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Showing posts from September, 2025

जिनवाणी थुति

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 जिनवाणी थुति  सिरी जिनवाणी जग कल्लाणी जगजण मद तम मोहहरी जणमणहारी गणहरहारी तित्थयराणं दिव्वझुणिं जो पढइ सुणइ मईए धारइ णाणं सोक्खमणंतं धरिय सासद मोक्खपदं पावइ ।। हिन्दी अर्थः श्री जिनवाणी अर्थात् जिनेन्द्र भगवान की वाणी जगत का कल्याण करने वाली है। जगत के प्राणियों के मद, अज्ञान अंधकार और मोह का हरण करती है। सभी जनों के लिए मनोहर है, गणधरों के द्वारा धारण की जाती है। जन्म, जरा रूप संसार का जम्मजराभय रोगहरी ।रोग हरण करती है। तीर्थंकरों की दिव्य ध्वनि (जिनवाणी) को जो पढ़ता है, सुनता है और मति में धारण करता है, वह अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख को धारण करके शाश्वत मोक्ष पद को प्राप्त करता है। ।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।। सरिता जैन सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका हिसार 🙏🙏🙏 विनम्र निवेदन यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने वाला लगा हो तो कृपया comment के द्वारा अपने विचारों से अवगत करवाएं और दूसरे लोग भी प्रेरणा ले सकें इसलिए अधिक-से-अधिक share करें। धन्यवाद

वीर शासन जयंती

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  वीर शासन जयंती की बधाई  श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के शुभ दिन पर श्री वीर प्रभु की दिव्य देशना 66 दिनों के अंतराल के बाद विपुलाचल पर्वत पर समवशरण के मध्य खिरी थी। दीक्षा लेने के बाद महावीर स्वामी ने मौन व्रत अंगीकार किया। बारह वर्ष की तपस्या के बाद ऋजुकूला नदी के तट पर शुक्ल ध्यान पूर्वक केवलज्ञान प्राप्त किया। उसी समय इंद्र की आज्ञा से कुबेर ने समवशरण की रचना की। लेकिन 66 दिन तक प्रभु की वाणी नही खिरी। इंद्र ने अवधि ज्ञान से यह जाना कि यहां गणधर का अभाव है। गणधर होने की योग्यता इंद्रभूति गौतम में है, ऐसा जानकर युक्ति पूर्वक उनसे एक श्लोक का अर्थ पूछा। इंद्रभूति गौतम ने श्लोक का अर्थ तो उस समय नहीं बताया लेकिन महावीर प्रभु के समवशरण में अपने 500 शिष्यों सहित पधार गये और वहां समवशरण की अद्भुत रचना एवं मानस्तंभ को देखते ही उनका मान गलित हो गया। उसी समय इंद्रभूति गौतम ने जैनेश्वरी दीक्षा धारण की और अनेक प्रकार से महावीर स्वामी की स्तुति की। उन्हें गणधर पद की प्राप्ति हुई और वे प्रथम गणधर कहलाये। उसी समय 18 महाभाषा और 700 लघुभाषा सहित दिव्य ध्वनि खिरने लगी। गणधर गौतम स्वामी ने अंतर्म...

आने वाली चौबीसी में होने वाले तीर्थंकर.

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  आने वाली चौबीसी में होने वाले तीर्थंकर. ...  1. श्रेणिक राजा का जीव, प्रथम नरक से आकर पहले तीर्थंकर  “ श्री पद्मनाभजी ”  होंगे। 2. श्री महावीर स्वामी जी के काका सुपार्श्व जी का जीव, देवलोक से आकर दूसरे तीर्थंकर  “ श्री सुरदेव जी ”   होंगे। 3. कोणिक राजा का पुत्र उदाइ राजा का जीव, देवलोक से आकर तीसरे तीर्थंकर  “ श्री सुपार्श्व जी ”  होंगे। 4. पोट्टिला अनगार का जीव, तीसरे देवलोक से आकर चौथे तीर्थंकर   “ श्री स्वयंप्रभ जी ”   होंगे। 5. दृढ़ युद्ध श्रावक का जीव, पांचवे देवलोक से आकर पांचवें तीर्थंकर   “ श्री सर्वानुभूति जी ”   होंगे । 6. कार्तिक सेठ का जीव, प्रथम देवलोक से आकर छठे  “ श्री देवश्रुती जी ”   होंगे । 7. शंख श्रावक का जीव, देवलोक से आकर सातवें  “ श्री उदयनाथ जी ”   होंगे । 8. आणन्द श्रावक का जीव, देवलोक से आकर आठवें  “ श्री पेढ़ाल जी ”  होंगे। 9. सुनंद श्रावक का जीव, देवलोक से आकर नौवें  “ श्री पोट्टिल जी ”  होंगे। 10. पोखली श्रावक के धर्म भाई शतक श्रावक का जीव, देवलोक से आकर...

