्वारा क्षीर - क्षीर वारिधि - सागर के द्वारा रूपकैः - समान स्नपयामि - अभिषेक करता हूँ सुजन्म - मंगल अर्थात् अन्तिम जन्म को आप्तान् - प्राप्त किया है जिनान् - जिनेन्द्र भगवान का सर्वार्थ - सभी प्रकार की सिद्धिदान् - सिद्धि को देने वाले अर्थ - क्षीर सागर के समान उत्तम तीर्थ के द्वारा उत्पन्न जल के द्वारा जो सभी प्रकार की सिद्धि को देने वाले हैं और जिन्होंने मंगल अर्थात् अन्तिम जन्म को प्राप्त किया है, ऐसे जिनेन्द्र भगवान का मैं अभिषेक करता हूँ। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरान्तान् जलेन स्नपयामि स्वाहा। ।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।। सरिता जैन सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका हिसार 🙏🙏🙏 विनम्र निवेदन यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने वाला लगा हो तो कृपया comment के द्वारा अपने विचारों से अवगत करवाएं और दूसरे लोग भी प्रेरणा ले सकें इसलिए अधिक-से-अधिक share करें। धन्यव...

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (7)

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अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (7) (आचार्य माघनन्दीकृत)       कर्म-प्रबन्ध-निगडै-रपि हीनताप्तम्, ज्ञात्वापि भक्ति-वशतः परमादि-देवम्। त्वां स्वीय-कल्मष-गणोन्मथनाय देव। शुद्धौदकै-रभिनयामि महाभिषेकम्।। कर्म - कर्मों से प्रबन्ध - बंधे हुए निगडै - जंजीरों से अपि - भी  हीनता - कमी को  आप्तम् - प्राप्त होता है ज्ञात्वा - जानकर अपि - भी  भक्ति - भक्ति के वशतः - वशीभूत होकर  परम - श्रेष्ठ आदि - आदिनाथ देवम् - देव त्वां - आपको स्वीय - स्वयं के कल्मष - पापों के गण - समूह को उन्मथनाय - क्षय करने के लिए देव - हे जिनेन्द्र भगवान शुद्ध - शुद्ध उदकै- जल से अभिनयामि - अभिनन्दन करता हुआ महाभिषेकम् - महा अभिषेक करता हूँ कर्मों रूपी से जंजीरों से बंधे हुए होने पर भी और हीनता को प्राप्त होता हुआ भी और जानता हुआ भी भक्ति के वशीभूत होकर श्रेष्ठ आदिनाथ देव की स्वयं के पापों के समूह को क्षय करने के लिए, हे जिनेन्द्र भगवान! मैं शुद्ध जल से अभिनन्दन करता हुआ आपका महा अभिषेक करता हूँ। ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं झ्वीं झ्वीं क्ष्...

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (6)

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अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (6) (आचार्य माघनन्दीकृत)      आनन्द-निर्भर-सुर-प्रमदादि-गानै- र्वादित्र-पूर-जय-शब्द-कलप्रशस्तैः। उद्गीय-मान-जगती-पति-कीर्ति-मेनाम्, पीठस्थलीं वसु-विधार्चन-योल्लसामि।। आनन्द - आनन्द से निर्भर - पूर्ण रूप से भरे हुए सुर - देव प्रमदादि - देवों की स्त्रियाँ अर्थात् देवांगनाएं गानैः- गान से वादित्र - वाद्ययंत्र पूर - परिपूर्ण जय - जयजयकार शब्द - शब्द कल - गले की आवाज़ों से  प्रशस्तैः - प्रशस्त उद्गीय मान - गाता हुआ जगती पति -तीनों लोकों के स्वामी कीर्तिम् -कीर्ति को एनाम् - इस पीठस्थलीं - पीठस्थली को वसु - आठ विध - प्रकार से  अर्चनयो - अर्चना करता हुआ उल्लसामि - उल्लसित होता हूँ आनन्द से पूर्ण रूप से भरे हुए देवांगनाओं के गान से, वाद्ययंत्रों से परिपूर्ण जयजयकार के शब्दों को गले की आवाज़ों से, मैं प्रशस्त रूप से तीनों लोकों के स्वामी की कीर्ति को गाता हुआ इस पीठस्थली की आठ प्रकार से अर्चना करता हुआ उल्लसित होता हूँ। ऊँ ह्रीं स्नपनपीठ-स्थितजिनायार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा मैं स्नपन पीठ पर विराजमान जिनेन्द्र भगवान के लिए अर्घ्य समर्पित करता हूँ। ।। ओ...

