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Showing posts from February, 2023

प्रेम का घोड़ा

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प्रेम का घोड़ा एक व्यापारी को अपने घोड़े से अनंत प्रेम था। एक बार वह घोड़े को लेकर यात्रा पर निकला। रात उसने एक गाँव में बिताई। लोगों की निगाह उसके घोड़े पर पड़ते ही वे उसकी ओर आकर्षित हो जाते थे। घोड़ा अत्यन्त सुंदर और शक्तिशाली था। उसकी चमक, उसकी चाल, उसकी तेजी, उसकी शान और पैरों की टॉप ने लोगों को मोह लिया। जो भी उस घोड़े को देखता, वह ईर्ष्या से भर जाता और सोचता कि यह तो मेरे पास होना चाहिए था। इसके पास क्यों है ? गाँंव के बड़े-बड़े लोगों ने आकर उससे कहा कि जो भी कीमत लेनी है ले लो लेकिन यह घोड़ा हमें दे दो। व्यापारी ने कहा कि इस घोड़े से मुझे अत्यंत गहन प्रेम है और प्रेम कभी भी बेचा नहीं जाता। जो बेचा जाता है, वह प्रेम नहीं है। लोगों का मन ईर्ष्या से भर गया। उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि किसी भी प्रकार से इस घोड़े को प्राप्त करना है। दूसरे गाँव में पहुँचकर व्यापारी ने घोड़े को रात में एक वृक्ष से बांधा और स्वयं भी वहीं पर लेट गया। सुबह जब वह उठा तो घोड़ा वहाँ पर नहीं था। गाँव के लोग वहाँ पर एकत्रित होकर कहने लगे कि यह तो बहुत दुःख की बात है कि हमारे गाँव में तुम्हारा घोड़ा चोरी चला गया है। यह ...

बाल संस्कारों का प्रभाव

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बाल संस्कारों का प्रभाव जिनसेन बाल्यकाल से ही बड़ा प्रतिभाशाली होनहार बालक था, क्योंकि उसकी माता ने जन्म से उसमें आध्यात्म के संस्कार कूट-कूट कर भर दिए थे। लोरिया भी आध्यात्मिक ही गाकर माँ बच्चे को सुलाती थी। शुद्ध बुद्ध तू नित्य निरंजन, जग की माया से अविकार। तू जिनेंद्र सा सैनिक बनकर, शीघ्र करे कर्मा का क्षार।। एक दिन बालक जिनसेन ने कहा - माँ! मुझे गीत बहुत अच्छे लगते हैं। क्या मैं पड़ोस में हो रहे गीतों को सुन आऊँ ? माँ ने कहा - बेटा! चला जा। सुन आ, किंतु जल्दी लौट कर आ जाना। जिनसेन बहुत देर तक गीत सुनता रहा, किंतु थोड़ी देर के पश्चात् उसे वे गीत अब अच्छे नहीं लग रहे थे। तब वह दौड़कर घर आया और माँ से पूछने लगा - माँ! अब वे गीत अच्छे क्यों नहीं लग रहे हैं ? क्या यह गाने वाले कोई दूसरे हैं ? माँ ने समझाया - बेटा! गाने वाले तो वही हैं किंतु अब परिस्थिति बदल गई है। जिस बच्चे का जन्म हुआ था, वह अभी-अभी मर गया है। इससे वे गीत रोने में बदल गए हैं। यह सुनकर जिनसेन को अच्छा नहीं लगा। वह सन्न रह गया। वह घबराते हुए बोला - माँ! लोग मरते क्यों हैं ? माँ ने समझाया - आयु पूर्ण हो जाने पर लोग मर जाते ह...

