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Showing posts from June, 2022

ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 4)

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ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 4 ) भगवान श्रेयांसनाथ का तप व केवलज्ञान कल्याणक उन एक हज़ार मुनियों के मध्य सूर्य के समान तेजस्वी श्रेयांसनाथ मुनिराज आत्मचिन्तन में एकाग्र हुए और चिदानन्द तत्त्व में लीन होकर शुद्धोपयोग रूप परिणमित हुए। उनकी अचिन्त्य शांत मुद्रा को देख कर इन्द्र, देव, मनुष्य और तिर्यंच भी अपने चित्त में अनुपम शांति का अनुभव करने लगे। सभी शांति से प्रभु की वीतरागी मुद्रा को निहार रहे थे। उस समय हज़ारों प्रजाजनों ने भी वैराग्य भावनापूर्वक श्रावकव्रत अंगीकार किए और सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए। धन्य था उन तीर्थंकर प्रभु का दीक्षा कल्याणक का महोत्सव!! दीक्षा लेकर आत्मध्यान में विराजमान श्रेयांसनाथ मुनिराज को शुद्धोपयोग के साथ ही सातवाँ गुणस्थान, चौथा दिव्य ज्ञान तथा सात महान ऋद्धियाँ प्रगट हुई। संज्वलन के अतिरिक्त सभी कषायों का अभाव हो गया। दो दिन के उपवास के पश्चात् वे मुनिराज सिद्धार्थनगर में पधारे और वहाँ नन्दराजा ने भक्तिसहित विधिपूर्वक प्रथम पारणा कराया। राजा के महान् पुण्ययोग से देवों ने दुन्दुभि वाद्य का उद्घोष किया और पुष्पवृष्टि की। श्रेयांसनाथ मुनिराज...

ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 3)

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ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 3 ) भगवान श्रेयांसनाथ जी का राज्याभिषेक और वैराग्य आनन्दपूर्वक वृद्धिगत होते हुए राजकुमार श्रेयांसनाथ युवावस्था को प्राप्त हुए। पिता ने उनका विवाह किया और राज्याभिषेक करके उन्हें सिंहपुरी के राजसिंहासन पर बैठाया। उनके पुण्यकर्म उत्तम भोग-सामग्री द्वारा उनकी सेवा करते थे। वे मात्र बाह्यसमृद्धि में ही नहीं, अपितु अंतरंग श्रेय मार्ग में भी वृद्धिगत थे। पुण्य-प्रताप से उन्हें अर्थ-प्राप्ति के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता था, मात्र मोक्ष हेतु वे राज्य-संचालन के साथ-साथ गुप्त रूप से पुरुषार्थ करते रहते थे। उनकी आयु 84 लाख वर्ष की थी, जिसमें से 63 लाख वर्ष, अब तक बाल्यावस्था, युवावस्था व राज्य-संचालन में बीत चुके थे। एक बार महाराजा श्रेयांसनाथ वनक्रीड़ा हेतु उद्यान में गए। माघ का महीना था। वसन्त ऋतु का आगमन निकट होने से वृक्षों के पत्ते खिर गए थे और उनकी शोभा विलुप्त हो गई थी। शृंगार व वैभव से विरक्त हुए वृक्षों को देख कर महाराजा श्रेयांसनाथ का चित्त भी संसार से विरक्त हो गया। वे सोचने लगे कि वृक्षों के पत्तों की भांति यह वैभव भी मुझ से छू...

ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 2)