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (5)

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अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (5) (आचार्य माघनन्दीकृत)    श्रीतीर्थवकृत्स्नपन  -  वर्य  -  विधौ  -  सुरेन्द्रः, क्षीराब्धि -वारिभि  -  रपूरय-  दुद्घ-  कुम्भान्। याँस्तादृशानिव विभाव्य यथार्हणीयान्, संस्थापये   कुसुम  -  चन्दन  -  भूषिताग्रान्।। श्रीतीर्थवकृत् - शोभायमान तीर्थ को चलाने वाले   स्नपन वर्य  - स्नान की  विधौ  - विधि   सुरेन्द्रः - देवताओं का इन्द्र अर्थात् सौधर्म इन्द्र क्षीराब्धि - क्षीर सागर के वारिभिः  - जल के द्वारा   अपूरयत् - पूर्ण रूप से भरा हुआ है  उद्घ - समूह को  कुम्भान् - कलशों का या: तादृशान् - वैसे इव - ही विभाव्य - मान कर यथा - जैसे मुझ से हो सकता है अर्हणीयान् - सम्मानपूर्वक  संस्थापये - स्थापना करता हूँ   कुसुम  - पुष्प   चन्दन  - चन्दन  भूषित - भूषित अग्रान् - जिनके आगे अर्थ - जो शोभायमान तीर्थ को चलाने वाले हैं, ऐसे तीर्थंकर जिनेन्द्र भगवान के स्नान की विधि देवताओं का इन्द्र अर्थात् सौधर्म इन्द्र क...

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (4)

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अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (4) (आचार्य माघनन्दीकृत)    भृंगार-चामर-सुदर्पण-पीठ-कुम्भः, तालध्वजातप-निवारक-भूषिताग्रे। वर्धस्व नन्द जय पाठ-पदावलीभिः, सिंहासने जिन भवन्त-महं श्रयामि।। भृंगार - झारी चामर - चवंर सुदर्पण - विशेष प्रकार का दर्पण पीठ - सिंहासन कुम्भः - कलश ताल - व्यजन (पंखा) ध्वजा - ध्वज आतप - ताप निवारक - निवारण करने वाला अर्थात् छत्र भूषित - शोभायमान अग्रे - सामने वर्धस्व - बढ़े  नन्द - आनन्द   जय - जयजयकार  पाठ - पाठ(उच्चारण) पद - पंक्तियों की आवलीभिः - समूहों के द्वारा सिंहासने - सिंहासन पर  जिन - जिनेन्द्र भगवान भवन्तम् - आपको  अहं - मैं श्रयामि - स्थापित करता हूँ जिनके सामने झारी, चवंर, विशेष प्रकार का दर्पण, पीठ, कलश, व्यजन (पंखा), घ्वज, ताप निवारण करने वाला अर्थात् छत्र - ये आठ शुभ मंगल द्रव्य शोभायमान हो रहे हैं, आनन्द बढ़ने के भाव को लेकर जयजयकार के पाठ (उच्चारण) की पंक्तियों के समूहों के द्वारा सिंहासन पर, हे जिनेन्द्र भगवान! आपको मैं स्थापित करता हूँ। वृषभादिसुवीरान्तान् जन्माप्तौ जिष्णुचर्चितान्। स्थापयाम्यभिषेकाय भक्त्या पीठे महोत्...