गोलू की सूझ

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गोलू की सूझ एक बेहद पिछड़े गाँव में गोपाल आसरे नाम का एक लड़का रहता था। माता-पिता का इकलौता पुत्र होने के कारण गोपाल को सभी सुख सुविधाएं प्राप्त थी, फिर भी वह बेहद दुःखी रहता था। कारण कि गाँव में कोई स्कूल नहीं था, जिससे वह आगे नहीं पढ़ पा रहा था। उसने अपने माता-पिता से शहर जाकर आगे पढ़ने की आज्ञा मांगी, किंतु उन्होंने कठोर शब्दों में इंकार कर दिया। इससे गोपाल इतना अधिक दुखी हुआ कि उसने खाना-पीना ही छोड़ दिया था। हार कर उसके पिता ने गोपाल को शहर के एक स्कूल में प्रवेश दिला दिया। गाँव वालों ने सुना तो कहने लगे - बेचारा गोलू! उसके भाग्य में शहर की धूल ही लिखी थी। पता नहीं क्यों वह गाँव का सुख छोड़कर आँख फोड़ने शहर चला गया। गोपाल का नाम गाँव में बेचारा गोलू हो गया। गोपाल ने छुट्टी में गाँव आने पर सुना तो हंसते-हंसते दोहरा हो गया, पर वह जहाँ से भी निकलता, सभी उसे दयनीय नज़रों से देख कर कहते - बेचारा गोलू शहर में रहकर कैसा कमज़ोर हो गया है ? अरे! इसकी तो मति मारी गई है। जितने मुंह उतनी बातें। इन बातों से परेशान हो गोपाल ने गाँव आना-जाना कम कर दिया। उसने सोचा कि जब वह खूब पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बन जाएगा,...

सत्य की महिमा

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सत्य की महिमा चेतन राम नाम के लड़के ने चौथी कक्षा की पुस्तक में दोहा पढ़ा था कि - प्रातः काल की वायु को, सेवन करत सुजान, ताते मुख छवि बढ़त है, बुद्धि होत बलवान। तद्नुसार वह प्रतिदिन प्रातः 5.00 बजे पास के बगीचे में घूमने जाया करता था। एक दिन जब वह बगीचे से घर को लौट रहा था तो उसे एक वृक्ष के नीचे पड़ा हुआ एक बटुआ मिला। उसने उसे खोलकर देखा तो उसमें सौ-सौ के नोट दिखे। उसने उनको गिना तो वे 12 नोट निकले। उसने सोचा कि हो न हो यह बटुआ किसी बड़े आदमी का होना चाहिए। वह दौड़ा-दौड़ा उसे अपनी मां के पास ले गया और ख़ुशी-ख़ुशी कहने लगा कि माँ! मुझे एक वृक्ष के नीचे यह बटुआ मिला है, जिसमें सौ-सौ के 12 नोट हैं। यद्यपि उसके माता-पिता बहुत ग़रीब थे और किसी तरह मेहनत-मजदूरी करके अपना और अपने बच्चों का पालन-पोषण करते थे, किंतु वे बहुत ईमानदार थे। माता ने तुरंत लड़के से कहा कि अपने को दूसरे के पैसे हराम में नहीं चाहिए। उसे आदेश दिया कि जिस वृक्ष के नीचे उसे यह बटुआ मिला था, उसी स्थान पर जाकर बैठना। जिसका यह बटुआ होगा, उसके खोए हुए बटुए को तलाशने के लिए वहाँ आने पर तुम उसे दे देना। माता की आज्ञा अनुसार लड़का जाकर उ...