अष्टाह्निका पर्व

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  अष्टाह्निका पर्व की जानकारी  (१) पूरे साल में कितनी बार अष्टाह्निका आती है और कौन-से महीने में? उ० - वर्ष में कुल तीन बार अष्टाह्निका शाश्वत पर्व आते हैंः- कार्तिक मास में, फाल्गुन मास और आषाढ़ मास में। (२) अष्टाह्निका पर्व कौन-सी तिथि से कौन-सी तिथि तक होते हैं? उ० - कार्तिक शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा पर्यंत, फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा पर्यंत तथा आषाढ़ शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा पर्यंत। (३) यह पर्व अंतिम आठ दिन में ही क्यों आता है? उ० - क्योंकि गुजराती में सुदी से महीने की शुरुआत होती है और बदी में पूरा होता है। लेकिन हिंदी, मराठी में बदी से महीने की शुरुआत होती है इसलिए इन्हें अंतिम आठ दिन का माना जाता है। (४) इस पर्व में 4 प्रकार के देव कौन-से द्वीप पर पूजा करने जाते हैं और उसका द्वीप और समुद्र की अपेक्षा से कौन-सा नंबर आता है? उ० - ये देव नंदीश्वर द्वीप पर पूजा करने जाते हैं, जिसका नंबर आठवाँ है। द्वीप और समुद्र मिला कर 15 वाँ नंबर होता है। (५) इस पर्व में किस की भक्ति की जाती है? उ० - इस पर्व में सिद्धों की भक्ति की जाती है। ।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।। सरिता जैन सेवानि...

पाँच (5) के अंक से स्वाध्याय 78-108

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पाँच (5) के अंक से स्वाध्याय 78-108  78. लब्धअपर्याप्तक के भवों की संख्या - एक इन्द्रिय में 66132 भव $ दो इन्द्रिय में 80 भव $ तीन इन्द्रिय में 60 भव $ चार इन्द्रिय में 40 भव $ पाँच इन्द्रिय में 24 भव = कुल योग- 66336 भव।  79. पाँच सूना - 1. बुहारी देना, 2. अग्नि जलाना, 3. जल भरना, 4. कूटना, 5.पीसना।  80. पैंतालीस लाख योजन विस्तार है - 1. सीमान्तक इन्द्रक बिल (प्रथम नरक), 2. ढाई द्वीप, 3. प्रथम स्वर्ग का ऋजुनामा विमान, 4. सिद्ध शिला, 5. सिद्ध क्षेत्र।   81. जीव के साथ संबंधित मुख्य वर्गणायें पाँच प्रकार की हैं - 1. आहार वर्गणा, 2. भाषा वर्गणा, 3. मनो वर्गणा, 4. तैजस वर्गणा, 5. कार्मण वर्गणा।  82. अर्थ-व्यंजन-योग संक्रान्ति - 1. अर्थ नाम ध्यान करने योग्य द्रव्य व पर्याय का है। 2. व्यंजन नाम वचन का है। 3. योग नाम काय, वचन, मन की क्रिया का है। 4.संक्रान्ति नाम पलटने का है। 5. इनमें जो द्रव्य को छोड़ उसकी पर्याय को ध्याता है तथा पर्याय को छोड़कर द्रव्य को ध्याता है तो अर्थ संक्रान्ति है।  83. मोक्ष पाँच प्रकार का होता है - 1. शक्ति मोक्ष, 2. दृष्टि मोक्ष, 3....

