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Showing posts from May, 2022

सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 4)

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सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 4) जिनदीक्षा व मोक्ष गमन ​​इस प्रकार प्रभु के अंतर में वैराग्य का समुद्र उमड़ पड़ा। उसकी लहरों का घोष लौकान्तिक स्वर्ग तक जा पहुँचा। वे वैराग्य में सराबोर लौकान्तिक देव तुरन्त वाराणसी नगरी में आकर प्रभु के वैराग्य का अनुमोदन करने लगे - हे देव! धन्य है आपका वैराग्य! आपका दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय अति उत्तम है। उसी समय इन्द्र भी दीक्षा कल्याणक के लिए स्वर्ग लोक  से ‘मनोगति’ नामक दिव्य शिविका लेकर आ पहुँचे और भगवान उसमें विराजमान होकर दीक्षावन के लिए चल पड़े। दीक्षावन में पहुँच कर प्रभु ने वस्त्राभूषण आदि सर्व परिग्रह उतार दिया और ‘सिद्धेभ्यो नमः’ का मंगलोच्चारण करके वे मुनिराज सुपार्श्व शुद्ध आत्मध्यान में लीन हो गए। तत्क्षण शुद्धोपयोग के परम आनन्द की अनुभूति सहित सातवां गुणस्थान एवं मनःपर्यय ज्ञान प्रगट हुआ। सोमखेटनगर में राजा महेन्द्रदत्त ने मुनिराज सुपार्श्व को प्रथम आहार दिया। उन्होंने मात्र प्रथम आहारदान ही नहीं दिया, अपितु प्रभु से स्वयं के लिए भी मोक्ष का दान प्राप्त कर लिया। सुपार्श्व प्रभु ने नौ वर्ष तक मुनिदशा में आत्मसाधनापूर्...

सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 3)

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सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 3) राज्याभिषेक और वैराग्य भावना राजकुमार सुपार्श्व जब 8 वर्ष के हुए, तब उन्होंने देशसंयम धारण किया। उन्होंने अप्रत्याख्यानरूप चार कषायों का नाश करके पंचम गुणस्थान प्रगट किया। प्रत्याख्यान तथा संज्वलनरूप कषाय अति मन्द रूप में शेष रहे। वे अमर्यादित भोग-सामग्री के बीच रह कर भी अपनी आत्मा की ही संयमपूर्वक साधना में लीन रहते थे। उनकी बाह्य वृत्तियाँ अति मर्यादित थी और परिणाम विशुद्धि द्वारा प्रति समय उनके कर्मों की निर्जरा होती रहती थी। आत्मा के समान उनका शरीर भी स्वभावतः पवित्र था। उन्हें श्रम-खेद-शोक-प्रस्वेद या मल-मूत्र आदि किसी प्रकार की अशुचि नहीं थी। वे अतुल्य शारीरिक बल के धारी थे। उनके सान्निध्य में उनके मधुर वचनों को सुन कर सबके मुख पर सदा प्रसन्नता छायी रहती थी। वे जन्म से ही मति-श्रुत-अवधि, तीन ज्ञान के धारी थे, अतः उन्हें किसी गुरु के पास जाने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि वे आत्मज्ञान के साथ-साथ लौकिक विद्याओं में भी पारंगत थे। जब वे बोलते थे, तो उनके मुख से मोक्षमार्ग के ही पुष्प झरते थे। राजकुमार सुपार्श्व धीरे-धीरे युवावस्था को प्...

सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 2)

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सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 2) वाराणसी नगरी में तीर्थंकर-अवतार आज से असंख्यात वर्ष पहले काशी देश में गंगा नदी के किनारे वाराणसी (काशी) नगरी में महाराजा सुप्रतिष्ठ राज्य करते थे। उनकी महारानी पृथिवीसेना महान् रूप-गुण व सौभाग्य से युक्त थी। वे इसलिए भी महान् थी कि उन्हें एक जगत्पूज्य तीर्थंकर की जननी बनने का सौभाग्य मिलने जा रहा था। भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को उन्होंने सुखनिद्रा में 16 मंगल स्वप्न देखे और एक सफेद हाथी को अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा। उसी समय वह अहमिन्द्र का जीव उनकी कुक्षि में तीर्थंकर के रूप में अवतरित हुआ। तीर्थंकर आत्मा के समागम से वे किसी अनुपम सुख का अनुभव कर रही थी। गर्भावस्था होने पर भी उन्हें किसी प्रकार की कुरूपता या कष्ट का अनुभव नहीं हो रहा था। उनके आँगन में प्रतिदिन करोड़ों रत्नों की वर्षा होती थी। भवनवासी देवियाँ माता की सेवा करती और अनेक प्रकार की धर्मचर्चा करके उन्हें प्रमुदित करती। तीर्थंकरत्व और ज्ञानचेतना के प्रताप से उन्होंने गर्भावस्था के सवा नौ महीने सुखपूर्वक व्यतीत किए। ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी की सुप्रभात तीनों लोक में मंगल बधाई क...

सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 1)

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सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी (भाग - 1) सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ जी के पूर्व भव भगवान सुपार्श्वनाथ राजा नन्दिषेण व अहमिन्द्र की पर्याय में भगवान सुपार्श्वनाथ पूर्व भव में घातकी खण्ड द्वीप में क्षेमपुरी नगरी के राजा नन्दिषेण थे। धर्म के प्रताप से उनकी व उनके राज्य की रक्षा पुण्योदय ही करता था। वैद्य और सेना उनके शरीर व उनके राज्य की रक्षा के लिए नहीं, मात्र शोभा के लिए ही थे। राजा नन्दिषेण ने अपनी आत्मा को जान लिया था और वे केवल इस लोक को ही नहीं, परलोक को भी जीतना चाहते थे। इसलिए वे धर्म उपासना में सदा तत्पर रहते थे। उन्होंने दर्शनमोह रूपी शत्रु का नाश कर दिया था, परन्तु अभी चारित्रमोह को जीतना बाकी था। इसलिए उनका चित्त राजभोगों में नहीं लगता था। वे सोचते थे कि जो चारित्रमोह मुझे धन, स्त्री आदि की आसक्ति के कारण पापकर्म करवाता है, ऐसी मोहदशा को धिक्कार है। इस मोह से छूट कर मोक्ष प्राप्ति हेतु रत्नत्रय की आराधना करना ही मेरा कर्त्तव्य है। ऐसे वैराग्यपूर्ण विचारों के कारण राजा नन्दिषेण राजभोगों से अत्यन्त विरक्त हुए और अर्हत्नन्दन जिनेश्वर के शिष्य बन गए। ज्ञान-ध्यान मे...

छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 6)

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छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 6 ) तप एवं मोक्ष कल्याणक पद्मप्रभ महाराज के ऐसे उत्कृष्ट वैराग्य की भावना से प्रभावित होकर अनेक भव्य जीवों ने उनके साथ महाव्रत या अणुव्रत धारण किए। वन के तिर्यंच सिंह और खरगोश, सर्प और मोर - शांति से चित्त लगाकर प्रभु की शरण में बैठ कर आत्महित करने लगे। मुनियों में श्रेष्ठ पद्मप्रभ स्वामी को तुरन्त ही मनःपर्यय ज्ञान तथा अनेक लब्धियाँ प्रगट हुई। शुद्ध रत्नत्रयधारी पद्मप्रभ मुनिराज को वर्धमान नगरी के सोमदत्त राजा ने सर्वप्रथम आहारदान दिया। उस उत्तमदान के फलस्वरूप पंच आश्चर्य घटित हुए। भगवान को मुनिदशा में उत्तम गुप्ति-समिति-क्षमा आदि धर्म व वैराग्यचिंतन, परिषहजय तथा आत्मध्यान आदि तप के द्वारा अति विशेष कर्मों की निर्जरा हो रही थी। ऐसी उग्र आत्मसाधना सहित वे मुनिदशा में छद्मस्थ रूप से मात्र 6 मास तक रहे। 6 मास के पश्चात् क्षपक श्रेणी द्वारा चारों घाति कर्मों का सर्वथा क्षय करके चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन पूर्ण ज्ञान प्रगट करके प्रभु सर्वज्ञ परमात्मा हुए … अरिहन्त हुए, तीर्थंकर हुए। इन्द्रों और नरेन्द्रों ने प्रभु के केवलज्ञान की पूजा की। तीर्थंकर ...

छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 5)

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छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 5 ) भगवान पद्मप्रभ - वैराग्य और दीक्षा ​​कौशाम्बी नगरी एक तीर्थरूप ही थी। प्रतिदिन देश-विदेश कितने ही मुमुक्षु वहाँ उस जीवन्त तीर्थ के दर्शन के लिए आते थे और पद्मप्रभ महाराज के दर्शन करके तीर्थयात्रा जैसा आनन्द प्राप्त करते थे। इस प्रकार महाराज पद्मप्रभ को राज्य करते हुए दीर्घकाल व्यतीत हो गया। जब एक लाख वर्ष पूर्व की आयु शेष रह गई, तब एक वैराग्य प्रेरक घटना हुई। एक बार पद्मप्रभ महाराज राजमहल में बैठे थे। महल के प्रांगण में एक भव्य विशालकाय अति सुन्दर हाथी था। हज़ारों हाथियों में वह ‘पट्टहस्ती’ था। महाराज उस पर सवारी करते थे और वह उन्हें अत्यन्त प्रिय था। अचानक उस हाथी का शरीर शिथिल हो गया। उसने खाना-पीना छोड़ दिया। वह आँखें बंद करके लेट गया और उसका प्राणान्त हो गया। प्रिय हाथी की अचानक मृत्यु हो जाने से महाराज को बहुत आश्चर्य हुआ। जीवन की क्षणभंगुरता को देख कर वे वैराग्य चितन में डूब गए। उन्होंने अवधिज्ञान से हाथी के पूर्वभवों को जाना और जातिस्मरण होने से अपने पूर्वभवों का भी उनको ज्ञान हुआ। तुरन्त ही उनका चित्त संसार से विरक्त हो गया। महाराज पद्म...

छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 4)

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छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 4 ) कुमार पद्मप्रभ का राज्याभिषेक इस प्रकार बालक पद्मप्रभ सबको आनन्दित करते हुए वृद्धिगत हो रहे थे। कुमार पद्मप्रभ ने युवावस्था में प्रवेश किया। उनका रूप कामदेव से भी सुन्दर था। उनका रूप इतना मनोहर व अद्भुत था कि स्त्री-पुरुष सब उनको देख कर तृप्ति का अनुभव करते थे। उनके युवा होते ही वंश परम्परा के अनुसार उन्हें कौशाम्बी नगरी का राज्य प्राप्त हुआ। साढ़े सात लाख वर्ष पूर्व की आयु में कुमार पद्मप्रभ का, उनकी इच्छा न होते हुए भी, राज्याभिषेक किया गया। उनको राजा के रूप में पाकर सारी प्रजा स्वयं को धन्य मान रही थी। उनके राज्य में धन व धर्म, दोनों की वृद्धि हो रही थी। बाहर से कोई दानी आकर उन नगरवासियों से पूछता था कि उन्हें किस वस्तु की इच्छा या आवश्यकता है ? तो सब लोग उत्तर देते कि हमें किसी को किसी वस्तु की इच्छा या आवश्यकता नहीं है। हम तो मात्र मोक्ष को साधने की इच्छा रखते हैं और मोक्ष कभी दान में नहीं मिल सकता। वह तो भीतर आत्मा में से ही प्रगट होता है। क्रमशः ।।ओऽम् श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः।।

छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 3)

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छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 3 ) कौशाम्बी नगरी में तीर्थंकर का अवतार भरत क्षेत्र की कौशाम्बी नगरी में असंख्य वर्षों पूर्व इक्ष्वाकुवंशी धरण महाराजा राज्य करते थे। उनकी महारानी थी सुसीमा देवी। वे रूप-गुण में तो महान् थी ही, एक तीर्थंकर की माता बनने का महान् सौभाग्य भी उन्हें प्राप्त हुआ। भगवान पद्मप्रभ का जीव अहमिन्द्र पर्याय छोड़ कर माघ कृष्णा षष्ठी के दिन उनके उदर में अवतरित हुआ। रत्नकुक्षिधारिणी माता ने उनके गर्भागमन सूचक सोलह मंगल स्वप्न देखे। तत्पश्चात् सवा नौ मास धर्मआराधना में व्यतीत हुए और कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी के शुभ दिन माता सुसीमा देवी ने जगत्पूज्य तीर्थंकर को पुत्र रूप में जन्म दिया। इन्द्र-इन्द्राणी ने ठाठबाट से प्रभु के जन्मकल्याणक का महान उत्सव किया, उनके सम्मुख आनन्दपूर्वक नृत्य किया और भगवान के माता-पिता का सम्मान किया। उन्होंने बाल तीर्थंकर को ‘पद्मप्रभ’ नाम से सम्बोधित करके उनकी स्तुति की। पाँचवें तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ के मोक्षगमन के नब्बे हज़ार करोड़ सागरोपम वर्षों के अन्तर से छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ हुए। इनकी आयु तीस लाख वर्ष पूर्व थी और उनका चरण चि...

छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 2)

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छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 2 ) मुनिराज अपराजित अहमिन्द्र रूप में मुनिराज अपराजित चतुर्विध आराधनापूर्वक सल्लेखना धारण करके उत्तम ग्रैवेयक के प्रीतिंकर विमान में अहमिन्द्र रूप में अवतरित हुए। उस विमान की रमणीयता व शोभा भावी तीर्थंकर का आगमन होने से और भी अधिक बढ़ गई। उस विमान में अनेक जीव अगले भव में मोक्ष प्राप्त करने वाले थे। ऐसी सुन्दर देवनगरी में तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ का जीव असंख्य वर्षों तक रहा। वहाँ उनकी आयु 31 सागर थी। वे 465 दिन में एक बार श्वास लेते थे। वहाँ क्षुधा-तृषा की कोई वेदना नहीं थी। वे मात्र मानसिक अमृत आहार से ही तृप्त हो जाते थे। उनके अवधिज्ञान और विक्रिया का विस्तार सातवें नरक तक था। जब ऐसे दिव्य लोक में उनकी आयु 6 मास शेष रह गई और उनके मध्यलोक में तीर्थंकर रूप में अवतरित होने की तैयारी होने लगी, तब जहाँ उनका जन्म होने वाला था, उस नगरी में रत्नों की वर्षा होने लगी। वह धन्य नगरी थी - कौशाम्बी नगरी। क्रमशः ।।ओऽम् श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः।।

छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 1)

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छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ जी (भाग - 1 ) छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ के पूर्व भव राजा ‘अपराजित’ की पर्याय में घातकी खण्ड के पूर्व विदेह में सीता नदी के दक्षिण किनारे पर वत्स देश में सुन्दर सुसीमा नगरी है। भगवान पद्मप्रभ भी पूर्वभव में सुसीमा नगरी के महाराजा थे। उनका नाम था ‘अपराजित’। वे वास्तव में अ-पराजित थे, क्योंकि वे न तो बाहर के किसी शत्रु द्वारा पराजित होते थे और न अन्दर का मोह रूपी शत्रु उन्हें पराजित कर सकता था। वे राजा के रूप में इतने सदाचारी और सत्यनिष्ठ थे कि कृषकों की इच्छानुसार सुसमय वर्षा होने से उनके राज्य में कभी अकाल नहीं पड़ता था। दान की उदारता के कारण उनके राज्य में कोई दरिद्र नहीं था। कोई कुमार्गगमन नहीं करता था और न ही कोई दुर्व्यसनी था। वैभव की वृद्धि के साथ-साथ प्रजा के सदाचार में भी वृद्धि होती थी। ज्ञानचेतना से युक्त वे महाराजा अपराजित सदा मन में विचारते थे कि जो इन्द्रिय सुख शरीर के द्वारा भोगे जाते हैं, वे क्षणभंगुर हैं। शरीर के वियोग से इन्द्रियविषयों का भी वियोग हो जाता है। अतः उनका चित्त ऐसे क्षणभंगुर विषयों से सदा विरक्त रहता था और अतीन्द्रिय आत्मसाधना म...

पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी (भाग - 4)