भाग्य के चमत्कार

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भाग्य के चमत्कार प्राचीन भारत में हेमांगद नाम का देश था। उसके नागरिक स्वर्ण के भुजबंद पहनते थे। किसी घर में सोने की कमी नहीं थी, इसलिए उसे हेमांगद देश कहा जाता था। इसी देश में राजपुर नाम का नगर था। यह ऐसे राजा का नगर था, जहाँ राज्य को सभी नागरिक मिलजुल कर चलाते थे। भाग्य से इस राजपुर के मन मोहने वाले मनोहर नाम के बगीचे में विशेष बुद्धि, प्रज्ञा और प्रतिभा के धनी, शास्त्रों के ज्ञाता तथा प्राणी के पूर्व जन्मों के ज्ञाता निमित्त मुनिराज शीलगुप्त विहार करते हुए पधारे। नगर में मुनिराज के शील, चरित्र और विद्वत्ता की चर्चा चारों ओर होने लगी। नागरिक विशेष रूप से पवित्र आहार तैयार करने लगे और मुनिराज को आहार दान करके पुण्य कमाने लगे। उनके प्रवचन या उपदेश सुखी सांसारिक जीवन एवं सम्पन्न-समृद्ध जन्मांतर के जीवन के लिए कल्पवृक्ष बन गए। राजपुर नगर धर्मपुर नगर बन गया। पूर्व संचित पुण्यों के उदय से पुण्य नगर हो गया। सब के दिन धर्म आराधना में बीतने लगे। राजपुर नगर का एकमात्र प्रसिद्ध श्रेष्ठी गंधोत्कट व्यापार के लिए देश-विदेश के चक्कर लगाने के बाद अटूट धन कमा कर लौटा ही था कि उसे समाचार मिला - ‘राजपुर...

असली हीरा

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असली हीरा एक विदुषी महिला पहाड़ियों में घूम रही थी। एक नदी किनारे उसे बहुत ही कीमती नग मिला। अगले दिन उसकी मुलाकात एक भूखे-प्यासे, थके-हारे मुसाफ़िर से हुई। महिला ने अपना झोला खोला और अपना खाना उसके साथ बाँट कर खा लिया। मुसाफ़िर की नज़र उस हीरे पर पड़ी। उसे वह हीरा बहुत पसंद आया। उसने महिला से याचना की कि वह हीरा उसे दे दे। महिला ने बिना किसी संकोच के हीरा उसे दे दिया। मुसाफ़िर अपनी किस्मत पर खुश होता हुआ वहाँ से चला गया। वह जानता था कि हीरा बहुत कीमती है और अब उसे ज़िंदगी भर पैसों की कोई कमी नहीं होगी। कुछ दिनों बाद वही मुसाफ़िर उस विदुषी महिला को ढूंढता हुआ वापिस आया। उसने वह हीरा महिला को वापिस किया और बोला - मैं जानता हूँ कि यह हीरा कितना कीमती है। फिर भी इसे लौटा रहा हूँ। मैं आपके पास इससे भी अधिक कीमती चीज़ पाने की आशा से आया हूँ। महिला के पास उस समय कुछ भी नहीं था। वह सोच में पड़ गई। महिला के असमंजस भरे मौन को तोड़ते हुए मुसाफ़िर बोला - हो सके तो अपने भीतर का वह बेशकीमती ज्ञान मुझे दे दीजिए, जिसके कारण आपने हीरा मुझे दे दिया था। वास्तव में असली हीरा तो वह संतोष रूपी धन है, जो मन को शांत रखत...

पंडित

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पंडित एक गांव में दीनू नाम का पंडित रहता था। गांव का अकेला पंडित होने से वह गांव वालों के लिए किसी महापंडित से कम नहीं था। सभी उसे पंडित के नाम से ही जानते थे। आसपास के गांवों में भी उसकी धाक थी। यद्यपि कभी-कभी वह पंडिताई करते-करते हठात् अहम् भाव से ‘मेरा नाम दीनू पंडित है’ - ऐसा कह भी देता था, तथापि सभी लोग उसे पंडित कहकर ही बुलाते थे एवं उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा भी करते थे। एक दिन वह हमेशा की तरह शाम को घर पहुंचा। उस दिन वह बहुत ही प्रसन्न था। 3 दिनों से जिस पंडित को खिचड़ी पर गुजारा करना पड़ रहा था, उस दिन उसकी मुट्ठी में 100 रुपए का नोट था। तभी पंडित ने ध्यान दिया कि उसका लड़का ज़ोर-ज़ोर से सबक याद कर रहा है - जिसका पैर न डिगे, जो सबको तारे, भवसागर से पार कर दे, उसे पंडित कहते हैं। अचानक पंडित की स्वप्निल मधुर निद्रा भंग हो गई। वह सोचने लगा - आज उसके लड़के ने उसे पंडित का सही अर्थ बता दिया। वह अन्तर्द्वन्द्व की पीड़ा भोगने लगा। बाहर 100 रुपए का लोभ और अंदर सही अर्थों में पंडित न बनने का शोक। अब तक उसका पुत्र सो चुका था। दीपक की लौ भभकने लगी थी। स्थिरमति से उसने दीपक में तेल डाला। दीपक पु...

