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Showing posts from January, 2023

ऋण की भरपाई

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ऋण की भरपाई एक बार एक न्यायप्रिय और दानी राजा अपने मंत्रियों के साथ घूमने निकला। उसने देखा कि एक बगीचे में एक वृद्ध माली अखरोट के पेड़ लगा रहा है। राजा ने उस बगीचे में जाकर माली से पूछा - क्या यह बगीचा तुम्हारा है ? माली ने बताया - यह बगीचा उसके बाप-दादों का लगाया हुआ है। राजा ने कहा - तुम यह जो अखरोट के पेड़ लगा रहे हो, क्या तुम इनके फल खाने के लिए जीवित रहोगे ? ‘अखरोट का पेड़ 20 साल बाद फल देता है, यह बात मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। मैं अब तक दूसरों के लगाए पेड़ों के बहुत से फल खा चुका हूँ, इसलिए मुझे भी दूसरों के लिए पेड़ लगाने चाहिएं। मैं अपने फल खाने की आशा से पेड़ नहीं लगा रहा। मैं तो पूर्वजों के ऋण की भरपाई कर रहा हूँ। इस प्रकार आने वाली पीढ़ी को भी यह संदेश देना चाहता हूँ कि हमारे पूर्वजों ने जो उपकार हमारे लिए किया है, उसे कभी मत भूलो और जहाँ तक हो सके, उनका ऋण चुकाने का प्रयत्न करो।’ राजा उसका यह विचार सुनकर बहुत खुश हुआ और उसे पुरस्कृत किया। उसने अपने राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को प्रोत्साहित किया कि आप भी अपने जीवन में एक-एक वृक्ष अवश्य लगाओ, जिससे हमारे बच्चे शुद्ध ऑक्स...

सज़ा क्यों?

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सज़ा क्यों? एक कैदी जेल की असहनीय यातनाएं भोग रहा है। बेचैन है, पीड़ा से संतप्त होकर तड़प रहा है। जेलर कभी निर्दयी होकर एक के बाद एक कोड़े कभी पीठ पर, कभी हाथ-पैरों पर बरसा रहा है। कभी-कभी शरीर पर ठंडा पानी डालकर पीट रहा है। उस समय की उसकी सीमातीत वेदना को दृष्टिगत करके लग रहा है, मानो बिना पानी के मछली तड़प रही हो। वह कह रहा है - हे प्रभु! कब इस जेल से छुटकारा मिलेगा। कभी जेलर को गालियां देता है, तो कभी यह सोचने लगता है कि मैंने अपराध किया है, उसकी ही सज़ा भुगत रहा हूँ। कभी सोचता है - अरे! अकेले मैंने ही तो अपराध नहीं किया था। अपराधी तो मेरे बहुत से साथी भी थे। पूरा गिरोह था, परंतु सिर्फ़ मैं ही पकड़ा गया। सभी साथी वहाँ से भाग गए। यदि मैं भी भाग जाता तो यह दिन नहीं देखने पड़ते। यहां से निकलने के बाद मैं कभी भी अपराध नहीं करूंगा। इस तरह कल्पना के ताने-बाने बुनते हुए उसने कुछ क्षण व्यतीत किए। हंटर की चोटों से थोड़ी सी राहत मिली कि भोजन का समय हो गया। पहुंच गया भोजन के स्थान पर। बैठ गया टूटी-सी थाली लेकर। पर यह क्या ? अनाज के साथ मानो 10-5 पत्थर ही पीस दिए हों! घास जैसी रोटियां और भूसे...

दूध-पानी की दोस्ती

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दूध-पानी की दोस्ती एक गृहिणी ने दूध उबालने से पहले उसमें थोड़ा-सा पानी मिलाया। दूध में पानी मिलते ही दूध ने अपने समस्त गुण पानी को दे दिए। पानी को अपने जैसा श्वेत और शक्तिवान बना लिया। अग्नि में ताप आते ही दूध और पानी दोनों तपने लगे। दूध को जलते देखकर पानी की आँख में आँसू आने लगे और उसने भी अपना शरीर अग्नि में होम करना आरम्भ कर दिया। भला एक मित्र दूसरे मित्र को अग्नि का ताप सहते हुए कैसे देख सकता था ? दूध को भी यह सहन नहीं हुआ कि मेरा मित्र मेरे कारण अपना अस्तित्व ही नष्ट करने लगे। वह अपने मित्र की इस संकट की अवस्था को देखकर क्रोध से उफ़ान भरता हुआ सीधे अग्नि में गिरना ही चाहता था कि आज तो इसे बुझा कर ही मुझे शांति मिलेगी, तभी गृहिणी के द्वारा उस पर ठंडे पानी के छींटे पड़ने शुरू हो गए। पानी के ठंडे छींटे पड़ते ही उसने सोचा कि मेरा मित्र मुझे समझाने आया है - हे मित्र! डरो नहीं, मैं तुम्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाला। जब तक मेरा एक बूँद पानी भी शेष रहेगा, मैं सदा तुम्हारे साथ ही बना रहूँगा। अपनी विशुद्धि को बढ़ाने के लिए तपना तो पड़ता ही है। मैं तो वाष्प बन कर हवा में विलीन हो जाऊँगा, ल...