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पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी (भाग - 4 ) केवलज्ञान प्राप्ति मुनिराज सुमतिनाथ ने 20 वर्ष तक आत्मध्यान किया और अन्त में अयोध्या के जिस वन में और जिस दिन दीक्षा ली थी, उसी वन में और उसी दिन चैत्र शुक्ला एकादशी को केवलज्ञान प्रगट हुआ। प्रभु अंतरात्मा से परमात्मा बने, साधु परमेष्ठी से अरिहन्त परमेष्ठी बन गए। उसी समय तीर्थंकर प्रकृति के उदय से देवों ने आकर दिव्य समवशरण की रचना की और उनके ज्ञानकल्याणक की व अर्हत्पद की पूजा की। उनकी धर्मसभा में अमर आदि 116 गणधर विराजमान थे। उनके समवशरण में केवलज्ञान के धारी तेरह हज़ार अरिहन्त भगवन्त विराजते थे। तीन लाख बीस हज़ार अवधिज्ञानी, मनःपर्यय ज्ञानी, द्वादशांगधारी और ऋद्धिधारी मुनिराज थे। तीन लाख तीस हज़ार आर्यिकाएं और तीन लाख श्रावक एवं पाँच लाख श्राविकाएं संयमपूर्वक धर्मसाधना करते थे। ऐसे महान धर्मवैभव सहित उन पंचम तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी ने भरतक्षेत्र के प्रत्येक देश में मंगल विहार किया और जीवों में ‘सुमति’ के ज्ञान का सिंचन करके ‘सुमतिनाथ’ बने। भरतक्षेत्र के भव्य जीवों ने उनकी सेवा से सुमति प्राप्त करके अपने भव का अन्त किया। लाखों वर्षों तक...

पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी (भाग - 3)

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पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी (भाग - 3 ) भगवान सुमतिनाथ जी का दीक्षा कल्याणक व केवलज्ञान प्राप्ति इस प्रकार मन में चारित्रदशा अंगीकार करने का निश्चय करके वैराग्य की भावना भायी। लौकान्तिक देवों ने आकर उनके वैराग्य की अनुमोदना की - हे प्रभो! आपका वैराग्य चिन्तन उत्तम है, प्रशंसनीय है। मुक्तिसुन्दरी आपकी प्रतीक्षा कर रही है। तभी इन्द्रादिक देव भी प्रभु के दीक्षा कल्याणक का महोत्सव मनाने आ पहुँचे। वे ‘अभया’ नामक देव-शिविका में प्रभु को विराजमान करके दीक्षावन ले गए। वहाँ एक हज़ार राजाओं सहित प्रभु ने स्वयं जिनदीक्षा धारण की। उसी समय सिद्धों को वंदन करके आत्मध्यान में स्थिर होने पर शुद्धोपयोग, मनःपर्यय ज्ञान तथा आकाशगामित्व आदि अनेक महान ऋद्धियाँ प्रगट हुई। मुनिराज सुमतिनाथ के जीवन में संयम, तप, ध्यान की प्रधानता थी। उनके सर्व पाप शान्त हो गए और वे मौनरूप से आत्मसाधना में लीन हो गए। मुनिदीक्षा के उपरान्त उन्हें सौमनस नगरी के पद्मराजा ने सर्व प्रथम आहारदान दिया। उस समय देवों ने हर्षित होकर रत्नवृष्टि करके उनका सम्मान किया। क्रमशः ।।ओऽम् श्री सुमतिनाथाय नमः।।

पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी (भाग - 2)

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पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ जी (भाग - 2 ) अयोध्या में सुमतिनाथ अवतार और वैराग्य भावना उस समय अयोध्यानगरी में भगवान ऋषभदेव के वंशज महाराजा मेघरथ राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम मंगलावती था। उनके आंगन में 6 मास से प्रतिदिन दिव्य रत्नों की वृष्टि हो रही थी। महान आनन्द की सूचक वह रत्नवृष्टि देख कर लोग आश्चर्यचकित हो रहे थे। 6 मास पश्चात् श्रावण शुक्ला दूज को महारानी मंगलावती ने सोलह उत्तम स्वप्न देखे। उसी समय तीर्थंकर सुमतिनाथ का जीव देवलोक से उनकी कुक्षि में अवतरित हुआ। ऐसी तीर्थंकर की मंगल आत्मा का स्पर्श करके माता मंगला वास्तव में मंगल हो गई। चैत्र शुक्ला एकादशी को अयोध्यानगरी में तीर्थंकर सुमतिनाथ का जन्म हुआ। मात्र अयोध्या ही नहीं, तीनों लोक उनके जन्मकल्याणक से आनन्दित हो गए। इन्द्रों ने आकर भगवान का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाया। इन्द्रों द्वारा अभिषेक किए जाने से ही तीनों लोकों में उनकी श्रेष्ठता सिद्ध हो जाती है। चौथे तीर्थंकर भगवान अभिनन्दननाथ के पश्चात् नौ लाख करोड़ सागरोपम के अंतर से पाँचवे तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथ हुए। उनकी आयु 40 लाख वर्ष पूर्व थी। उनका चिह्न ‘चकवा’ था। बा...