पाँच (5) के अंक से स्वाध्याय 46-77

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पाँच (5) के अंक से स्वाध्याय 46-77   पांच होते हैं -   47. वर्ण पाँच - 1. काला, 2. पीला, 3. नीला, 4. सफेद, 5. लाल।  48. भूत पाँच - 1. पृथ्वी, 2. जल, 3. अग्नि, 4. वायु, 5. आकाश। (अन्य मतों के अनुसार)  49. परावर्तन पाँच - 1. द्रव्य, 2. क्षेत्र, 3. काल, 4. भव, 5. भाव।   50. दान पाँच - 1. दयादत्ति, 2. पात्रदत्ति, 3. समदत्ति, 4. अन्वयदत्ति, 5. सकलदत्ति।  51. पाण्डव पाँच - 1. युधिष्ठिर, 2. भीम, 3. अर्जुन, 4. नकुल, 5. सहदेव।   52. तीर्थंकर महावीर के बाद पाँच श्रुत केवली - 1. विश्वनन्दी, 2. नन्दीमित्र, 3.अपराजित, 4. गोवर्धन, 5. भद्रबाहु।   53. तीर्थंकर महावीर के बाद पाँच महामुनि - 1. नक्षत्र, 2. जयपाल, 3. पाण्डु, 4.ध्रुवसेन, 5. कंसाचार्य दशांग विद्या के पारगामी।   54. तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक - 1. गर्भ, 2. जन्म, 3. तप, 4. ज्ञान, 5. मोक्ष।   55. कर्म इन्द्रियाँ पाँच - 1. पैर, 2. हाथ, 3. वचन, 4. गुदा, 5. उपस्था।   56. ऊँ में पंच परमेष्ठी सूचक पाँच अक्षर हैं - 1. अ, 2. अ, 3. आ, 4. उ, 5. म। 57. अ, सि, आ...

नेमिनाथ भगवान

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  नेमिनाथ भगवान द्वारका नगरी में राजा समुद्रविजय और रानी शिवादेवी के राज्य में श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में एक दिव्य बालक का जन्म हुआ। उसके जन्म के साथ ही आकाश में शंखनाद गूंज उठा, इसलिए उसका नाम पड़ा अरिष्टनेमि, जिसे नेमिनाथ भी कहा गया। उसका रंग श्याम था और पैरों के नीचे शंख का चिन्ह था। राजा समुद्रविजय भगवान ऋषभदेव के वंशज थे और नेमिनाथ के चचेरे भाई श्रीकृष्ण और बलराम थे। नेमिनाथ बचपन से ही करुणा, अहिंसा और वैराग्य की भावना से ओतप्रोत थे। राजसी सुख-सुविधाओं के बीच भी वे आत्मा की शांति की खोज में रहते थे। समय बीता और राजा समुद्रविजय ने नेमिनाथ के लिए राजकुमारी राजुल (राजीमती) का विवाह प्रस्ताव स्वीकार किया। राजुल विद्या, सौंदर्य और सद्गुणों की प्रतिमूर्ति थी। वह नेमिनाथ को बचपन से ही मन-ही-मन चाहती थी। विवाह की तैयारियाँ पूरे द्वारका में धूमधाम से होने लगीं। राजुल अपने सपनों के राजकुमार के स्वागत में स्वयं को सजा रही थी। उसकी आँखों में नेमिनाथ के साथ जीवन बिताने के अनगिनत सपने थे। विवाह का शुभ मुहूर्त आया। नेमिनाथ अपने परिवार और मित्रों के साथ विवाह मंडप की ओर बढ़े।...

जैन रानी - रानी अब्बक्का चौटा

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  जैन रानी - रानी अब्बक्का चौटा क्या हमें जैनों को यह ज्ञात है कि हम अपनी एक महान जैन रानी - रानी अब्बक्का चौटा - की 500वीं जयंती (1525-2025) मना रहे हैं? क्या हम जैन समाज को यह भी ज्ञात है कि जैन कुल की यह वीरांगना, जो कर्नाटक के चौटा वंश से संबंध रखती थीं, को हिंदुस्तान की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा प्राप्त हैं? यह वही रानी हैं, जिन्होंने 16वीं शताब्दी में पुर्तगाली आक्रांताओं को अनेक बार पराजित किया और अपने राज्य उल्लाल की स्वतंत्रता को बनाए रखा। रानी अब्बक्का चौटा दक्षिण भारत के तटीय क्षेत्र में स्थित उल्लाल की शासिका थीं। चौटा वंश जैन धर्म का अनुयायी था और मातृसत्तात्मक परंपरा का पालन करता था, जिसमें सत्ता पुत्र की बजाय पुत्री को सौंपी जाती थी। रानी अब्बक्का को शासन सौंपा गया और उन्होंने जैन सिद्धांतों - अहिंसा, अपरिग्रह, सत्य और सहिष्णुता - के आधार पर राज्य चलाया। लेकिन जब पुर्तगाली शासकों ने उल्लाल पर कर थोपने की कोशिश की, तो उन्होंने प्रतिकार करते हुए सशस्त्र संघर्ष प्रारंभ किया। पुर्तगालियों के लिए उल्लाल एक सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बंदरगाह था। रानी अब्बक्क...