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (3)

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अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (3) (आचार्य माघनन्दीकृत)  श्रीपीठक्लृप्ते विशदाक्षतौघैः, श्रीप्रस्तरे पूर्ण-शशांककल्पे। श्रीवर्तके चन्द्र मसीतिवार्तां, सत्यापयन्तीं श्रियमालिखामि।। श्री - शोभायमान पीठ क्लृप्ते - सिंहासन पर विशद-विशाल अक्षतौघैः- धवल मणियों से युक्त श्री प्रस्तरे-शोभायमान शिला पर  पूर्ण-शशांक- पूर्णिमा के चन्द्रमा की कल्पे-कल्पना करने वाले श्री वर्तके- शोभा को बढ़ाने वाला  चन्द्रम् - चन्द्रमा ही  असि- है इति - इस प्रकार की वार्तां- वार्ता के सत्या-सत्य को पयन्तीं- स्थापित करने के लिए श्रियम्- श्री कार लिखामि- लिखता हूँ शोभायमान सिंहासन पर, जो विशाल धवल मणियों से युक्त शोभायमान शिला पर स्थापित है, ऐसी शोभायमान शिला पर पूर्णिमा के चन्द्रमा की कल्पना के समान शोभा को बढ़ाने वाला चन्द्रमा के समान ही है, इस प्रकार की वार्ता के सत्य को स्थापित करने के लिए मैं ‘श्री कार’ लिखता हूँ। ऊँ ह्रीं अर्हं श्रीकारलेखनं करोमि। कनकाद्रि-निभं कम्रं पावनं पुण्य-कारणम्। स्थापयामि परं पीठं जिनस्नपनाय भक्तितः।। कनक - सोना आद्रि - पर्वत निभं - समान कम्रं - शोभा वाला पावनम् - पुनीत पुण्य-का...

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित(2)

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  अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (2) (आचार्य माघनन्दीकृत) याः कृत्रिमास्तदितराः प्रतिमा जिनस्य संस्नापयन्ति पुरुहूत-मुखादयस्ताः। सद्भाव-लब्धि-समयादि-निमित्त-योगात्। तत्रैव-मुज्ज्वल-धिया कुसुमं क्षिपामि।। याः - जो  कृत्रिमाः - बनाए गए हैं तत् - उससे इतराः - विपरीत अर्थात् अकृत्रिम प्रतिमा - प्रतिमा जिनस्य - जिनेन्द्र भगवान की संस्नापयन्ति - अभिषेक करते हैं पुरुहूत - देवों में  मुख - प्रमुख आदयः - आदि ताः - वह सद्भाव - समीचीन भावों से लब्धि - प्राप्त समयादि - समय आदि के निमित्त - निमित्त के योगात् - योग से तत्र - वहाँ एवम् - वैसा ही उज्ज्वल - प्रकाशित धिया - बुद्धि वाला होता हुआ कुसुमम् - पुष्प को क्षिपामि - क्षेपण करता हूँ अर्थ - जो जिनेन्द्र भगवान की कृत्रिम प्रतिमाएं और उससे विपरीत अकृत्रिम प्रतिमाएं हैं, उनकी देवों में प्रमुख सौधर्म इन्द्र आदि ने स्थापना की है और अभिषेक किया है। समीचीन अर्थात् सच्चे भावों को व सम्यक् समय आदि को प्राप्त करके इन निमित्तों के योग से यहाँ देवों जैसा ही प्रकाशित, उज्ज्वल बुद्धि वाला होता हुआ मैं पुष्प को क्षेपण करता हूँ।     ।। ओऽम् श्री मह...