स्वार्थी

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स्वार्थी पुराने सिक्कों की तरह शब्दों के अर्थ बदलते रहते हैं। आज अगर कोई महाराज हर्ष के समय का सिक्का लेकर बाजार जाए तो उसे कोई नहीं लेगा। स्वार्थी इसी तरह का एक शब्द है। कभी स्वार्थी (स्व अर्थी) आत्मचिंतन के लिए प्रयोग किया जाता था। आज यह एक प्रकार की गाली बन गया है। जैसे किसी को कहा जाए - स्वार्थी कहीं का, तो वह अपशब्द माना जाता है। एक बार एक दानी व्यक्ति स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास गया और उन्हें सोने की सौ अशर्फियां भेंट की। स्वामी जी ने कहा - सेठ जी! मैं तो सोना छूता ही नहीं। ये अशर्फियां मेरे काम की नहीं। इन्हें वापस ले जाओ। तुम्हारे काम आएंगी। सेठ पर स्वामी रामकृष्ण परमहंस का बहुत प्रभाव पड़ा। वह बोला - महाराज, आप तो परम निःस्वार्थी हैं। मैंने आप जैसा स्वामी महात्मा कहीं नहीं देखा। स्वामी रामकृष्ण ठहाका लगाकर हँसे और बोले - मैं और निःस्वार्थी! अरे सेठ! मैं परम स्वार्थी मनुष्य हूँ। यही कारण है कि मैं सोना नहीं छूता। स्वामी जी के कहने का आशय यह था कि वह स्व या आत्म की प्राप्ति के लिए, आत्मज्ञान के लिए सांसारिकता से दूर रहते हैं। जो अपनी आत्मा को सोने-चाँदी के लिए, भौतिक सुखों के ल...

पिता सदा साथ हैं

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पिता सदा साथ हैं एक गांव में किसान पिता-पुत्र रहते थे। बेटा छोटा था, इसलिए पिता उसे ज्यादा काम नहीं करने देते थे, पर वह उनका हाथ बंटा दिया करता था। एक दिन किसी गलतफहमी की वजह से सिपाही पिता को पकड़कर ले गए और उन्हें जेल में डाल दिया गया। बेटा यह सब देखकर सहम गया। वह पिता से मिलने जेल में गया लेकिन उसे मिलने नहीं दिया गया। बेटे को खेती के बारे में ज्यादा पता नहीं था। बीज डालना उसे आता था पर खेत जोतने के बारे में उसे कुछ भी पता नहीं था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ? कुछ दिनों बाद एक सिपाही उसके पिता की चिट्ठी लेकर आया। पिता ने लिखा था - बेटा! सिपाही मुझे तुमसे मिलने नहीं देंगे, इसलिए तुम खेत खोदकर धन निकाल लेना और सुरक्षित स्थान पर रख देना। बेटे की समझ में कुछ नहीं आया। सिपाही ने वह पत्र पढ़ा तो दूसरे सिपाहियों को बुलवाकर पूरा खेत खोद डाला, पर उन्हें कहीं भी धन नहीं मिला। दूसरे दिन उसे पिता का एक और खत मिला। उसमें लिखा था - बेटा! मुझे आशा है कि सिपाहियों ने खेत खोद दिया होगा। अब तुम उसमें आराम से बीज बो सकते हो। जेल के अंदर रह कर मैं तुम्हारी बस इतनी ही मदद कर सकता था। अब बेटे...