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित - 16

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  अभिषेक पाठ- अर्थ सहित - 16 (आचार्य माघनन्दीकृत) इमे नेत्रे जाते सुकृत-जलसिक्ते सफलिते, ममेदं मानुष्यं कृतिजन-गणादेय-मभवत्। मदीयाद् भल्लाटा-दशुभतर-कर्माटन-मभूत्, सदेदृक् पुण्यार्हन् मम भवतु ते पूजन-विधौ।। इमे - ये नेत्रे - दोनों नेत्र जाते - हो गए हैं सुकृत - पवित्र जलसिक्ते - जल के सिंचन से सफलिते - सफल मम - मेरा इदं - यह मानुष्यं - मानुष्य कृति - का जन्म जनगण - लोगों के समूह के द्वारा आदेयम् - ग्रहण करने योग्य अभवत्- हो गए हैं मदीयात् - मेरे भल्लाटात् - शरीर से अशुभतर् - अशुभतर कर्माटनम् - कर्मों से अभूत् - रहित हो गए हैं सदा - सदा इदृक् - इस प्रकार का पुण्य - पुण्य अर्हन् - हे अरिहंत भगवान! मम - मेरे भवतु - हों ते - आपकी  पूजनविधौ - पूजनविधि से अर्थ - ये मेरे दोनों नेत्र पवित्र जल के सिंचन से सफल हो गए हैं। मेरा यह मनुष्य जन्म लोगों के समूह के द्वारा ग्रहण करने योग्य हो गया है। मेरे शरीर से अशुभतर कर्म अशुभता से रहित हो गए हैं। हे अरिहंत भगवान! आपकी पूजनविधि से मैं सदा इस प्रकार के पुण्य कार्य में लगा रहूँ। ।।पुष्पाँजलिं क्षिपामि।। ।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।। सरिता जैन से...

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित - 15

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  अभिषेक पाठ- अर्थ सहित - 15 (आचार्य माघनन्दीकृत) मुक्तिश्री-वनिताकरोदकमिदं पुण्यांकुरोत्पादकम्, नागेन्द्र-त्रिदशेन्द्रचक्रपदवी-राज्याभिषेकोदकम्। सम्यग्ज्ञानचरित्रदर्शन-लतासंवृद्धि-सम्पादकम्, कीर्तिश्री-जयसाधकं तव जिनस्नानस्य गन्धोदकम्।। मुक्तिश्री -मोक्ष रूपी लक्ष्मी के समान वनिता - पत्नी के कर- हाथ में उदकम् - लिया गया जल इदं - यह पुण्य - पुण्य रूपी अंकुर - अंकुर को उत्पादकम् - उत्पन्न करने वाला नागेन्द्र - धरणेन्द्र त्रिदशेन्द्र - देवेन्द्र चक्रपदवी - चक्रवर्ती के पद को देने वाले राज्य अभिषेक - राज्य अभिषेक का उदकम् - जल सम्यक् ज्ञानचरित्रदर्शन - समीचीन ज्ञान, चरित्र, दर्शन की लतां - लता को संवृद्धि - बढ़ाने में सम्पादकम् -सम्पादन करने वाला है कीर्ति - कीर्ति को श्री - लक्ष्मी को देने वाला है जयसाधकं - विजय दिलाने वाला है तव - आपका जिनस्नानस्य - जिनेन्द्र भगवान के स्नान का गन्ध - सुगन्धित उदकम् - जल अर्थ - हे जिनेन्द्र भगवान! मोक्ष रूपी लक्ष्मी के समान पत्नी के हाथ में लिया गया यह जल पुण्य रूपी अंकुर को उत्पन्न करने वाला है। धरणेन्द्र, देवेन्द्र, चक्रवर्ती के पद को देने वाले राज्...