बारात की रात

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बारात की रात जून का महीना था। चिलचिलाती धूप ने जन-जन को झुलसा रखा था। चारों तरफ कोलाहल, धंू-धूं करती गाड़ियों का धुआं प्रतिक्षण गतिमान था। कल-कारखानों का कोलाहल। कुल मिलाकर मानव चेतना का दम घुटा जा रहा था। महानगरों की यह सभ्यता, सुख-समृद्धि और भौतिक सुखों में प्रगतिशील जीवन सुशील को रास नहीं आया। कहां छतरपुर का शांत, शुद्ध, प्राकृतिक वातावरण और कहां यह भीड़, शोरगुल, कोलाहल युक्त कानपुर नगरी। बारात की तैयारी चल रही थी। सभी बाराती अपना-अपना शृंगार करने में व्यस्त थे। सभी सज-धज कर सूट-बूट, टाई लगाकर तैयार। आजकल की बात और है कि यदि दूल्हा घोड़ी पर बैठे और सिर पर कलगी न लगाए, तो पहचानना मुश्किल है कि बारात का दूल्हा कौन-सा है, क्योंकि दूल्हे के सदृश्य ही न जाने कितने बाराती सूट-बूट, टाई में सजे रहते हैं। नाचते-गाते हुए बैंड-बाजों के साथ बाज़ार का रास्ता तय हुआ। स्वागत-द्वार पर पहुंचा दूल्हा मन ही मन आनंदित था कि आज मेरे स्वागत के लिए सास-ससुर, साले, साली सभी आरती एवं मंगल कलश लिए खड़े हैं। वहां दूल्हे की आरती, टीका आदि की रस्म पूर्ण हुई। लोग भोजन के लिए एकत्रित हुए। भोजन का ढंग पूर्णरूपेण आ...

रीतेपन का सुख

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रीतेपन का सुख एक दिन फल से लदे वृक्ष ने आदमी से कहा - तुम मेरी तरफ ललचाई नज़रों से क्यों देखते हो ? मुझसे हमेशा प्राप्ति की इच्छा क्यों रखते हो ? केवल लो ही नहीं, कुछ दो भी। आदमी कुछ नहीं बोला। पेड़ ने कहा - मुझे देखो। मैं अपना सब कुछ दे कर अपने आपको बड़ा सुखी और हल्का महसूस करता हूँ। मेरी तरह तुम भी अपना सब कुछ दे दो, सब कुछ बांट दो। आदमी फिर भी नहीं बोला। वृक्ष ने फिर कहा - मित्र! ललचाई नज़रें छोड़कर तुम इतना दो कि स्वयं रीते हो जाओ। इस से जाते वक्त तुम्हें खाली हाथ जाने की पीड़ा नहीं होगी। रीता होने में बहुत सुख है। इसके लिए अपने मोह को त्याग दो। पेड़ की बात सुनकर आदमी की आंखें सजल हो उठी। वह कुछ नहीं बोल सका, पर उसके आंसुओं में चिंतन की एक मधुर गंध छिपी हुई थी। आज उसे पता लगा कि एक वृक्ष अपना सब कुछ देकर भी इतना प्रसन्न कैसे रह लेता है! जितने फल वह देता है, उससे दुगुने उसकी डाली पर हर वर्ष फिर से आ जाते हैं। उसकी जड़ें ज़मीन में इतनी गहरी गड़ी हुई हैं कि वे उसे कभी खाली होने ही नहीं देती। हम भी धर्म के माध्यम से अपनी पुण्य की जड़ें इतनी गहरी और मज़बूत बनाएं कि दान देने से हमें प्रसन्नता भी ह...

पात्र हो?