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ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 2 ) भगवान श्रेयांसनाथ जी का काशी में अवतार भरत क्षेत्र की रमणीय नगरी काशी में अनेक महापुरुष हुए। उसी के निकट सिंहपुर नामक सुन्दर नगरी थी। वर्तमान में उसे ‘सारनाथ’ कहते हैं। वहाँ इक्ष्वाकुवंशी राजा विष्णु राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम सुनन्दा था। उन सुनन्दा माता के गर्भ में सोलह मंगल स्वप्न द्वारा पूर्व संकेत देकर ज्येष्ठ कृष्णा षष्ठी को भावी तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ का जीव अवतरित हुआ। तीन ज्ञान के धारी और तीन लोक के नाथ तीर्थंकर का अवतार होने से तीनों लोक के जीव हर्षित हो गए। सवा नौ मास बीतने पर फाल्गुन कृष्णा एकादशी को भरतक्षेत्र में ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी का जन्म हुआ। इन्द्रों ने आनन्दपूर्वक धूमधाम से प्रभु का दिव्य जन्मोत्सव मनाया। उनसे पूर्व भरत क्षेत्र में अनेक वर्षों तक जैन धर्म की धारा विच्छिन्न हो गई थी जो पुनः प्रवाहित होने लगी। इन्द्रों ने उन्हें ‘श्रेयांसनाथ’ नाम देकर जीवों का श्रेय प्रारम्भ कर दिया था। उनके चरण में ‘गेंडा’ का चिह्न था। जिस प्रकार गेंडा का शरीर शस्त्रों से नहीं बिंधता, उसी प्रकार भगवान श्...

ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 1)

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ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ जी (भाग - 1 ) भगवान श्रेयांसनाथ जी के पूर्वभव भगवान श्रेयांसनाथ - नलिनप्रभ राजा तीसरे पुष्कर द्वीप के पूर्वविदेह में क्षेमपुर नगर है। महाराजा नलिनप्रभ वहाँ राज्य करते थे। वे जैन धर्म के प्रेमी तथा आत्मस्वरूप के ज्ञाता थे। धर्म, अर्थ, काम के साथ-साथ मोक्ष पुरुषार्थ भी निरन्तर चल रहा था। उनका जीवन एक आदर्श श्रावक के समान उज्ज्वल था। एक बार वनमाली ने राजा को सूचना दी कि आपके आम्रवृक्षों से सुशोभित उद्यान में भगवान अनन्त जिनेन्द्र का पदार्पण हुआ है। सभी आम्रवृक्ष हज़ारों फलों से सुशोभित होकर झुक गए हैं। पक्षी भी ख़ुशी से कलरव करने लगे हैं। राजा अत्यन्त हर्ष विभोर होकर तपोवन में प्रभु के दर्शन करने गये और उनके धर्मोपदेश से उनकी आत्मा प्रसन्न हो गई। उनके हृदय में वैराग्य जागृत हो गया और वे जिनचरणों में दीक्षा लेकर मुनि हो गए। उन्हें 11 अंग का ज्ञान उदित हुआ और रत्नत्रय की शुद्धिपूर्वक आराधना करके, दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं को भा कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध हुआ। वे नलिनप्रभ मुनिराज विशुद्ध चारित्र का पालन करते हुए, आयु पूर्ण होने पर समाधिमरण करके सोलहवें स...

दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी (भाग - 4)

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दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी (भाग - 4 ) भगवान शीतलनाथ का तप एवं मोक्ष कल्याणक भगवान शीतलनाथ निज चैतन्य के शांतरस में लीन होकर परम शीतल हो गए। तीन रत्न, चार ज्ञान, पाँच महाव्रत और छह आवश्यक के धारी वे मुनिराज दो उपवासों के पश्चात् तीसरे दिन अरिष्ट नगरी में पधारे और वहाँ के राजा पुनर्वसु ने नवधा भक्ति से अत्यन्त हर्ष-पूर्वक खीर का आहारदान देकर उन्हें पारणा कराया। प्रथम आहारदान देने वाले उन राजा के महाभाग्य की देवों ने भी सराहना की और आकाश से पुष्पवृष्टि करके दिव्य वाद्यों का उद्घोष किया। भगवान शीतलनाथ ने तीन वर्ष तक मुनि अवस्था में रह कर परमात्म साधना की और अंत में पौष कृष्णा चतुर्दशी की सायंकाल केवलज्ञान प्रगट करके स्वयं परमात्मा बन गए। देवों व मनुष्यों ने उनके परमात्म-पद प्राप्ति का महान् उत्सव किया। तिर्यंच भी भगवान के दर्शन करके आनन्दित हो उठे। यहाँ तक कि नरक में दो घड़ी के लिए साता का अनुभव होने लगा। उन्हें नरक में भी सम्यक्त्व की अपूर्व शीतलता प्राप्त हुई। देवों ने धर्मसभा के रूप में अद्भुत समवशरण की रचना की और इन्द्र स्वयं आकर प्रभु की पूजा करके धर्मोपदेश श्रवण करने बैठा। उस धर...

दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी (भाग - 3)

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दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी (भाग - 3 ) भगवान शीतलनाथ का वैराग्य और दीक्षा भगवान शीतलनाथ को राज्यभोग करते हुए 50 हज़ार पूर्व वर्ष बीत चुके थे। अब उनको संसार में केवल 25 हज़ार पूर्व वर्ष ही रहना शेष था। भव के अंत की तैयारी थी। तभी एक वैराग्यप्रेरक घटना हुई। एक बार भगवान शीतलनाथ प्रातः वन-विहार करने गए थे। चारों ओर फल-फूलों से प्रफुल्लित वातावरण था। उनकी अद्भुत शोभा निहारते हुए महाराज शीतलनाथ प्रसन्नता से वन-विहार कर रहे थे। कुछ समय पश्चात् लौटते हुए उन्होंने देखा कि जो ओस की बूँदें कुछ समय पहले मोती के समान चमक रही थी, वे सूर्य के उदय होते ही नष्ट हो चुकी थी। प्रभात का आकर्षण भी पहले जैसा आनन्ददायक नहीं रहा था। प्रकृति के सौन्दर्य की अस्थिरता को देख कर महाराज शीतलनाथ को वैराग्य जागृत हो गया। वे चिन्तन करने लगे - अरे! यह मनुष्य जीवन भी ओस-बिन्दुओं की तरह क्षणभंगुर है। उनकी शोभा और सौन्दर्य क्षणभर में विलीन हो जाते हैं। संसार के सभी पदार्थ प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहे हैं। स्थिर तो केवल अपनी असंयोगी आत्मा ही है। कर्म भले ही पुण्य रूप हों या पाप रूप, उसके द्वारा जीव को शाश्वत सुख कैसे प...

दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी (भाग - 2)

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दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी (भाग - 2 ) भगवान शीतलनाथ का भद्रपुर में अवतार उन भावी तीर्थंकर ने स्वर्ग के वैभव के बीच भी असंख्यात वर्षों तक मोक्ष साधना अनवरत चालू रखी। स्वर्गलोक में उन्हें अनेक कल्पवृक्ष प्राप्त थे, पर उनकी वासनाएँ समाप्त हो गई थी। उनको प्राप्त हुए विषयों को भोगने की वृत्ति ही नहीं होती थी। उन्हें तो बाह्य विषयों से रहित चैतन्य का आनन्द भोगने की लालसा रहती थी। आत्मा का पूर्ण आनन्द प्राप्त करने के लिए वे मनुष्य लोक में आना चाहते थे। जब स्वर्ग की आयु 6 मास शेष रह गई, तब उनका मनुष्य लोक में अवतरित होने का समय आ गया। आज से असंख्यात वर्ष पूर्व भरतक्षेत्र में भद्रपुर (भद्रिलापुर) नाम की नगरी थी। वहाँ दृढ़रथ महाराज और सुनन्दा महारानी के राजमहल में 6 मास से रत्नों की वर्षा होने लगी थी। 6 मास पश्चात् चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन रात्रि के पिछले प्रहर में सुनन्दा महारानी ने अति मंगलसूचक 16 स्वप्न देखे और उसी काल में भगवान शीतलनाथ का जीव स्वर्ग से चय कर उनके उदर में आ गया। धन्य हुए वे माता-पिता और धन्य हुई वह भद्रिलापुर नगरी। असंख्य वर्षों के पश्चात् वह आश्चर्यकारी मंगल घटना ...

दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी (भाग - 1)

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दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी (भाग - 1 ) दसवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ जी के पूर्वभव भगवान शीतलनाथ - पूर्वभव में सुसीमा नगरी में राजा पद्मगुल्म नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी के पश्चात् लाखों वर्षों तक जो धर्म का विच्छेद हुआ, वह भगवान शीतलनाथ के अवतार से दूर हुआ। पुष्करद्वीप के पूर्वभाग में मंदारगिरी नामक मेरुपर्वत है। उसकी पूर्वदिशा के विदेह क्षेत्र में सीमा नदी के किनारे वत्सदेश है। उसमें सुसीमा नगरी में राजा पद्मगुल्म राज्य करते थे। राजवैभव के बीच रहते हुए भी वे आत्मज्ञानी और वैरागी थे। दोनों परिणति में एक साथ प्रवर्तमान होने पर भी भेदज्ञान की शक्ति के कारण उनकी आत्मा मोक्षपुरी की ओर गमन कर रही थी। अब मोक्षपुरी पहुँचने में केवल एक भव शेष था। एक बार राजा पद्मगुल्म वसन्त ऋतु का आगमन होने पर फल और पुष्पों से आच्छादित सुन्दर उद्यान में अपनी रानियों के साथ वसन्तोत्सव मनाने गए। वहाँ दो महीने का समय वसन्त-क्रीड़ाओं में कब बीत गया और कब ग्रीष्म ऋतु आ गई, पता ही नहीं चला। वसन्त ऋतु के अल्पकाल का आभास होने पर उन्हें संसार की क्षणभंगुरता का अहसास हुआ। उनका चित्त संसार के भोगों से उदास हो ग...

नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 4)

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नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 4 ) भगवान पुष्पदन्त का ज्ञान एवं मोक्ष कल्याणक भगवान पुष्पदन्त दिगम्बर-दीक्षा ले कर मुनि हुए और आत्मध्यान में शुद्धोपयोग द्वारा वीतरागी सुख का अनुभव करने लगे। उसी समय मनःपर्यय ज्ञान प्रगट हुआ। परन्तु उनका उपयोग मनःपर्यय ज्ञान में न लग कर शुद्ध आत्मा की अनुभूति में ही लगा रहा। अनेक महान् ऋद्धियाँ प्रगट हुई, पर अपनी चैतन्य ऋद्धि में निमग्न प्रभु को बाह्य ऋद्धियों से कोई प्रयोजन नहीं था। पुष्पदन्त मुनिराज ने प्रथम पारणा शैलपुरी नगरी के राजा पुष्पमित्र के घर किया। वहाँ देवों द्वारा पंचाश्चर्य प्रगट हुए। पुष्पदन्त मुनिराज ने 4 वर्ष तक मौन रह कर विहार किया। फिर काकन्दी नगरी के दीक्षावन में पधारे। वहाँ आत्मध्यान में एकाग्र होकर घातिकर्मों की बड़ी सेना को एकमात्र शुद्धोपयोग शस्त्र द्वारा नष्ट कर दिया और अपना अनन्त चतुष्टय साम्राज्य प्राप्त करके अरिहन्त तीर्थंकर परमात्मा बन गए। देवों ने आकर दिव्य शोभायुक्त समवशरण की रचना की। उस समवशरण में प्रभु की दिव्य ध्वनि खिरने लगी। उस दिव्य ध्वनि में सर्वतत्त्व का स्वरूप समझ कर लाखों भव्य जीवों ने आनन्द पूर्वक रत्न...

नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 3)

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नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 3 ) भगवान पुष्पदन्त का वैराग्य और जिनदीक्षा अपनी माता महारानी जयरामा के साथ आनन्द-किल्लोल में समय बिताते हुए पुष्पदन्त कुमार ने बचपन छोड़ कर युवावस्था में प्रवेश किया। कामदेव उनकी सेवा में उपस्थित था। अनेक सुन्दर राजकन्याओं के साथ उनका विवाह हुआ। महाराजा पुष्पदन्त तो महापुण्यवान थे ही, वे स्त्रियाँ भी महापुण्यवान थी, जो मोक्षसुख के अतिनिकट भगवान पुष्पदन्त का सान्निध्य प्राप्त कर रही थी। महाराजा पुष्पदन्त को उन पुण्यजनित अनेक बार भोगे गए उत्तम भोग्य पदार्थों को भोगने में कोई नयापन नहीं लगता था। वे तो अनंत बार भोगे गए जूठन के समान ही लगते थे। प्रभु के पुण्यफल को देख कर नास्तिक लोग भी मानने लगे थे कि वर्तमान भव की भोग्य सामग्री अवश्य ही पूर्वभव में किए गए पुण्य-पाप का ही फल है। जो पहले आत्मा-परमात्मा को नहीं मानते थे और पाप के भय से रहित होकर पापमय जीवन में स्वच्छन्द प्रवर्तन करते थे, वे भी आस्तिक बन गए और पाप से डरकर आत्मसाधना करने लगे। महाराजा पुष्पदन्त को राजभोगों के बीच अलिप्त रहते हुए ज्ञानचेतना सहित दीर्घकाल बीत गया। एक बार मंगसिर शुक्ला प्रत...

नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 2)

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नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 2 ) तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त का अवतरण उस समय भरत क्षेत्र में काकन्दी नगरी (किष्किन्धा पुरी) में सुग्रीव राजा राज्य करते थे। उनकी महारानी जयरामा के उदर में तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त का जीव अवतरित होने वाला है; ऐसा जानकर देव उनके आँगन में 6 मास पहले ही रत्नवृष्टि करने लगे। फाल्गुन कृष्णा नवमी की रात के पिछले प्रहर में माता ने 16 मंगल स्वप्न देखे और ‘अहमिन्द्र’ का जीव उनकी कुक्षि में अवतरित हुआ। महाराजा सुग्रीव ने अवधिज्ञान से जान कर कहा कि हे देवी! तुम्हारे उदर में जगत्पूज्य आत्मा का आगमन हुआ है। अपना वह पुत्र सर्वज्ञ-तीर्थंकर होकर जगत का कल्याण करेगा। माता को हर्ष के कारण असीम तृप्ति का अनुभव हुआ। स्वर्गलोक से देवियाँ आकर माता की सेवा करती थी। मँगसिर शुक्ला प्रतिपदा के दिन महारानी जयरामा ने अति तेजस्वी, तीन ज्ञान के धारी पुत्र को जन्म दिया। उनके जन्म से तीनों लोक में हर्ष छा गया। देवलोक के दिव्य वाद्य अपने आप बजने लगे। उनकी दिव्य घोष की ध्वनि सुन कर सारा देवलोक प्रभु के जन्मकल्याणक का महोत्सव मनाने भूलोक पर आ पहुँचा। पंचम समुद्र क्ष्ीरसागर के दु...

नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 1)

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नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी (भाग - 1 ) नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी के पूर्वभव भगवान पुष्पदन्त जी - विदेहक्षेत्र में महापद्म राजा जैसे जम्बूद्वीप में विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश और पुण्डरीकिणी नगरी है, उसी प्रकार पुष्करद्वीप के पूर्वमेरु के पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश और पुण्डरीकिणी नगरी है। वहाँ भगवान पुष्पदन्त जी पूर्वभव में ‘महापद्म’ नाम के राजा थे। जिस प्रकार गोपाल अपनी गायों का पालन करता है, उसी प्रकार राजा महापद्म अपनी प्रजा का वात्सल्यपूर्वक पालन करते थे। उनके राज्य में पृथ्वी भी प्रसन्न होकर श्रेष्ठ रत्न और अन्न आदि उत्पन्न करती थी। श्रावक उत्तम व्रतों का पालन करते थे। मुनियों के सत्संग से उनका जीवन सदाचारी रहता था। राजा-प्रजा का सम्बन्ध भी आदर्शरूप था। इस प्रकार महाराजा महापद्म राजकाज के साथ-साथ सम्यक्त्व सहित मोक्षमार्ग में रमण करते थे। राजा का जीवन धर्ममय और पुण्ययोग से आप्लावित था। एक बार वे राज्यसभा में बैठे थे, वहाँ वनपाल ने आकर शुभ समाचार दिया - हे स्वामी! अपने मनोहर उद्यान में सर्व जीवों के हितकारी जिनराज पधारे हैं। साथ में चतुर्विध संघ है। उनके आगमन ...