अभिषेक पाठ -अर्थ सहित - 14

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  अभिषेक पाठ- अर्थ सहित - 14 (आचार्य माघनन्दीकृत) जल-गन्धाक्षतैः पुष्पैश्-चरु-दीप - सुधूपकैः। फलै-रर्घै-र्जिनमर्चेज जन्मदुःखापहानये।। जल - जल से गन्ध - गन्ध अर्थात् चंदन से अक्षतैः - अक्षत से  पुष्पैः - पुष्पै से चरु - नैवेद्य से सुधूपकैः - अच्छी धूप से दीप - दीप से फलैः - फल से अर्घै - आठों द्रव्यों को मिला कर बने अर्घ से र्जिनम् - जिनेन्द्र भगवान की अर्चेत् - अर्चना करनी चाहिए जन्म - जन्म रूपी दुःखः-दुःख का आपहानये - नाश करने के लिए अर्थ - जन्म रूपी दुःख का नाश करने के लिए जल से, गन्ध अर्थात् चंदन से, अक्षत से, पुष्प से, नैवेद्य से, अच्छी धूप से, दीप से, फल से और आठों द्रव्यों को मिला कर बने अर्घ से जिनेन्द्र भगवान की अर्चना करनी चाहिए। ऊँ ह्रीं श्रीपीठस्थितजिनायार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा नत्वा परीत्य निज-नेत्र ललाटयोश्च, व्याप्तं क्षणेन हरता-दघ-संचयं मे। शुद्धोदकं जिनपते तव पाद-योगाद्, भूयाद् भवातप-हरं धृत-मादरेण।। नत्वा - नमस्कार करके  परीत्य - प्रदक्षिणा करके  निज-नेत्र - अपने नेत्रों पर ललाट - ललाट पर योः - दोनों च -और  व्याप्तं - लगाया है क्षणेन - क्षण भ...

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित - 13

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  अभिषेक पाठ- अर्थ सहित - 13 (आचार्य माघनन्दीकृत) स्नानं विधाय भवतोऽष्ट-सहस्र-नाम्ना- मुच्चारणेन मनसो वचसो विशुद्धिम्। जिघृणु-रिष्ट-मिन तेऽष्ट-तयीं विधातुं, सिंहासने विधि-वदत्र निवेशयामि।। स्नानं - स्नान अर्थात् अभिषेक को विधाय - करके भवतः - आपके अष्ट - आठ सहस्र - हज़ार नाम्ना - नाम के उच्चारणेन - उच्चारण से  मनसः - मन से वचसः - वचन से विशुद्धिम् - विशुद्धि को प्राप्त जिघृणुः - इच्छा करता हुआ इष्टम्- पूजा करने की इन - यहाँ पर ते - आपकी  अष्ट-तयीम् - आठ प्रकार के द्रव्यों से विधातुम् - पूजन करने की  सिंहासने - सिंहासन पर विधि-वत् - विधिपूर्वक अत्र - यहाँ निवेशयामि - स्थापित करता हूँ अर्थ - हे जिनेन्द्र भगवान! स्नान अर्थात् आपका अभिषेक करके आपके एक हज़ार आठ नाम के उच्चारण से, मन से, वचन से विशुद्धि को प्राप्त करके आपकी आठ प्रकार के द्रव्यों से पूजा करने की इच्छा करता हुआ यहाँ सिंहासन पर विधिपूर्वक स्थापित करता हूँ। ऊँ ह्रीं श्रीसिंहासने जिनबिम्बं स्थापयामि। ।। ओऽम् श्री महावीराय नमः ।। सरिता जैन सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका हिसार 🙏🙏🙏 विनम्र निवेदन यदि आपको यह लेख ...

अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (12)

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अभिषेक पाठ- अर्थ सहित (12) (आचार्य माघनन्दीकृत) नत्वा मुहु-र्निज-करै-रमृतोप-मेयैः। स्वच्छै-र्जिनेन्द्र तव चन्द्र-करावदातैः। शुद्धांशुकेन   विमलेन   नितान्त  -   रम्ये, देहे स्थितान् जलकणान् परिमार्जयामि।। नत्वा- नमस्कार करके  मुहुः - बार-बार निजकरैः - अपने हाथों से अमृत- अमृत की उप मेयैः - उपमा के द्वारा स्वच्छैः-स्वच्छ से जिनेन्द्र -जिनेन्द्र भगवान तव - आपका  चन्द्र करावदातैः- चन्द्रमा की किरणों के समान सुशोभित शुद्ध अंशुकेन - शुद्ध वस्त्र के द्वारा विमलेन - जो पवित्र हैं नितान्त  रम्ये - हमेशा रमणीयता देने वाले देहे - देह पर  स्थितान् - स्थित  जलकणान् - जल के कणों को परिमार्जयामि - परिमार्जन अर्थात् साफ करता हूँ अर्थ -  हे जिनेन्द्र भगवान! अपने हाथों के द्वारा बार-बार नमस्कार करके, जो अमृत के समान स्वच्छ हैं, आपका शरीर चन्द्रमा की किरणों के समान सुशोभित है, जो पवित्र हैं और हमेशा रमणीयता देने वाले हैं, ऐसी देह पर स्थित जल के कणों को शुद्ध वस्त्र के द्वारा परिमार्जन अर्थात् साफ करता हूँ। ऊँ   ह्रीं  अमलांशुकेन ज...