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित(1)

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  अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (आचार्य माघनन्दी कृत) श्रीमन्-नतामर-शिरस्तट-रत्नदीप्ति। तोयाव-भासि-चरणाम्बुज-युग्ममीशम्। अर्हंतमुन्नत-पद-प्रदमाभिनम्य- तन्मूर्ति-षूद्यदभिषेक-विधिं करिष्ये।। श्रीमत् - जो श्री अर्थात् लक्ष्मी के वैभव से शोभायमान हैं नत - झुके हुए अमर- देवताओं के शिरः - सिर के तट - तट में स्थित अर्थात् मुकुट में लगे हुए रत्नदीप्ति - रत्नों की दीप्ति अर्थात् कांति को तोयाव-भासि- बढ़ाने वाले चरण-अम्बुज - चरण कमल युग्मम् - दोनों को ईशम् - भगवान के अर्हंतम् - अरिहंत  उन्नतपदम् - मोक्ष रूपी पद को प्रदम् - देने वाले अभिनम्य - नमस्कार करके तन्मूर्तिषु - उन मूर्तियों पर उद्यत् - उद्यम/तैयार हुआ हूँ अभिषेक - अभिषेक की विधिं - क्रिया को करिष्ये - करने के लिए या करूँगा अर्थ - जो श्री अर्थात् लक्ष्मी के वैभव से शोभायमान हैं, ऐसे झुके हुए देवताओं के सिर के तट में स्थित अर्थात् मुकुट में लगे हुए रत्नों की दीप्ति को बढ़ाने वाले मोक्ष रूपी पद को देने वाले अरिहंत भगवान के दोनों चरण कमलों को नमस्कार करके उन मूर्तियों पर अभिषेक की क्रिया को करने के लिए तैयार हुआ हूँ अथवा करूँगा। अथ पौर्वाह्नि...

प्रश्नमंच

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  जैन चेतना फोरम प्रश्नमंच-1 अष्ट कर्मों में एक कर्म ये भी है- ।.सम्यक्दर्शन 2. संवर 3. नाम 4. मोक्ष उत्तर- 3. नाम कर्म तीर्थंकर अपने माता पिता को क्या बोलकर नमस्कार करते है ? ।. नमोस्तु 2. वन्दामि 3. इच्छामी 4. किसी को नमस्कार ही नहीं करते। उत्तर- 4. किसी को नमस्कार ही नहीं करते। कर्मों की निर्जरा का सबसे उत्तम उपाय क्या है? ।. देवदर्शन 2. स्वाध्याय 3. व्रत उपवास आदि तपस्या द्वारा 4. उपरोक्त तीनों उत्तर- 4. उपरोक्त तीनों शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ भगवान के प्रथम चार कल्याणक कौन से तीर्थ स्थान से हुए? ।. श्रावस्ती 2. हस्तिनापुर 3. अयोध्या जी 4. राजगृही उत्तर- 2. हस्तिनापुर सातों नरक की भूमियों के नाम में से एक नाम ये है? ।. वंशा 2. प्रणत 3. आरोध 4. पंकप्रभा उत्तर- 4. पंकप्रभा मंगल कितने होते हैं? ।. चार 2. पांच 3. छः 4. सात उत्तर- ।. चार रत्नक र ण्डक श्रावकाचार्य के रचयिता कौन है? ।. श्री मानतुंग आचार्य जी 2. उमास्वामी जी 3. कुंदकुंद स्वामी जी 4. श्री समन्त भद्र स्वामी जी उत्तर-4. श्री समन्त भद्र स्वामी जी इन जीवों को सम्यक् दर्शन नहीं होता है। ।. अभव्य जीव 2. देव गति के जीव 3...