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पात्र हो ? बियाबान जंगल कई साधकों का साधना स्थल और प्रभु पार्श्वनाथ का प्रभावना स्थल था। अनेकानेक जिनालयों से युक्त नैना गिरी की तलहटी और उत्तंग पर्वत और इसके साथ-साथ दिगंबर जैन आचार्य का सान्निध्य; इन सारे सामंजस्यों के कारण लोगों के लिए वह बियाबान जंगल, जंगल में मंगल का कारण हुआ करता था। इसी जंगल में एक दिन एक मनचला युवक कौतुकतावश आ गया। वहां जंगल की अनुपम छटा निहारने के बाद वह संत चरण में बिना आशा और विश्वास के पहुंच गया। संत का सौम्य रूप, हंसता हुआ मुख मंडल, सत्य-संयम और सदाचार से युक्त उनका आभामंडल उस युवक को नास्तिकता से आस्तिकता की ओर ले गया। जैसी उसने कभी सोची भी नहीं होगी, ऐसी भावना उसके अंदर जाग गई। उसकी आत्मा कहने लगी - सुशील! अब अपने सोए हुए परमात्मा को जगाओ। कंकर में शंकर का दर्शन करो। प्रभु से परमेश्वर बनने के मार्ग पर चलो। त्रियंच का नहीं तीर्थंकर का अनुसरण करो, नर से नाहर नहीं नारायण बनने का अभ्यास करो, सुशील! ये सारी की सारी भावनाएं भी उसे शांत नहीं रख सकी। वह उठा और आचार्य प्रवर के चरणों में नमस्कार करके बोला - गुरुदेव! मुझे अपने चरण में शरण दो। बस! यही मेरी भावना है ...

रक्षाबंधन

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रक्षाबंधन ‘राजन्! हम तो पहले ही कहते थे कि जैन साधु कुछ नहीं जानते। यह तो उनका सब ढोंग ही है’, बलि, नमुचि, प्रह्लाद और बृहस्पति मंत्रियों के श्री अकंपनाचार्य आदि 700 मुनियों के संघ के विषय में उपरोक्त जहर उगलने पर भी उज्जैन का राजा श्री वर्मा भक्ति व भाव सहित साधुओं को नमस्कार करके ही लौटा। बात यह थी कि आचार्य श्री को आभास हो गया था कि मंत्रियों से वार्ता करने पर संघ पर आपत्ति आ सकती है। अतः सबको मौन रहने का आदेश दे दिया था। आदेश से अवगत न होने से श्रुतसागर मुनिराज, जो आहार चर्या से लौट रहे थे, मंत्रियों के बुरा-भला कहने पर उनसे वाद-विवाद कर बैठे। वाद-विवाद में मंत्री हार गए। इस घटना को श्रुतसागर जी ने आकर आचार्य श्री जी को बताया, जिसको सुनकर आचार्य श्री ने उन्हें वाद-विवाद स्थल पर जाकर ध्यानमग्न खड़े रहने को कहा। बदले का उपयुक्त अवसर जानकर चारों ने मिलकर एक साथ मुनिराज पर तलवार से वार करने के लिए हाथ उठाए। प्रातः लोगों ने देखा, तो सबने मंत्रियों को धिक्कारा। उनकी बहुत निंदा हुई। राजा उनको प्राण दंड दे ही रहे थे लेकिन दया के अवतार मुनिराज के कहने पर उनको केवल देश निकाला ही दिया। बदले क...

संत वृत्ति

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संत वृत्ति एक राजा की एक संत में बहुत श्रद्धा थी। वह संत की सादगी व सांसारिक वस्तुओं के प्रति विरक्ति की बहुत प्रशंसा करता था। एक बार राजा ने संत को अपने महल में आने का निमंत्रण दिया। राजा की अपेक्षा के प्रतिकूल संत ने तुरंत ‘हां’ कर दी और चल पड़े। राजा की आस्था को झटका लगा। उसने अब संत की परीक्षा लेने की सोची और वह यह देखकर दंग रह गया कि संत ने राजमहल में किसी भी सुविधा के दिए जाने पर मना नहीं किया और सुविधाओं का उपभोग करते हुए साधना का क्रम जारी रखा। एक माह के पश्चात अंततः राजा ने संत से कह ही दिया - ‘महात्मा जी! मैं तो आपको विरक्त संन्यासी मानता था, किंतु देखता हूँ कि आप और हम एक से ही हैं।’ संत ने कहा - ‘अंतर तो अब भी है और रहेगा। वास्तविकता जाननी है तो आओ मेरे साथ।’ राजसी ठाठ-बाट एक क्षण में छोड़कर संत कमंडल उठाकर राज्य की सीमा पार घने जंगल में स्थित एक गुफा में जाकर बैठ गए। फिर राजा से बोले - ‘तुम्हारे राज्य की सीमा तो छोटी सी थी, जो पार कर ली। हमारे राज्य की सीमा अंतहीन है। मैं तुम्हारे महल में था ज़रूर, पर महल मुझ में नहीं था। भोगों में रहकर भी उन्हें छोड़ने को तैयार रहना, यही संत ...

