सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 4)
सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 4) जिनदीक्षा व मोक्ष गमन इस प्रकार प्रभु के अंतर में वैराग्य का समुद्र उमड़ पड़ा। उसकी लहरों का घोष लौकान्तिक स्वर्ग तक जा पहुँचा। वे वैराग्य में सराबोर लौकान्तिक देव तुरन्त वाराणसी नगरी में आकर प्रभु के वैराग्य का अनुमोदन करने लगे - हे देव! धन्य है आपका वैराग्य! आपका दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय अति उत्तम है। उसी समय इन्द्र भी दीक्षा कल्याणक के लिए स्वर्ग लोक से ‘मनोगति’ नामक दिव्य शिविका लेकर आ पहुँचे और भगवान उसमें विराजमान होकर दीक्षावन के लिए चल पड़े। दीक्षावन में पहुँच कर प्रभु ने वस्त्राभूषण आदि सर्व परिग्रह उतार दिया और ‘सिद्धेभ्यो नमः’ का मंगलोच्चारण करके वे मुनिराज सुपार्श्व शुद्ध आत्मध्यान में लीन हो गए। तत्क्षण शुद्धोपयोग के परम आनन्द की अनुभूति सहित सातवां गुणस्थान एवं मनःपर्यय ज्ञान प्रगट हुआ। सोमखेटनगर में राजा महेन्द्रदत्त ने मुनिराज सुपार्श्व को प्रथम आहार दिया। उन्होंने मात्र प्रथम आहारदान ही नहीं दिया, अपितु प्रभु से स्वयं के लिए भी मोक्ष का दान प्राप्त कर लिया। सुपार्श्व प्रभु ने नौ वर्ष तक मुनिदशा में आत्मसाधनापूर्...