तत्त्वार्थसूत्र शंका समाधान भाग-५३

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  तत्त्वार्थसूत्र शंका समाधान भाग-५३ तृतीय अध्यायः- शंका ६८ -विजयार्द्ध पर्वत यह नाम क्यों है? इसके अन्य भी नाम बताइये? समाधान - चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र की अर्द्धसींमा इस पर्वत से निर्धारित होती है। अतः इसका नाम ‘विजयार्द्ध’ सार्थक है। गुण से यह ‘रजताचल’ है अर्थात् चांदी से निर्मित एवं शुभ्र वर्ण है। शंका ६९-चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ति कहाँ लिखते हैं? समाधान -विजयार्द्ध से उत्तर में और क्षुद्र हिमवान पर्वत से दक्षिण दिशा में गंगा, सिन्धु नदियों तथा म्लेच्छ खण्डों के मध्य में एक सौ योजन ऊँचा, पचास योजन लम्बा जिनमंदिरों से युक्त स्वर्ण व रत्नों से निर्मित एक वृषभगिरि नामक पर्वत है। इस पर्वत पर चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ति लिखते हैं। शंका ७० -विजयार्द्ध व म्लेच्छखंडों में कौन सा काल रहता है? समाधान -भरतक्षेत्र के म्लेच्छखण्ड में और विजयार्द्ध पर्वत पर चतुर्थकाल के आदि और अन्त के सदृश काल रहता है। शंका ७१ -विजयार्द्ध पर उत्पन्न मानव क्या कहलाते हैं? उनकी आजीविका क्या है? समाधान -विजयार्द्ध पर्वत निवासी मानव यद्यपि भरतक्षेत्र के मानवों के समान षट्कर्मों से ही आजीविका करते हैं, परन्तु प्रज्ञप्ति...

अंतर का दीया

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  अंतर का दीया तुम सोचते हो कि संसार की यात्रा में तुम अकेले हो, परमात्मा भी साथ नहीं है। याद रखना कि जिनको तुमने संग-साथ समझा है, यह केवल नदी-नाव संयोग है। बस! कुछ अजनबी इकठ्ठे हो गये हैं नाव मे। कोई पत्नी बन गई है, कोई पति बन गया है, कोई बेटा बन गया है, कोई भाई बन गया है, कोई मित्र बन गया है..... और नाव में बैठे-बैठे थोड़ी देर में ही हमने कैसे-कैसे खेल रचा लिए हैं - मोह के, आसक्ति के, राग के। यहां तुम बिल्कुल अकेले हो। मगर तुमने भ्रांति से यह सोच बना लिया है कि ये सब मेरे हैं, भाई है, पत्नी है, बेटा है, मित्र हैं, सब हैं। परिवार है, प्रियजन हैं। जरा सोचो। एक बार फिर से पर्दा उठाकर देखो अपने भीतर का! तुम बिल्कुल अकेले हो या नहीं? पत्नी बाहर है, पति बाहर है, भीतर तो तुम बिल्कुल अकेले हो। यह संग-साथ झूठा है। यह छोड़ना पड़ेगा, तो असली संगी मिलेगा। इसलिए मैं कहता हूं, अकेले रह जाओ तो इसका मतलब यह मत समझना कि तुम अकेले हो गये। जब तुम अकेले रह जाओगे, तब तुम अचानक पाओगे कि परमात्मा तुम्हारे साथ मौजूद है। असली संगी, असली साथी तुम्हारे साथ मौजूद है और उसकी मौजूदगी ऐसी नहीं है कि वह पराया है। ...

परहित-सबसे बड़ा धर्म

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परहित-सबसे बड़ा धर्म एक बार भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन भ्रमण के लिए कहीं निकले थे तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा मांगते देखा। अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राह्मण को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी। जिसे पाकर ब्राह्मण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर की ओर लौट चला, किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था। राह में एक लुटेरे ने उससे वह पोटली छीन ली। बेचारा वह ब्राह्मण दुःखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया। अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राह्मण पर पड़ी, तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा। ब्राह्मण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया। उसकी व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गयी। अर्जुन ने अपने मन में विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राह्मण को एक मूल्यवान एक माणिक दे दिया। ब्राह्मण उसे लेकर घर पंहुचा। उसके घर में एक पुराना घड़ा था, जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था। ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया, किन्तु उसका दुर्भाग्य दिन भर का थका मांदा होने के कारण उसे नींद आ गयी। इस बीच ब्राह्मण क...