हठ का फल

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हठ का फल एक घना जंगल था। उसमें एक पुराना तालाब बना हुआ था, जो काफ़ी गहरा था। तालाब के किनारे जल मुर्गियां और उनके बच्चे घूमते रहते थे। वे कभी पानी में तैरते, कभी पंखों से एक दूसरे पर पानी डालते थे और कभी एक दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश करते। तालाब के किनारे पर एक चिंटू नाम के चूहे का बिल था। चिंटू के तीन छोटे-छोटे बच्चे थे। जब चिंटू उनके लिए खाना जुटाने बिल से बाहर निकल जाता था, तो बच्चे भी बिल से निकल आते थे। वे तीनों तालाब के किनारे आकर बैठ जाते थे। वहां से देखते कि पानी में जल मुर्गाबी और उनके बच्चे तैर रहे हैं। उन्हें पानी में खेलते हुए देखकर चूहे के उन तीनों बच्चों का मन ललचा जाता। उनका मन करता था कि वे भी पानी में तैरें, पर वहां एक बड़ी सी जल मुर्गाबी थी, जो उन्हें पानी में नहीं आने देती थी। शाम को चूहे के बच्चे घर लौटे। चिंटू के साथ बैठकर सब ने खाना खाया। चिंटू के बड़े बेटे का नाम था मिंटू। वह बोला - ‘पिताजी! मुर्गाबी काकी बहुत ख़राब हैं।’ ‘क्यों ? क्या बात है बेटा ? उन्होंने क्या किया ? ’ ‘पिताजी! ख़ुद तो सारे दिन पानी में खेलती रहती हैं, उनके बच्चे भी पानी में तैरते रहते हैं, उन्हे...

अपनी अपनी बात

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अपनी अपनी बात बड़े ही विचित्र, विद्वान और ज्ञान के धनी तीन मित्र थे। एक भौतिक शास्त्री, दूसरा गणितज्ञ और तीसरा रसायन शास्त्री। एक दिन तीनों घूमने निकले। थोड़ी देर घूमने के बाद वे एक झील के किनारे बैठ गए। पहला भौतिक शास्त्री विद्वान बोला - मैं झील में जाता हूँ और इसका घनत्व बताता हूँ। जब बहुत देर तक वह नहीं निकला, तब दूसरे विद्वान गणितज्ञ ने कहा - मैं झील में जाता हूँ और इसकी लंबाई-चौड़ाई मालूम करता हूँ। वे दोनों काफ़ी समय तक वापस नहीं लौटे। बहुत देर हो गई थी। तब तीसरे रसायन शास्त्री विद्वान ने स्वयं से कहा - चलो यार! घर वापस चलें। यह रासायनिक पानी की झील है और हर पदार्थ इसमें जा कर घुलनशील हो जाता है। लगता है कि दोनों मित्र पानी में घुलनशील होने के कारण अदृश्य हो गए हैं। अब वे वापस नहीं आएंगे। वास्तव में आज का ज्ञान केवल किताबों तक ही सीमित रह गया है। बच्चे विद्यालय में ज्ञान प्राप्त करने नहीं, केवल परीक्षा में पास होने के लिए पढ़ने जाते हैं। जब वे पढ़ाई पूरी करने के बाद डिग्रियों के कागज़ हाथ में लेकर निकलते हैं, तो उन कागज़ों के आधार पर अच्छी नौकरी पाने के लिए इधर-उधर भटकते रहने के सिवाय उनक...