आशीर्वाद और निर्लिप्तता

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आशीर्वाद और निर्लिप्तता महाभारत के युद्ध को धर्म-युद्ध की संज्ञा दी जाती है। जब एक-एक कर के अधिकांश कौरव खेत रहे और युद्ध उत्तरार्ध की ओर तेज़ गति से बढ़ने लगा, तो दुर्योधन व दुःशासन हताश होकर निराशा से भरे अपनी माता गांधारी की सेवा में उपस्थित हुए। चरण छूने की औपचारिकता के बाद दुर्योधन ने करुण स्वर में माता गांधारी से युद्ध में जीतने के लिए आशीर्वाद मांगा। पर नियति देखिए कि माता गांधारी ने ऐसा आशीर्वाद देने में असमर्थता जताई। गांधारी ने तद्विषयक आशीर्वाद देने से स्पष्ट मना कर दिया। कुछ ही समय बीता होगा कि पाँचों पांडव भी दर्शन-मिलन के लिए गांधारी के पास पहुंचे। जब पांडव लौटने लगे तो माता गांधारी से ममतावश नहीं रहा गया और उसने निश्छलता से युधिष्ठिर से पूछ ही लिया - ‘बेटे! विजय श्री का आशीर्वाद नहीं मांगोगे ? ’ युधिष्ठिर बोले - ‘नहीं, माता श्री!’ गांधारी ने फिर पूछा - ‘क्यों, पुत्र ? ’ युधिष्ठिर का उत्तर था - ‘विजय श्री का आशीर्वाद माँग कर मैं आपको धर्म-संकट में नहीं डालना चाहता।’ आज दैनंदिन जीवन में यदि हर नागरिक युधिष्ठिर के इस दृष्टिकोण को व्यवहार में स्वीकार कर ले, तो अधिकांश समस्याएं...

तांत्रिक

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तांत्रिक संपादक बहुत दिनों से लेखक की रचनाएं नहीं छाप रहा था। लेखक तमतमाया हुआ संपादक के कार्यालय में पहुंचा। उसने संपादक से जवाब तलब किया। संपादक ने ऊट-पटांग जवाब दिए। लेखक तैश में आ गया और ठेठ देशी साहित्य पर उतर आया। संपादक ने कहा - बेहतर होगा, आप चुपचाप चले जाएँ, वरना....! ‘वरना क्या ? तू मुझे फांसी पर चढ़ा देगा ? मैंने बड़े-बड़े संपादकों की ऐसी-तैसी कर दी है। तू तो बेचता क्या है ? कल का छोकरा....। कल तक तो मुझसे रचनाएं ठीक कराता था। अब संपादक बन गया तो अपने को लेखकों का मसीहा समझता है’, लेखक भड़का। संपादक ने चपरासी के जरिए लेखक को अपने केबिन से बाहर कर दिया। लेखक बड़बड़ाता हुआ चला गया। रास्ते में उसकी भेंट एक तांत्रिक से हुई। तांत्रिक को अपनी समस्या बताकर लेखक बोला - आप कोई ऐसी तरकीब निकालें, जिससे वह जल्दी से जल्दी संपादक के पद से हटा दिया जाए। तांत्रिक ने मंत्र पढ़कर अँगूठी पर फूँक मारी और कहा - आप इस अँगूठी को पहन लीजिए। 10 दिन में आपका काम हो जाएगा। लेखक ने तांत्रिक को 5 रुपए दिए और अँगूठी पहन कर चला गया। शाम को कार्यालय से लौटते समय संपादक की भेंट उसी तांत्रिक से हुई। अपनी परेश...