कुल्हाड़ी के आंसू

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कुल्हाड़ी के आंसू एक लकड़हारा जंगल में पेड़ काट रहा था। पेड़ काटते-काटते कुल्हाड़ी उछलकर एक पत्थर पर जा गिरी। पत्थर से आग की चिंगारी निकली। कुल्हाड़ी उसी पत्थर पर सिर रखकर फफक-फफक कर रोने लगी। उसके साथ लगे लकड़ी के डंडे से देखा नहीं गया। उसने रोने का कारण पूछा तो कुल्हाड़ी बोली - मुझे प्रतिदिन इन हरे-भरे वृक्षों को काटने से बहुत दुःख होता है। पर्यावरण को नुकसान पहुँचा कर हम कितने दिन जीवित रह पाएंगे। तब साथ वाले डंडे ने उत्तर दिया - ठीक कहती हो तुम। अगर हमारे अंदर जाति-द्वेष न हो और हम एक-दूसरे के विनाश की कामना न करें तो किसी की क्या मज़ाल जो हमारा बाल भी बांका कर सके! यह तो हमारी ही आपसी फूट का परिणाम है कि मैं लकड़ी का डंडा ही तुम्हें उठाकर अपनी ही जाति के वृक्षों का विनाश करा रहा हूँ। लकड़ी के डंडे ने कहा - आँसू तो मुझे आने चाहियें, पश्चाताप तो मुझे करना चाहिए। मैं अपनी ही जाति पर कुठाराघात कर रहा हूँ। क्या दुनिया मुझे नहीं धिक्कारेगी कि यह डंडा स्वयं ही अपनी जाति के विनाश का कारण बना ? तुम्हें तो केवल हमारे द्वारा हरे-भरे वृक्षों का विनाश करना पड़ रहा है, इसलिए रोना आ रहा है और मैं तो अपने ज...

दर्शन का महत्व

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दर्शन का महत्व एक नगर में कहीं से प्रस्थान करके एक मुनिराज पधारे थे। बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष उनका धर्म उपदेश श्रवण करने के लिए जाया करते थे तथा अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार नियम लेते थे। एक दिन एक ऐसा प्राणी शास्त्र सभा में गया जिसकी रुचि धर्म के प्रति कुछ भी नहीं थी। श्रावकों ने मिलकर मुनिराज जी से निवेदन किया कि महाराज! आज एक ऐसा व्यक्ति आया है जो कि धर्म को नहीं जानता। यहां तक कि वह भगवान के दर्शन करने के लिए मंदिर में भी नहीं जाता। अतः किसी भांति उसे कुछ नियम देकर सन्मार्ग पर लगाइए। यह सुनकर मुनिराज ने उसे बुलाया और कहा कि भैया सभी लोग नियम ले रहे हैं, तुम भी कुछ ले लो। उसने उत्तर दिया - महाराज जी! हम नियम नहीं निभा सकेंगे। महाराज जी ने प्रेम पूर्वक समझाया कि एक छोटा सा नियम केवल भगवान के दर्शन करने का ले लो। उसने कहा - महाराज जी! मंदिर तक हमारा जाना कठिन है। हां! हमारे दरवाज़े पर से मंदिर दिखलाई पड़ता है तो वहीं से दर्शन कर सकते हैं। महाराज जी ने कहा - अच्छा! वहीं से कर लेना। पहले तुम दर्शन करने की आदत तो डालो। वह यह नियम लेकर अपने घर चला गया। प्रातः काल अपनी प्रतिज्ञा अनुसार श्रद्...

रिश्तों के बदलते पैमाने

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रिश्तों के बदलते पैमाने सपना मेरे कॉलेज जीवन की सहेली है। उस दिन पार्टी में वह अचानक करीब 18 साल बाद मिली। उसका दूसरा बच्चा गोद में था। हमारी बातचीत शुरू ही हुई थी कि एक महिला आई और सपना के बच्चे को गोद में लेकर खिलाने लगी। इससे मुझे और सपना को ठीक से बात करने के लिए सुविधा हो गई। बाद में सपना ने उस महिला से परिचय कराया - ‘यह मेरी पड़ोसी राशि दीदी हैं, मानो मेरी बड़ी बहिन ही पड़ोस में रहती हों।’ सुनील और अनिल जिगरी दोस्त हैं। दोनों का एक ही व्यवसाय है और दोनों का परिवार मिलकर एक ही छत के नीचे रहता है, मानो दो भाई साथ रहते हों। बैंक में कार्यरत चार दोस्तों ने मिलकर एक जमीन खरीदी और उस पर 4 फ्लैट बनाकर पड़ोसी-पड़ोसी की तरह सुख- दुःख में एकसाथ रहने लगे। माला ने एक मौसी बनाई हुई हैं, जिनकी माला के यहां हर कार्य में प्रमुख भूमिका होती है। माला का अनमोल आधार है यह मौसी। यहां तक की माला की माँ या सास भी आती हैं तो भी वह मौसी से पूछ कर ही निर्णय लेती है। पिछले 10 सालों में जीवन जीने के मायने कुछ इस तरह बदले हैं कि उसका परिणाम हर कहीं नज़र आता है। यहां तक कि रिश्तों पर भी स्वार्थ-ग्रस्त जीवन का प्...